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स्त्रियों के प्रति स्वामी विवेकानंद की भूमिका

सर्व समावेशी हिंदुत्व का सन्देश‡ स्वामी विवेकानंद

by हरिहर शर्मा
in जुलाई -२०१३, व्यक्तित्व
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(प्रस्तुत लेख स्वामी विवेकानंद के विभिन्न अवसरों पर दिये उद्बोधनों का अंश मात्र है, इसमें संकलनकर्ता ने अपनी ओर से एक शब्द भी नहीं जोड़ा है।)

हम लोग सरोवर की तली को नहीं देख पाते, क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त रहती है। उस तली की झलक मिलना तब ही सम्भव है, जब ये सारी लहरें शांत हो जायें और पानी स्थिर हो जाये। यदि पानी गन्दा हो या सारे समय उसमें हलचल होती रहे तो तली कभी दिखायी न देगी। पर यदि पानी निर्मल हो और उसमें एक भी लहर न रहे, तब हम उस तली को अवश्य देख सकेंगे। यह चित्त मानो उस सरोवर के समान है और हमारा असल स्वरूप मानो उसकी तली है। वृत्तियां उस पर उठने वाली लहरें हैं। यह भी देखा जाता है कि यह मन तीन प्रकार की अवस्थाओं में रहता है। एक है तम की, अर्थात अन्धकारमय अवस्था, जैसा कि हम पशुओं और अत्यंत मूर्खों में पाते हैं। ऐसे मन की प्रवृत्ति केवल औरों का अनिष्ट करने में ही होती है, मन की इस अवस्था में और दूसरा कोई विचार सूझता ही नहीं है। दूसरा है- रज, अर्थात मन की क्रियाशील अवस्था, जिसमें केवल प्रभुत्व और भोग की इच्छा रहती है। उस समय यही भाव रहता है कि मैं शक्तिमान होऊंगा और दूसरों पर प्रभुत्व करूंगा। तीसरा है ‡ सत्व अर्थात मन की गम्भीर और शान्त अवस्था, जिसमें समस्त तरंगें शान्त हो जाती हैं और मानस सरोवर का जल निर्मल हो जाता है। यह शान्ति कोई जड़ावस्था नहीं है, अपितु यह तो तीव्र क्रियाशील अवस्था है, जिसमें अत्याधिक शक्ति लगती है। जैसे रास ढीली छोड़ने पर घोड़े स्वत: भागने लगते हैं, किन्तु रास खींचकर तेज भागते घोड़ों को थामने का काम कोई शक्तिशाली पुरुष ही कर सकता है। शान्त मनुष्य वह है जो भागते मन को थाम सके। शान्त भाव उच्चतर शक्ति की अभिव्यक्ति है।
जैसे किसी फूल में से सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु स्वरूप तन्मात्राएं गंध के रूप में बाहर निकलकर वातावरण को सुगन्धित करती हैं, उसी प्रकार प्रतिदिन हमारे शरीर से भी शुभ या अशुभ किसी न किसी प्रकार की शक्तिराशी बाहर निकलती रहती है। जहां पर लोग ईश्वर की उपासना करते हैं, वह स्थान पवित्र तन्मात्राओं से परिपूर्ण हो जाता है। जितने अधिक परिमाण में मनुष्य वहां जाते हैं, उतना ही वह स्थान अधिकाधिक पवित्र होता जाता है, साथ ही वहां जाने वाले मनुष्यों में भी पवित्रता का संचार होने लगता है। यहां तक कि यदि किसी मनुष्य में सत्व गुण नहीं भी है, तो भी वहां जाने पर उसके हृदय में सत्व गुण का उद्रेक होगा। पहले मनुष्य ही उस स्थान को पवित्र बनाते हैं, फिर उस स्थान की पवित्रता स्वयं कारण बन जाती है और मनुष्यों को पवित्र बनाती रहती है। किन्तु यदि उस स्थान पर सदा असाधु व्यक्तियों का ही आवागमन रहे, तो वह स्थान भी अन्य स्थानों के समान अपवित्र बन जाएगा। इमारत के गुण से नहीं, वरन मनुष्य के गुण से ही मन्दिर पवित्र माना जाता है। इसी मूल को हम भूल जाते हैं और गाड़ी को बैल के आगे जोतना चाहते हैं। वस्तुत: सत्व गुण संपन्न मनुष्य अपने चारों ओर सत्व गुण बिखेरते हुए अपने परिवेश पर रात-दिन प्रभाव डाल सकते हैं। मनुष्य यहां तक पवित्र हो सकता है कि उसकी पवित्रता मूर्त हो जाती है और जो कोई भी उस साधु के सम्पर्क में आता है, वह भी पवित्र हो जाता है।

हर व्यक्ति की ज्ञानार्जन क्षमता भिन्न होती है। इससे सिद्ध होता है कि हम सब अपने पृथक ज्ञान भण्डार के साथ आये हैं। हम मृत्यु का भय सर्वत्र देख पाते हैं। पर क्यों? अभी पैदा हुआ मुर्गी का बच्चा चील मुर्गी के बच्चों को खा जाती है। अण्डे से अभी अभी निकली बतख पानी में क्यों कूद पड़ती है और तैरने लगती है? लोग कहते हैं कि यह जन्मजात प्रवृत्ति है। पर यह जन्मजात प्रवृत्ति है क्या? मान लो एक बच्चे ने पियानो बजाना सीखना शुरू किया। पहले उसे प्रत्येक परदे की ओर नजर रखकर अंगुलियों को चलाना पड़ता है, पर कुछ समय अभ्यास हो जाने के बाद अंगुलियां अपने आप ठीक-ठीक स्थानों पर चलने लगती हैं, वह स्वाभाविक हो जाता है। एक समय जिसमें ज्ञान पूर्वक इच्छा को लगाना पड़ता है, उसमें जब सहज क्रिया सम्पन्न होने लगे, उसी को स्वाभाविक ज्ञान कहते हैं। मनुष्य अथवा पशु में जिसे हम जन्मजात प्रवृत्ति कहते हैं, वह अवश्य पूर्ववर्ती कार्य का क्रम संकोच भाव होगा। पूर्ववर्ती कार्य से यह संस्कार आया था और यह अब भी विद्यमान है।

हिंदुओं की सारी साधना प्रणाली का लक्ष्य है‡सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना; और ईश्वर को इसी प्रकार प्राप्त करना, उसके दर्शन कर लेना, उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण हो जाना‡हिंदुओं का धर्म है। विज्ञान भी एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्यों ही कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुंच जाएगा उसकी प्रगति रुक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। उदाहरणार्थ रसायन शास्त्र यदि एक बार उस एक मूल तत्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। भौतिकी जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगी, अन्य शक्तियां जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह वहीं रुक जाएगी। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु के लोक में एकमात्र जीवन है, जो इस परिवर्तनशील जगत का शाश्वत आधार है, जो एकमात्र परमात्मा है, अन्य सब आत्माएं जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियां हैं। इस प्रकार अनेकता और द्वैत में होते हुए भी इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती है। धर्म इससे आगे नहीं जा सकता। यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊंग, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब मैं आनन्द स्वरूप हो जाऊंगा, तभी दुख का अन्त हो सकता है; जब मैं ज्ञान स्वरूप हो जाऊंगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता है; और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी है।

हिंदुओंकी दृष्टि में समस्त धर्म भिन्न-भिन्न रुचि वाले स्त्री पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थितियों से गुजरते हुए एक लक्ष्य की ओर यात्रा है, प्रगति है। वही एक ज्योति भिन्न- भिन्न रंग के कांच में से भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट होती है। ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में यह उपदेश दिया, जहां भी तुम्हें अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखायी दे, समझ लो की वह मेरे तेज के अंश से ही प्रकाशित है। इसी के परिणाम स्वरूप हिंदू दर्शन में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि केवल हिंदुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं। व्यास कहते हैं‡ हमारी जाति और समाज से अन्यत्र भी पूर्णता को प्राप्त मनुष्य हैं।

अंतराचापितु तद्द्रष्टह॥ वेदान्त सूत्र ॥
हिंदुओं में बहुतेरे दोष हैं, किन्तु वे स्वयं को प्रताड़ित करने तक ही सीमित हैं, वे कभी अपने पड़ोसी का गला काटने नहीं जाते। बीज भूमि में बो दिया जाये और उसके चारों और मिट्टी, जल और वायु हों तो क्या बीज मिट्टी हो जाता है, अथवा वायु या जल बन जाता है? नहीं वह तो वृक्ष ही होता है, वह अपनी वृद्धि के नियम से ही बढ़ता है‡ वायु, जल और मिट्टी को अपने में पचाकर। ऐसा ही धर्म के सम्बन्ध में भी है। ईसाई को हिंदू या बौद्ध नहीं हो जाना चाहिए और न हिंदू या बौद्ध को ईसाई ही। पर हां, प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के सार तत्व को आत्मसात कर पुष्ट को अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए अपनी निजी वृद्धि के नियम के अनुसार वृद्धिगत हो।

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