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क्यो?

क्यो?

by pallavi anwekar
in फरवरी २०१३, सामाजिक
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…..और रात को 2.15 बजे उसने सिंगापुर के अस्पताल में दम तोड़ दिया….।21 दिसम्बर 2012 को सारे न्यूज चैनलों पर यही लाइन दिखाई दे रही थी। लोग उसकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना कर रहे थे। देश में विभिन्न जगहों पर जमा भीड़ ने आंदोलन का रुप ले लिया था। उसका बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा, गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी, इस केस की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में होगी इत्यादि बातें चैनलों के माध्यम से लोगों तक पहुंच रही थी। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और देश के सभी दिग्गज नेता लोगों से शांतिपूर्ण आंदोलन की मांग कर रहे थे और सामान्य जनता आंखों में आंसू लिये न्याय की गुहार लगा रही थी। न्याय! इस मामले के संबंध में या किसी भी अन्य गुनाह के संबंध में न्याय की व्याख्या क्या है? और क्या होनी चाहिये? लोग अपराधियों को फांसी देने की मांग कर रहे है। परंतु क्या फांसी इनके लिये उपयुक्त है? जिस वहशियत, हैवानगी और क्रूरता की हदों को इन अपराधियों ने पार कर दिया, केवल फांसी दे देना तो उन्हे मुक्त कर देने जैसा होग। उनकी मौत से अन्य लोगों को सबक मिलेगा, लोगों मे कानून का ड़र पैदा होगा जैसी बातों के भी कोई मायने नहीं है। न्याय व्यवस्था द्वारा दिये गये दंड़ के ड़र से अब तक कितने अपराधों में कमी आई है? दिल्ली की इस घटना के बाद भी देश में ऐसी ही कई घटनायें घटीं, और एक सप्ताह के अंदर ही घटी। उन अपराधियों को मृत्यूदंड़ मिलने के बाद लोग कुछ दिन इसका जश्न मनायेंगे (जैसे कसाब का मनाया) और फिर भूल जायेंगे। क्या आज समाज को ऐसी मिसाल देना जरुरी नहीं है जिसे देख-देखकर अपराधियों के रौंगटे खड़े होते रहें? क्या ये अपराधी भी उसकी ही जितनी शारीरिक और मानसिक यातना पाने के हकदार नहीं हैं? एक अकेली लड़की के साथ 4-5 लोगों द्वारा कुकर्म किया जाना, उसके साथ इस कदर मारपीट कि शरीर के आंतरिक अंगों तक को नुकसान पहुंचे और फिर उसे उसी हालत में तड़पता छोड़ देना, ये सभी मानसिक विकृति के लक्षण हैं। परंतु शर्म की बात यह है कि ऐसे न जाने कितने विकृत न सिर्फ खुले आम बल्कि नाज से समाज में घूम रहे हैं। ड़ाक्टर बनने का सपना अपनी और अपने परिवार की आंखों में लिये यह लड़की खुद ही ड़ॉक्टरों के हुजूम के बीच पल-पल मौत से लड़ती रही। थोड़ा सा होश आते ही पूछती रही कि क्या उनको पकड़ लिया गया? कितना गहरा होगा उसका मानसिक जख्म। ड़ाक्टरों द्वारा बताये गये शारीरिक जख्मों के बारे में सुनकर ही रौंगटे खड़े हो जाते है तो सोचिये कि अगर वह जीवित रहती और अपना दर्द सुनाती तो क्या होता? शायद वह यह सब बयां कर पाने की हालत में ही न होती। फिर उन क्षणों को याद कर मन में उठने वाला ड़र, संकोच, गुस्सा, कुछ न कर पाने की अक्षमता और किसी को न बता पाने की असमर्थता और घुटन उसे तिल-तिल मार देती। जिसने कुछ नहीं किया, जिसका कोई अपराध नहीं उसे इतनी बड़ी सजा और जिन्होंने यह अपराध किया उन्हें जीवन से मुक्ति? मृत्यू के उपरांत नरक में जाकर अपने कर्मों को भोगना जैसी बात न तो किसी ने देखा है न ही इससे समाज को कोई सबक मिलेगा। इन अपराधियों के लिये तो ऐसी सजा जरुरी है जिसे वे जीवित रहकर भोगें। खुद तो अपने आपसे शर्म करें हीं और लोग भी इन्हें देखकर शर्म और ड़र दोनों महसूस करें। परंतु हमारी न्याय व्यवस्था में न ऐसा कोई विधान है न लाने की जरूरत समझी जायेगी। न्याय के तथाकथित पैरोकार भी फांसी को उच्चतम सजा मान लेंगे। फांसी दिलवा भी पायेंगे या नहीं यह भी एक सवाल हैं। ऐसे समय में लगता है कि हिन्दी सिनेमा की तरह यहां भी इन अपराधियों को भीड़ को सौंप देना चाहिये जो उन्हें इस हद तक यातना दे कि उसकी मृत्यू हो जाये। परंतु वास्तविकता में कानून इसकी भी इजाजत नहीं देगा।

समाज की दृष्टि प्रदूषित होती जा रही है। जिन पंच महाभूतों से हमारे पर्यावरण का निर्माण हुआ है उनसे ही हमारा तन और मन बना है। मिट्टी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से मिलकर पर्यावरण बना है और मानव शरीर भी। इनको प्रदूषित करने का प्रयत्न मानव कर हा है और परिणाम स्वरूप उसका अपना तन और मन भी प्रदूषित हो रहा है। कारखानों से निकला कचरा पानी में बहाकर जल प्रदूषण बढ़ा रहा है और शराब और कोल्ड़ ड़्रिकं पीकर अपना शरीर प्रदूषित कर रहा है। वाहनों और फैक्ट्रियों से धूंआ निकाल कर अपना पर्यावरण प्रदूषित कर रहा है और सिगरेट पीकर अपना शरीर। मिसाइलों और राकेटों के प्रयोग करके आकाश खराब कर रहा है और गंदी पुस्तकों, फूह़ड़ गीतों और विचारों से अपने मन को।

नारी को आदि शक्ति समझने से लेकर पीड़ित बनाने तक का यह सफर भारतीय समाज के नैतिक पतन की कहानी अपने आप बयां कर रहा है। बड़े जोर शोर से लोग उस पीड़ित को न्याय दिलाने की बात कर रहे है पर क्या इन लोगों के मन में उसके लिये सहानुभूति है? या वे उस लड़की को दया का पात्र मन रहे हैं। जब भी उसकी बात होती है एक चित्र दिखाया जाता है जिसमें लड़की ने अपना मुंह या तो हाथ से छुपाया है या घुटनों के बीच। क्यों? वो तो अपनी लड़ाई सिर उठाकर अंतिम सांस तक लड़ती रही और लोगों ने उसे शर्मसार कर दिया? किसी गलती के न होते हुए वह क्यों मुंछ छिपाकर घूमे? जिन्हे मुंह छिपाना चाहिये वे तो नहीं छिपाते?

इस घटना के बाद महिलाओं के रहन-सहन और कपड़ों को लेकर फिर चर्चा होने लगी। बड़े-बड़े भाषण देनेवाले लोग जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं कहने लगे हैं कि औरतों को ऐसा लिबास पहनना चाहिये जिसमें पूरा शरीर ढ़ंका हो। बात सही तो है पर क्या काफी है? क्या इतने से ये कुकर्म रुक जायेंगे? नहीं ऐसा होता तो भारतीय परिधान साड़ी पहनने वाली महिलाओं और बुर्के में अपने आप को पूर्ण ढ़ंकनेवाली मुस्लिम महिलाओं के साथ कभी कुकर्म नहीं होता? कम और तंग वस्त्र पहनने वाली महिलाओं का प्रतिशत महानगरों और कुछ बड़े शहरों में अधिक है। गांव और छोटे शहरों में तो महिलायें स्कर्ट पहनकर नहीं घूमती। फिर उनके साथ ये हादसे क्यों होते हैं? क्यों ये महिलाएं भी शहर की उन महिलाओं के समान पीड़ित हैं?

महिलाओं का रात में घूमना उचित नहीं है, उन्हे अपने परिवार के सदस्यों के साथ जाना चाहिये, ये बंधन क्यों? महिला किसी जंगल में जाये तो रात में जाना उचित नहीं हैं क्यों कि वहां जानवरों का खतरा हो सकता हैं, परंतु शहर में ही जब जानकर बढ़ने लगे तो? वे तो रात-दिन कुछ भी नहीं देखेंगे। तो क्या हर लड़की, हर महिला अपने ऑफिस और कॉलेज परिवार के किसी सदस्य के साथ जाये? या आफिस और कॉलेज ही उसे जल्दी घर जाने की अनुमति दे दे ताकि वह अंधेरा होने से पहले घर पहुंच जाये।

इस घटना के बाद फेसबुक पर एक पोस्ट आने लगा है कि जो लोग अपनी बेटियों को पूरे कपड़े पहनने की नसीहत देते हैं, वे लोग अपने बेटों को भी समझायें कि लड़कियों के प्रति बुरी नजर न रखें। ताली एक हाथ से नहीं बजती यह कहावत सही है। लड़कों को उकसाने में भी लड़कियों का ही हाथ होता है यह बात भी सही है परंतु दिल्ली की इस घटना में तो ऐसा कुछ भी नहीं था। जो कृत्य किया गया उसका कोई कारण नहीं था। न कपड़े न पुरानी रंजिश कुछ भी नहीं। था तो केवल क्षणिक आवेश, वहशीपन और क्रूरता।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का कहना है कि जिन लोगों ने यह अपराध किया है वे दिल्ली के बाहर के हैं। राज ठाकरे भी कई अपराधों के लिये ‘परप्रांतीयों’ को निशाना बनाते रहे हैं परंतु आज क्या इस कूपमंड़ूक विचारधारा से काम चलेगा? मेरा शहर, मेरा राज्य, मेरा प्रदेश जैसी सोच को बदलना होग। वसुधैक कुटुंबकम की बात करनेवाला हमारा समाज आज अपने में सिमटता जा रहा है। हमारे आदर्श, हमारे संस्कार खोखले होते जा रहे हैं। इन अपराधियों का भी कोई शहर, कोई प्रदेश होगा। इन्हे भी संस्कार दिये गये होंगे। फिर क्या उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे ऐसे घिनौने विचार मन में ही न आने देते और आते भी तो उन्हें मूर्त रूप देने का साहस न कर पाते? अब जब संस्कारों की जड़ें इतनी खोखली हो गई हैं तो ऐसे अपराधों के लिये दंड़ आवश्यक है और वह भी ऐसा कि उस अपराधी और समाज दोनों के लिये सबक बन सके और फिर कोई ऐसा अपराध दोबारा करने की सोच भी न सके।

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