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भगवा…

भगवा…

by डॉ. देवेन्द्र दीपक
in जुलाई -२०१३, संघ, सामाजिक
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‘नाम में क्या रखा है? नाम का क्या? रंग में क्या रखा है? रंग का क्या?’
‘ऐसा नही है बंधु। हमारे लिए नाम का भी महत्व है और रंग का भी।’
‘जैसे और रंग, वैसा ही भगवा?’
‘फिर वही रट! ऐसा नहीं है। हमारे लिए भगवा एक रंग भर नहीं है। वह हमारे लिए बहुत कुछ है।’ हमारे लिए‡
‡ भगवा एक संकल्पना है।
‡ भगवा एक अन्तर्यात्रा है।
‡ भगवा एक जीवनशैली है।
‡ भगवा एक आचार संहिता है।
‡ भगवा एक संधि है।
‡ भगवा एक समास है।
‡ भगवा एक आह्वान है।
‡ भगवा एक मौन संगीत है।
‡ भगवा एक उत्प्रेरक है।
‡ भगवा एक सतत परीक्षा है।
‡ भगवा एक अग्निशिखा है।
‡ भगवा एक कीलक है।
‡ भगवा एक चुम्बक है।
‡ भगवा एक रस‡वर्षा है।
‡ भगवा एक परम्परा है।
‡ भगवा एक पराक्रम है।
‡ भगवा एक भाषा है।
‡ भगवा एक भाष्य है।
‡ भगवा तलवार की धार है।
‡ भगवा कांटों का ताज है।
‡ भगवा अभय है ।
‡ भगवा विश्वबंधु है ।

भगवा हमारी जातीय स्मृति में श्रद्धा, वैराग्य, पवित्रता और शुचिता का प्रतीक बनकर बैठा है। स्थायी रूप से भगवा काल की गति का साक्षी है। जो कोई भी भगवा धारण कर हमारे सामने खड़ा है, उसके सामने हम नतमस्तक होते हैं। भगवा सब का है। भगवा पंथ निरपेक्ष! जाति निरपेक्ष! भगवा मांगे सबकी खैर, भगवा निरबैर! भगवा नहीं मानता छुआछूत, सब देवदूत!

मंगल का लाल और बृहस्पति का पीला! जब दोनों मिलते हैं, तब भगवा बनता है। याने मंगल और बृहस्पति दोनों के गुण-धर्म का सम्मिश्रण।

भगवा धारण करने के बाद भी यदि कोई प्रभावी रूप से भगवान के साथ अपने तार नहीं जोड़ पाता तो समाज उस पर अंगुली उठाता है। समाज आलोचना के स्वर में बोलता है‡ ‘मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा।’

यह समाज के स्वयं के हित में है कि संस्कृति राजनीति की नियामक बने। लेकिन आज राजनीति संस्कृति पर हावी हो रही है। भारत में आज राजनीति भगवा को घेरने की कोशिश कर रही है। भगवाधारी साधु‡सन्तों को किसी न किसी बहाने लांछित किया जा रहा है। उनकी साख को बट्टा लगाया जा रहा है। एक समय होता है जब ये नेता किसी साधु-स्वामी के शरण में जाते हैं। उसके चरण पखारते हैं। फिर कुछ ऐसा होता है कि वही नेता उसी साधु-स्वामी को ढोंगी और पाखण्डी कहने लगते हैं। राजनेता चाहते हैं कि सन्त उनके हित में काम करें। उनकी लाइन पर चलें। जो नहीं चलेगा, उसके लिए काली स्याही!

सीरियलों में, विज्ञापनों में, नाट्य प्रस्तुतियों में भगवा की हंसी उड़ायी जाती है। किसी दुष्ट पात्र को दिखाना हो तो उसके माथे पर तिलक, गले में रुद्राक्ष की माला और भगवे रंग का दुपट्टा! बस इतना भर काफी!

पाखण्ड भी समाजिक जीवन का एक सच है। सब समाजों में कुछ पाखण्डी होते ही हैं। लेकिन आज हवा िंहंदू समाज के विरुद्ध बह रही है। और धर्म‡पंथ के साधु सच्चे तथा महान, लेकिन हिंदू सन्त‡महात्मा पाखण्डी और दुराचारी!

थोड़ा ठहरकर ठण्डे दिमाग से सोचने की जरूरत है। एक शब्द चल रहा है भगवाकरण। एक उपालम्भ की तरह, एक अभियोग की तरह! एक लांछन की तरह! योग के प्रसार का प्रस्ताव हो, तो भगवाकरण। संस्कृत की बात करो, तो भगवाकरण। गीता पढ़ाओ, तो भगवाकरण। सूर्य नमस्कार का आयोजन करो, तो भगवाकरण। वन्दे मातरम कहो, तो भगवाकरण। सरस्वती की वन्दना करो, तो भगवाकरण। गोरक्षा का प्रश्न उठाओ, तो भगवाकरण। वेद और यज्ञ को महत्व दो, तो भगवाकरण। वर्ष प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष के रूप में मनाओ, तो भगवाकरण। अल्पना और रंगोली निकालो, तो भगवाकरण। शिलान्यास के अवसर पर भूमि पूजन करो और नारियल फोड़ो, तो भगवाकरण। नटराज का पूजन करो, तो भगवाकरण। वैदिक गणित पढ़ाओ तो भगवाकरण। अपने मकान के द्वार पर ॐ लिखवाओ, तो भगवाकरण। याने भारत के लोक को भारतीयता से जोड़ने की हर कोशिश का उपहास!

तो फिर क्या करें? स्यापा करें? रोते कलपते रहें? नहीं! ऐसा नहीं। झाडू लगाना होगा, धूल हटानी होगी। शंख बजाना होगा, अंकुश लगाना होगा।
याद रखने की बात है कि भगवा जब चोला बनकर देह पर सजता है, तो वह भक्ति और आध्यात्म की ओर ले जाता है, लेकिन वही भगवा जब हमारे पूर्वजों के ध्वज के रूप में आकाश में फहरता है, तो वह शक्ति, शौर्य और पराक्रम का भाव जगाता है, न्याय की रक्षा का अश्वासन देता है।

इस बात को गांठ बांध लें कि उपहास और अपमान उसी का होता है, जो उपहास और अपमान को सहता है। भगवा का उपहास इसलिए हो रहा है कि भगवाधारी और भगवाप्रेमी दोनों उपहास और अपमान को चुपचाप सह रहे हैं और उसका प्रतिकार नहीं करते। ऐसे में व्यक्ति और समाज दोनों का मार्दव कुंठित होता है। हम खुद अपराधबोध से ग्रस्त हो जाते हैं।

याद रखिए कि आज हमारा पहला सरोकर भगवा की प्रतिष्ठा और मर्यादा का है। प्रतिष्ठा मर्यादा के पालन से अर्जित होती है और मर्यादा के उल्लंघन और अतिक्रमण से विसर्जित। यदा‡कदा धर्माचार्यों और उनके आश्रमों की अनैतिक गतिविधियों के समाचार सामने आते हैं, तो मन दु:खी होता है, शंकालु हो उठता है, श्रद्धा डगमगाने लगती है। समाज का मोहभंग होता है। इस मोहभंग का विपरीत प्रभाव प्रौढ़ों पर तो पड़ता ही है, प्रौढ़ों से अधिक नयी पीढ़ी पर पड़ता है।

भगवा की मर्यादा की रक्षा आवश्यक है । इसका दायित्व हम सब पर है। भगवाधारी वर्ग को छल‡छद्म और प्रदर्शन से बचना होगा। भगवाधारी को अखण्ड भगवाभाव में जीना होगा। उसे पारदर्शी होना होगा। भगवाधारी का आश्रम हमारे लिए धोबी घाट है। मैल साफ होनी चाहिए। मलीनता धर्मप्रेमी समाज को मान्य नहीं। यदि कोई भगवाधारी भगवे की मर्यादा का पालन नहीं कर पा रहा है, तो अपने भगवे चोले को उतार कर उसे पृथक् हो जाना चाहिए। जो नहीं सध पा रहा, उसे साधने का नाटक क्यों?

भगवाप्रेमी भी तो अपने‡अपने भगवाधारी के प्रभा मण्डल में है। भगवाप्रेमी की नैतिक शुचिता भी तो भगवाधारी की आध्यात्मिक और आन्तरिक उच्चता के अनुपात पर निर्भर करती है। धर्म, शिक्षा और शौर्य के क्षेत्र में भगवा भारत की पहचान है। स्वामी विवेकानंद की देह पर सजकर भगवा ने पूरे विश्व में भगवा‡भाव को प्रतिष्ठा दी। भगवा रहेगा तो भारत रहेगा।

अन्तिम बात जो मुझे कहनी है, वह यह कि‡
भगवा भारत का छंद है, त्याग, शील मकरंद है।

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Tags: mohanbhagvatrashtriyarsssanghभगवाध्वजभारतीय इतिहासहिंदुधर्महिंदुराष्ट्र

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