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छतरी

छतरी

by डॉ. सुशीला गुप्ता
in कहानी, जुलाई -२०१३
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मैं हॉस्टल के अपने कमरे में पहुंची तो चमेली बाई मेरे पीछे‡पीछे आयी। ‘बाप‡रे‡बाप। क्या बारिश। कसम से, हमारे मुलुक में ऐसी बारिश कभी नहीं होती।’ मैं अपने भीगे बालों से पानी निचोड़ते हुए उसकी शिकायत सुनती रही, ‘मैंने आपसे कहा नहीं था कि छतरी ले जाइए? नहीं कहा था? लेकिन आपने सोचा, चमेली बाई ठहरी मूरख गंवार, उसकी बात मानने से क्या फायदा। अजी स्वाति बहन। हम लोगों के पास तो अकल कम रहती है, लेकिन आप‡अच्छा यह तो बताइए, इतनी देर कहां लगा दी?’ उसके कौतूहल का अन्त नहीं था परन्तु मेरे पास भी उसकी बातों का जवाब देने के लिए शब्द कहां थे!

‘अच्छा स्वाति बहन । आप जल्दी से कपड़े बदल लीजिए, नहीं तो बीमार पड़ जाएंगी। मैं मेस से आपका खाना ले आती हूं।’ चमेली बाई के जाते ही मैंने जल्दी से कपड़े बदले और बालों को सुखाने के लिए पंखे के नीचे बैठ गयी।

तीन दिनों से कॉलेज की छुट्टी है। इस छुट्टी में अनेक छात्राएं और प्राध्यापिकाएं अपने‡अपने स्थानीय अभिभावकों व रिश्तेदारों के यहां चली गयी हैं। माहौल का थोड़ा सा परिवर्तन मन‡मस्तिष्क में कितनी ताजगी भर देता है। मैंने भी सरला ताई के घर जाने का कार्यक्रम बनाया था। उन्होंने बड़े आग्रहपूर्वक मुझसे आने के लिए कहा था, लेकिन अपनी थीसिस का चौथा अध्याय पूरा करने के चक्कर मेंछुट्टी का समय मैंने हॉस्टल में ही बिताना मुनासिब समझा।

चमेली बाई ने अपने हाथ में थाली लिए कमरे में प्रवेश किया तो मेरी विचार श्रंखला टूटी। ‘तो स्वाति बहन! खाना गरम करके लायी हूं, खा लो।’ उसके स्नेह से अभिभूत हो मैंने उससे एक प्रकार से विनती की, ‘चमेली बाई। एक कप चाय नहीं पिला सकतीं?’ ‘अब लो इतनी देर हो गयी है। अब फिर मेस में जाऊंगी तो महाराज भड़केगा।’ मुझे लगातार छींकते देख उसने कहा, ‘अच्छा देखती हूं, कोई‡न‡कोई जुगत तो करनी ही पड़ेगी।’

आज दिन भर लाइब्रेरी में व्यस्त रही। चपरासी ने पांच बजने का संकेत किया तो हाथ में फाइल लिए हॉस्टल लौटी। गुनगुनाती हुई कमरे का ताला खोल ही रही थी कि चमेली बाई ने मुझे सूचना दी स्वाति बहन! आपका फोन है।’
फोन पर रीता थी, ‘सुन्दरम में ‘स्पर्श’ लगी है, चलेगी?’
‘कौन सा शो?’
‘छ: बजे का।’
‘टिकटें ले ली हैं?’
‘तुझसे पूछे बिना टिकट कैसे ले लेती? तू मना कर देती तो?’
‘फिर?’
‘सुना है, इतनी भीड़ नहीं रहती।’
‘पिक्चर कैसी है?’
‘सुना है, अवॉर्ड विनिंग है। अच्छी ही होगी।’

पिक्चर की टिकट आसानी से मिल गयी। बहुत दिनों के बाद एक सार्थक फिल्म देखने का मौका मिला था। अपनी संवेदनाओं में खोयी मैं रीता के साथ हॉल से बाहर निकली। ‘सच, तेरी वजह से एक अच्छी फिल्म देखी।’ मैंने कहा।

‘अब खुशामद रहने दे। अच्छा चल, नहीं तो बस निकल जाएगी। हम दोनों जल्दी‡जल्दी बस स्टॉप पर पहुंचे, लेकिन हमारे देखते‡देखते बस निकल गयी। अब दूसरी बस के लिए न जाने कितनी देर तक झक मारनी पड़ेगी। आसमान का नजारा भी कुछ अनुकूल नहीं लग रहा था। थोड़ी देर में ही बूंदा‡बांदी शुरू हो गयी। हम दोनों में से किसी के पास भी छतरी नहीं थी। बड़ी प्रतीक्षा के बाद हमारी बस आयी। बारिश अब तेज हो गयी थी। बस में इस कदर भीड़ थी कि बैठने के लिए जगह ही नहीं मिली। खड़े‡खड़े जाना पड़ा। खैर; क्या फर्क पड़ता है। सोचा, थोड़ी ही देर मे पहुंच जाएंगे।

मैं मेट्रो के अगले स्टॉप पर उतर गयी। रीता को काफी आगे कोलाबा तक जाना था। उस समय बारिश बहुत तेज हो गयी थी। मैं बार‡बार पछता रही थी, काश! मैंने हॉस्टल से निकलते समय छतरी ले ली होती। चमेली बाई की बातें कानों में गूंज रही थीं, ‘स्वाति बहन। छतरी ले लो, यदि बारिश हुई तो भीग जाओगी।’ मैंने उसकी सुनी‡अनसुनी करते हुए कहा था, ‘तू हमेशा बाहर निकलते समय टोकती क्यों है।’ उसका इतना‡सा मुंह निकल आया था।

आसमान साफ रहे तो मैं छतरी लेकर कभी बाहर नहीं निकलती। न जाने क्यों हाथ में छतरी पकड़ते ही सारी स्फूर्ति गायब हो जाती है। पिक्चर जाते समय तो मैं हरगिज छतरी नहीं ले जाती। सामने पर्दे के दृश्य में तल्लीन हो जायें तो उसकी हिफाजत हो ही नहीं पाती। मुझसे ज्यादातर छतरियां पिक्चर‡हॉल में ही खो दी हैं। खोयी क्या हैं, छूट जाती हैं। छतरी का बन्धन मैं झेल ही नहीं पाती। लेकिन इस समय मैं अपने आप को बुरी तरह कोस रही थी, लो देवी जी। अब भुगतो। भीगो, खूब भीगो। भीगने के अलावा चारा ही क्या था। हॉस्टल की छत सामने नजर आ रही थी, परन्तु इतनी घनघोर बारिश में क्या वहां तक जाया जा सकता था? सोचा, सामने पेड़ के नीचे खड़ी हो जाऊं। बारिश थम जाये तो चली जाऊंगी। लेकिन बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। पेड़ के नीचे खड़े होकर क्या बारिश से बचा जा सकता था? मैं तरबतर भीग रही थी।

दुर्भाग्य से इस समय मैं बारिश में फंस गयी थी। न चाहते भी बुरी तरह भीग रही थी। बचने का कोई रास्ता नहीं था। कौन ऐसा था, जो इतनी प्रलयंकारी घनघोर वर्षा में छतरी लिए आता और कहता, ‘लो स्वाति। छतरी लो और हॉस्टल चलो…।’ सचमुच मैं किस मुसीबत में फंस गयी थी। मैं रह‡रह कर रीता को कोस रही थी। न वह ‘स्पर्श’ के लिए निमंत्रित करती, न मेरी ऐसी दुर्दशा होती। लेकिन उस बेचारी को भी तो बस से उतरते ही भीगना पड़ेगा। भीगना पड़ेगा क्या, भयंकर भीगी होगी…मेरी ही तरह। क्या वह अब तक घर नहीं पहुंची होगी? उसे तो कोलाबा जाना था। जरा भी बारिश तेज हो जाय तो कोलाबा में कितना पानी भर जाता है।

पेड़ के नीचे मैं चुपचाप खड़ी थी। बारिश की मार से मेरे सिर में चोट लग रही थी। मैंने अपनी दोनों हथेलियों को एक‡दूसरे से जोड़ अपने सिर पर टिका लिया। चारों तरफ पानी‡ही‡पानी का आलम था। सड़क पर आती‡जाती गाड़ियां मेरे ऊपर छपाक‡छपाक पानी उछालती निकल जातीं। मैं मन मसोस कर रह जाती। सहसा मुझे लगा बायीं ओर लगभग बीस हाथ की दूरी पर दो पुरुष मुझे घूर‡घूर कर देख रहे हैं…। वे मेरी ओर इशारा करते हुए आपस में बातचीत करने लगे। वह जगह मुझे एकदम निरापद नहीं लगी। सोचा, बारिश होती है तो होने दो, एकदम दौड़कर भाग जाऊं, लेकिन उस समय मुझे अपने पैरों की ताकत पर जरा भी भरोसा नहीं था। मेरे भागने पर कहीं दौड़कर मेरा पीछा करें तो। नहीं‡नहीं अब तो यहीं खड़े रहना है। देखा जाएगा, जो होगा सो होगा। मैं आगे आने वाले क्षण की धड़कते दिल से प्रतीक्षा करने लगी।

आज सबेरे के अखबार में ही मैंने एक युवती की दुर्दशा का दर्दनाक समाचार पढ़ा था। सुनसान रास्ते में अकेले जाते समय उसे किसी भेड़िये ने दबोंच लिया था। मैं सिहर उठी। मेरी सिहरन को सम्भवत: उन दोनों ने भी लक्ष्य किया। मैंने स्पष्ट देखा, वे मेरी ओर बढ़े आ रहे थे। अब वे लगभग दस हाथ की दूरी पर थे। एक ने बायीं आंख से मेरी ओर कुछ इशारा भी किया। मेरी घबराहट का अन्त नहीं था। लाख कोशिश करती रही कि चेहरे से किसी प्रकार का भय प्रदर्शित नहीं होना चाहिए। लेकिन उस समय मैं अपने ऊपर काबू पाने में असमर्थ थी। सामने कुछ ऊंचाई पर लिम्का के चमकते‡बुझते विज्ञापन को देखने का मैं क्षीण प्रयास करती रही थी। इतनी तेज बारिश में भी मुझे लगा, मेरा गला सूख रहा है। दिल में जल‡बुझती आशा की ज्योति मेरे साथ आंख‡मिचौली खेल रही थी।
अब वे मेरे एकदम नजदीक आ गये थे। लगभग दो‡तीन हाथ का फासला था।

‘काय बाई। इतना घबराती क्यों?’
मैं निरुतर।
‘किधर जाना है बाई?’
मैं मौन।
एक ने घुड़की दी, ‘बोलती काहे को नहीं?’ लगा उसकी आवाज भारी है। दूसरे ने वही प्रश्न दोहराया, ‘बोलती काहे को नहीं बाई?’ उसकी आवाज पहले वाले की तुलना में काफी पतली थी, लगा… भारी आवाज और पतली आवाज दोनों आवाजें मिलकर मेरा गला दबोंच रही हैं।
मेरा चेहरा फक पड़ गया।

उन दोनों ने कई बार अपने प्रश्न दोहराये। मैं उन्हें कैसे बता देती कि मैं सामने वाले हॉस्टल में रहती हूं….। लेकिन छिपाने का कोई उपाय नहीं था। दाहिने हाथ की तर्जनी से मैंने हॉस्टल की ओर संकेत किया।

‘तो बाई जी सामने वाले हॉस्टल में रहती है।’ मैं समझ नहीं सकी, चबा‡चबा कर उगली गयी भारी आवाज में व्यंग्य ज्यादा था पर भीतर उतर न पाने की शिकायत ज्यादा थी।

‘तो उस्ताद। बाई को उसके हॉस्टल पहुंचा दिया जाय।’ पतली‡आवाज वाले ने अपनी राय व्यक्त की।
‘चलो बाई अपुन तुमको छोड़ देगा। हमारे पास में छतरी है न….! तुम भी का याद करेगा कि किसी मवाली ने तुमको तुम्हारे हॉस्टल तक पहुंचाया था।’

मैं बुत बनी खड़ी रही और बारिश की बौछार झेलती रही। भारी आवाज वाले ने मुझे डांटा, ‘सुनती नहीं बाई? हम बोलता है, हम तुमको पहुंचा देगा। इधर इतना तेज बारिश, रास्ता सुनसान…और तुम अकेली…कहीं कुछ लफड़ा हो जाय तो?’
‘तो?’ मेरी आवाज कांप रही थी।

‘चलो, चलो। चलती की नहीं? अजीब बाई है।’ और मैं उन दोनों के साथ आगे बढ़ी। सामने ही हॉस्टल दिखायी दे रहा था। पर मैं सोच रही थी, शायद वहां कभी पहुंच नही पाऊंगी।

‘क्यों बाई। तुम हम लोगों से इतना डरता क्यों है?’ भारी आवाज वाला बोल रहा था। लगा, यह आवाज एकदम भिन्न है। पेड़ के नीचे जो आवाज मेरे कानों से टकरायी थी, उससे एकदम भिन्न….मिश्री‡घुली आवाज।

मैंने पहली बार उन दोनों को गौर से देखा। हां, वेश‡भूषा से वे एकदम शरीफ नहीं लगते थे। दोनों के कपड़े एक जैसे ही मैले‡कुचैले थे। काले रंग की भद्दी सी पैंट दोनों के शरीर पर थी। शर्ट दोनों की फटी थी। अन्तर था तो केवल यही कि जिसने मेरे सिर पर छतरी तान रखी थी और जिसकी आवाज भारी थी, उसकी शर्ट लाल थी और दूसरे की नीली थी।

अब हम तीनों साथ‡साथ चल रहे थे। लाल शर्ट वाला एक हाथ की दूरी से ही मेरे ऊपर छतरी ताने चल रहा था, बारिश में भीगता हुआ। नीली शर्ट वाला उसके साथ ही कदम‡में‡कदम मिलाये चल रहा था। मैं छतरी की छत्रछाया में चल रही थी और वे दोनों प्रकृति की मार उसी तरह सह रहे थे, जिस तरह उन्होंने समाज की मार सही थी।
क्यों दीदी! तुम…तुम हमारी बात का जवाब नहीं दिया?
बड़े ही सहज ढंग से बाई से दीदी तक की दूरी तय हो गयी थी। लेकिन मेरी और लाल शर्ट वाले के बीच की दूरी निरन्तर बनी रही। वह इस बात के लिए पूरा सजग था कि हमारे बीच की दूरी बनी रहे। उसे अपने प्रश्न का उत्तर अब तक नहीं मिला था।
अब की बार नीली शर्ट वाला बोला, ‘बोलो न दीदी। तुमको हमसे डर लगता था क्या?’
मैंने तब अपना प्रश्न उछाल दिया, ‘डर नहीं लगता क्या?’

दीदी बन गयी थी तो क्या हुआ। डर की खुली अभिव्यक्ति का कुछ भी अन्जाम हो सकता था। परन्तु सुखद आश्चर्य कि लाल शर्ट वाले ने जोर का ठहाका लगाया। मुझे लगा मेरे चारों ओर कई बल्ब जल उठे….पर फिर उसके चेहरे पर उदासी‡सी घिर आयी। अंधेरे के धुंधलके में उसने एक‡एक कर कहा, ‘हां, डरने की तो बात ही है। हम…हम लोग ठहरा एकदम मवाली…और तुम शरीफ घर की लड़की…हमारे साथ कोई तुमको देख ले तो ही बुरा।

अब बोलने की बारी मेरी थी, ‘ऊपर से कोई कैसा भी हो। दिल से कोई अच्छा हो तो…’
मानो उसके मुंह की बात मैंने छीन ली हो। ‘खुदा कसम बाई। हम लोग दिल का बिल्कुल खराब नहीं है। अच्छा बताओ, हम तुम्हारे साथ गलत व्यवहार करता? हम तुमसे दूर‡दूर नहीं चल रहा? छतरी में तुमको ठीक से नहीं ले जा रहा?
‘लेकिन मेरे ऊपर छतरी तानकर तुम दोनों भीग रहे हो।’

‘और लो। भीगेगा नहीं? अपनी बहन को ठीक से ले जाने के लिए भीगेगा नहीं? अपनी बहन के लिए हम अपनी जान भी दे सकता है। यह बारिश क्या है। यह तो कुछ भी नहीं

जिस घनघोर बारिश ने मेरे हाथ‡पांव ठण्डे कर दिये थे, वह उनके लिए कुछ भी नहीं थी। मेरा सगा भाई क्या इससे ज्यादा मेरी हिफाजत करता?

हम हॉस्टल के गेट तक पहुंच गये थे। आभार में मेरे दोनों हाथ जुड़ गये। दोनों एक साथ मेरे माथे पर हाथ रखते‡रखते रुक गये और अंधेरे में गायब हो गये। मैं उन्हें पुकारते‡पुकारते रह गयी। काश! मैंने अपने उन दोनों भाइयों का नाम पूछ लिया होता।

‘स्वाति बहन। चाय। देखो तो, अच्छी है न? कितनी मुश्किल से बना पायी हूं। लो पिओ और सो जाओ।’ चमेली बाई की आवाज ने मुझे चौंका दिया था।

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