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धारा 370 और विशेष दर्जे का प्रश्न

धारा 370 और विशेष दर्जे का प्रश्न

by डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
in जुलाई -२०१३, देश-विदेश
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जम्मू‡कश्मीर की जब भी चर्चा होती है तो उसके साथ ही संघीय संविधान की एक अस्थाई धारा‡370 की चर्चा अनिवार्य रूप से होती है। धारा‡370 पर दो गुट बन गये हैं। एक गुट इस धारा को खत्म करने के पक्ष में है और दूसरा इसे बनाये रखने के पक्ष में है। दोनों गुट यह मानकर चलते हैं कि धारा‡370 से जम्मू‡कश्मीर राज्य को देश में एक विशेष दर्जा हासिल है। क्या सचमुच ही धारा‡370 जम्मू‡कश्मीर को एक विशेष दर्जा देती है? और भारतीय संविधान में इस धारा को शामिल करने की जरूरत क्यों पड़ी? इन दोनों प्रश्नों पर विचार करना जरूरी है। हम सबसे पहले दूसरे प्रश्न कि, इस धारा को संविधान में शामिल करने की जरूरत क्यों पड़ी, पर विचार करेंगे?

इंग्लैण्ड की संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम‡1947 के प्रावधानों ने 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश इण्डिया को भारत और पाकिस्तान, दो अधिराज्यों में विभाजित कर दिया। प्रत्येक अधिराज्य का अलग‡अलग गवर्नर जनरल होगा और इंग्लैण्ड की महारानी की शाब्दिक सत्ता दोनों अधिराज्यों पर बनी रही। दोनों अधिराज्यों को अपना अलग‡अलग संविधान बनाना था। जब तक नया संविधान नहीं बन जाता तब तक भारत अधिराज्य में शासन व्यवस्था भारत सरकार अधिनियम‡1935 में आवश्यक संशोधनों के अन्तर्गत चल रही थी।
भारत स्वतंत्रता अधिनियम‡1947 और भारत सरकार अधिनियम 1935 को एक साथ पढ़ने से स्पष्ट था कि ब्रिटिश इण्डिया के अधिकार क्षेत्र से बाहर की भारतीय रियासतों को दोनों अधिराज्यों में से किसी एक में शामिल होने का विकल्प दिया गया था। भारत सरकार के रियासती मन्त्रालय ने, जिसके प्रभारी मन्त्री उस समय सरदार पटेल थे, एक विलय पत्र तैयार किया जिसमें सभी रियासतों के राजाओं को कहा गया कि वे अपनी रियासत का अधिराज्य में विलय करने के पश्चात तीन विषय- विदेश सम्बन्धी, सुरक्षा और संचार संघीय संवैधानिक व्यवस्था को दे दें और शेष मामलों में वे अपनी रियासतों के भीतर पूर्ववत शासन चला सकते हैं। कुछ रियासतों को छोड़ कर बाकी लगभग सभी रियासतों के राजाओं ने संघ के इस प्रस्तावित विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके भारत अधिराज्य में शामिल होने का निर्णय 15 अगस्त 1947 से पहले ही कर लिया था। अनेक कारणों से कुछ रियासतें अधिराज्य में 15 अगस्त 1947 के बाद शामिल हुईं, उनमें जम्मू‡कश्मीर भी एक थी।

भारत की संविधान सभा द्वारा देश के लिए नये संविधान की प्रक्रिया 15 अगस्त 1947 से काफी समय पहले ही शुरू हो चुकी थी। जो रियासतें अधिराज्य में शामिल हुई थीं, उन्होंने भी निर्मित हो रही नयी संघीय संविधान व्यवस्था में सक्रिय भागीदारी के लिए अपनी जनसंख्या के अनुपात से अपने प्रतिनिधि संघीय संविधान सभा में भेजे। इस प्रकार नया संविधान बनाने में सभी रियासतों की भी भागीदारी थी। प्रारम्भ में यह ही सोचा गया था कि प्रत्येक रियासत की अपनी‡अपनी संविधान सभा गठित की जाएगी और वे संविधान सभाएं अपनी‡अपनी रियासत के लिए संविधान बनाएंगी। उपरोक्त तीन विषयों पर संघीय संविधान की व्यवस्था अन्य राज्यों के समान इन रियासतों पर भी लागू होगी। परन्तु एक ऐसा प्रश्न था जिसका उत्तर दिया जाना संवैधानिक दृष्टि से बड़ा अनिवार्य था। यदि सभी रियासतें अपने लिए अलग‡अलग संविधान बनाती हैं तो हो सकता है कुछ क्षेत्रों में उनके संविधान और संघीय संविधान में टकराव की स्थिति पैदा हो जाये, इसलिए जरूरी था कि रियासतों के संविधानोंऔर संघीय संविधान में एकरूपता बनी रहे। इस समस्या को ध्यान में रखते हुए संविधान विशेषज्ञ बी. एन. राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया और उस समिति से कहा गया कि वह सभी रियासतों के लिए एक मानक संविधान तैयार करे। सभी रियासतों की संविधान सभाएं उस मानक संविधान को अपने-अपने राज्य हेतु स्वीकार करेंगी। रियासतों के लिए यह मानक संविधान तैयार करने की प्रक्रिया अभी चल ही रही थी कि कुछ क्षेत्रों में यह कहा जाने लगा कि अलग‡अलग राज्यों के लिए अलग‡अलग संविधान बनाने से बाद में समस्या उत्पन्न हो सकती है इसलिए रियासतों के लिए अलग संविधान तो बने, लेकिन उसे समग्र रूप से संघीय संविधान का ही भाग होना चाहिए। इस पर विचार करने के लिए विभिन्न रियासतों के प्रधान मन्त्रियों की बैठक 19 मई 1949 को बुलायी गई। इसमें निर्णय किया गया कि रियासतों के लिए संविधान भी संघीय संविधान सभा ही बनाएगी और ये संविधान समग्र संघीय संविधान का ही हिस्सा होंगे। लेकिन तब तक संघीय संविधान का प्रारूप लगभग तैयार हो चुका था। इसलिए एम. के. बेलोडी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जो रियासतों के लिए संविधान के प्रावधानों को भी संघीय संविधान में समाहित करने के तरीके निकाले।

इधर संघीय संविधान निर्माण की ये सभी प्रक्रियाएं चल ही रही थीं कि उधर जम्मू-कश्मीर रियासत में एक नया इतिहास लिखा जा रहा था। 26 अक्तूबर 1947 को जम्मू‡कश्मीर रियासत के महाराजा ने भी मानक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके संघ में शामिल होने का निर्णय कर लिया, जैसा कि अन्य रियासतों के मामले में हुआ था। जम्मू‡कश्मीर रियासत ने भी संघ के रियासती मंत्रालय के प्रस्ताव के अनुरूप विदेशी मामले, सुरक्षा, संचार और इनसे जुड़े विषयों पर संघीय संवैधानिक व्यवस्था को स्वीकार किया था। इस समय संघीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी। अत: रियासत ने तुरन्त अपने चार प्रतिनिधि संघ की संविधान सभा में भेजे और उन्होंने संघ की नयी संवैधानिक व्यवस्था में अन्य प्रतिनिधियों की तरह ही शिरकत की। अब तक बेलोडी समिति की रिपोर्ट भी आ गयी थी और संघ में शामिल हुई रियासतों को संघीय संवैधानिक व्यवस्था में समाहित कर लिया गया था। कुछ छोटी रियासतें तो साथ के बड़े प्रान्तों का ही हिस्सा बन गयी थी। कुछ स्थानों पर छोटी‡छोटी अनेक रियासतों को मिलाकर एक नये राज्य का गठन कर दिया गया था। हिमाचल और पेप्सु ऐसे ही राज्य थे। इस प्रकार संघ के नये संविधान में रियासतों को ‘ख’ श्रेणी और ‘ग’ श्रेणी के राज्यों में विभाजित कर दिया गया। ‘ख’ श्रेणी के राज्यों में बड़ी रियासतें आती थीं और ‘ग’ श्रेणी राज्यों में छोटी‡छोटी रियासतें आती थीं। ‘ख’ श्रेणी राज्यों में संवैधानिक प्रमुख का नाम राज प्रमुख रखा गया और ‘ग’ श्रेणी राज्यों को कमिश्नर का राज्य कहा गया। इस प्रकार जम्मू‡कश्मीर रियासत संघीय संविधान रियासत ‘ख’ श्रेणी राज्यों में सूचीबद्ध की गयी और महाराजा हरिसिंह को उसके राज प्रमुख के तौर पर मान्यता दी गयी। जिस प्रकार अन्य रियासतों को अपनी संविधान सभाएं गठित करने और अपने लिए संविधान का निर्माण करने के लिए कहा गया था, उसी प्रकार जम्मू‡कश्मीर रियासत को भी कहा गया।

लेकिन 26 जनवरी 1950 को भारत नयी संवैधानिक व्यवस्था में ब्रिटिश साम्राज्य का अधिराज्य न रह कर स्वयं को एक गणतंत्र घोषित कर रहा था। बाकी सभी रियासतों के संविधान तो संघीय संविधान में ही समाहित हो गये थे, लेकिन कश्मीर में सामान्य स्थिति नहीं थी। सबसे पहले तो जम्मू‡कश्मीर राज्य पर पाकिस्तान ने आक्रमण किया हुआ था। यद्यपि 1 जनवरी 1949 को युद्ध विराम हो चुका था, तब भी राज्य में हालात सामान्य नहीं हुए थे। सबसे बढ़कर राज्य का एक तिहाई हिस्सा अभी भी पाकिस्तान के कब्जे में था और भारत सरकार उस हिस्से को पाकिस्तान से छुड़ाने का प्रयास कर रही थी। दूसरे, भारत जम्मू‡कश्मीर राज्य पर पाकिस्तान के आक्रमण के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गया था। भारत की मांग थी कि संयुक्त राष्ट्र संघ पाकिस्तान को आक्रमणकारी घोषित करे और उससे कब्जायी गई भारत भूमि छोड़ने के लिए कहे। भारत की यह शिकायत सुरक्षा परिषद में अब तक लम्बित थी। इन सभी कारणों से इस रियासत का संघीय संवैधानिक व्यवस्था में पूरी तरह एकीकरण हो नहीं पाया था। अब, जब 15 अगस्त 1947 को भारत अधिराज्य न रहकर गणतंत्र बन जाएगा तो जम्मू- कश्मीर पर संघीय संवैधानिक व्यवस्था किस पद्धति से लागू की जाये?, यह प्रश्न सब के सामने था। क्योंकि पाकिस्तानी आक्रमण के कारण जम्मू‡कश्मीर में संविधान सभा का गठन हो नहीं सका था और भारत सरकार ने स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्पराओं के अनुरूप यह भी निर्णय किया हुआ था कि राज्य के लोग, नयी संघीय संवैधानिक व्यवस्था को स्वीकारने के लिए अपने राज्य की संविधान सभा के द्वारा इसका अनुमोदन करेंगे। केवल एक राज्य जम्मू‡कश्मीर की युद्धग्रस्त स्थिति के कारण गणराज्य की घोषणा भी रोकी नहीं जा सकती थी। इन परिस्थितियों में निर्णय किया गया कि संघीय संविधान में एक ऐसी धारा जोड़ी जाये जिसमें जम्मू‡कश्मीर राज्य में संघीय संवैधानिक व्यवस्था को लागू करने के लिए एक अतिरिक्त प्रक्रिया निश्चित की जाये, ताकि जब जम्मू‡कश्मीर राज्य में स्थितियां सामान्य हो जाएंगी तो वहां की संविधान सभा संघीय संवैधानिक व्यवस्था के जो प्रावधान राज्य में लागू करना चाहे, उसके लिए संघीय संविधान में बार‡बार संशोधन न करना पड़े। इस हेतु राष्ट्रपति को ही यह अधिकार दे दिया जाये कि वे कार्यपालिका आदेश के द्वारा संघीय संवैधानिक व्यवस्था को उसी रूप में, अपवाद या उपान्तरणों सहित राज्य में लागू कर सकें।

इस पृष्ठभूमि में गोपालस्वामी आयंगर ने संघीय संविधान सभा में धारा 306‡ए का प्रारूप प्रस्तुत किया। (धारा 306 ए ही बाद में धारा 370 बनी)। प्रस्तावित धारा 306‡ए प्रस्तुत करते समय उसकी आवश्यकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने जो कहा वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आयंगर ने कहा कि सभी रियासतों का भारत अधिराज्य में विलय, मानक विलय पत्र पर शासकों के हस्ताक्षर द्वारा हुआ था, लेकिन अब निकट भविष्य में यह अधिराज्य तो रहेगा नहीं, बल्कि इसकी जगह भारत गणराज्य स्थापित हो जाएगा। परन्तु सभी विलीन रियासतों का क्योंकि पहले ही अधिराज्य में एकीकरण हो चुका है और उन सभी ने संघीय संविधान को स्वीकार कर लिया है, इसलिए वे अब भारत गणराज्य का हिस्सा, विलय पत्र पर वहां के शासकों के हस्ताक्षर के कारण नहीं, बल्कि इस एकीकरण प्रक्रिया के कारण और संघीय संविधान को स्वीकार कर लेने के कारण बनेंगी। लेकिन सांविधानिक एकीकरण की यह प्रक्रिया जम्मू-कश्मीर में अनेक कारणों से पूरी नहीं हो सकी है। इन कारणों में प्रमुख कारण तो राज्य पर पाकिस्तान का आक्रमण ही है। शत्र्ाु ने राज्य के एक तिहाई भाग पर कब्जा भी कर रखा है, उसको छुड़ाने का भी प्रश्न है। राज्य की निर्वाचित प्रजा सभा विभाजन और आक्रमण के कारण निष्प्रभावी हो गयी और नयी संविधान सभा का अभी गठन नहीं किया जा सका है। संविधान सभा को राज्य के विलय को अनुमोदित करना है। इन सभी कारणों से प्रश्न यह है कि राज्य भारत गणतंत्र का अंग कैसे बने और यहां संघीय संविधान कैसे लागू है। इन सभी कारणों से जम्मू-कश्मीर के संघ में एकीकरण हेतु और उसे संघीय संवैधानिक व्यवस्था का अंग बनाने के लिए धारा 306‡ए संविधान में प्रस्तावित की गयी है।

आयंगर ने कहा कि इस धारा के कारण‡

1) जम्म-कश्मीर जो भारत का अंग है, वह भविष्य के संघीय गणतंत्र का अंग भी बना रहेगा।

2) इस धारा के कारण संघीय विधायिका को उन सभी विषयों पर, जिनका विलय पत्र में उल्लेख है, विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाएगा। इन विषयों को राज्य सरकार की सहमति से बढ़ाया भी जा सकेगा।

3) भविष्य में जब राज्य की संविधान सभा गठित हो जाएगी तो वह राज्य का संविधान बना लेने के उपरान्त राष्ट्रपति को इस धारा को निरस्त करने के लिए भी कह सकती है और इसमें प्रवर्तन भी कर सकती हैं। राष्ट्रपति स्वयं भी लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकेंगे कि यह धारा प्रवर्तन में नहीं रहेगी या फिर ऐसे अपवादों और उपान्तरणों सहित ही प्रवर्तन में रहेगी, जो वे विनिर्दिष्ट करें। परन्तु इसके लिए राज्य की विधान सभा की सिफारिश जरूरी होगी।

कोई भ्रम न रहे इसलिए भारत सरकार ने श्वेत पत्र में भी स्पष्ट किया कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भी भारत में विलय के लिए उसी विलय पत्र को निष्पादित किया, जिसे अन्य रियासतों के राजाओं ने किया। इसलिए कानूनी दृष्टि से और संवैधानिक दृष्टि से भी इस रियासत की वही स्थिति है जो संघ में विलीन होने वाली अन्य रियासतों की। यह ठीक है कि भारत सरकार ने लोगों की राय जानने का निर्णय किया है, लेकिन इससे रियासत के विलय की कानूनी स्थिति पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। यही कारण है कि रियासत को संघीय संविधान के ‘ख’ श्रेणी के राज्यों में शामिल किया गया है।

संविधान में धारा 306‡ए के समावेश से जम्मू-कश्मीर राज्य भी संघीय गणतंत्र की इकाई बन गया और इसका शुमार भी अन्य रियासतों की तरह ‘ख’ श्रेणी के राज्यों में किया गया। गणतंत्र की घोषणा होने से कुछ दिन पहले ‘ख’ श्रेणी के सभी राज प्रमुखों ने अपने-अपने राज्य के लिए संघीय संविधान को लागू करने की घोषणा की। उसी प्रकार की घोषणा जम्मू-कश्मीर के राज प्रमुख के रीजैंट ने की। संविधान की धारा 1 और 370 को तो तुरन्त प्रभाव से लागू कर दिया गया और शेष संविधान को लागू करने की अतिरिक्त प्रक्रिया धारा 370 में ही दी गयी थी। धारा 370 का समावेश संघीय संविधान के 21वें अध्याय में किया गया। इस अध्याय में अन्य अनेक राज्यों के लिए वहां की परिस्थितियों को देखते हुए ऐसे प्रावधान किये गए हैं।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि संघीय संविधान की धारा 370 किसी दृष्टि से भी जम्मू-कश्मीर राज्य को कोई विशेष दर्जा नहीं देती। संघीय संविधान में संघ की विभिन्न इकाइयों से सम्बन्धित संवैधानिक प्रवधान तो वैसे भी अलग ही है। संघीय संविधान में राज्यों का अधिकार क्षेत्र स्पष्ट है। जम्मू-कश्मीर के अपने संविधान में भी राज्य का अधिकार क्षेत्र स्पष्ट है। लेकिन बाकी राज्यों का संविधान संघीय संविधान की आन्तरिक परिधि में है और जम्मू-कश्मीर का संविधान बाहर की परिधि में है। जैसे कंगारू का बच्चा उसके पेट में है या उसके गले के नीचे लटक रही थैली में? लेकिन दोनों ही स्थितियों में बच्चे की मौलिक स्थिति में तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में भी संघीय संविधान की संघ सूची में चिन्हित कर दिये गए विषयों के अतिरिक्त अन्य विषयों पर संघीय विधान पालिका विधि निर्माण कर सकती है, लेकिन उसके लिए राज्य सरकार का अनुमोदन जरूरी है।

लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि अब इतने साल बाद भी संविधान में धारा 370 रखने की जरूरत क्या है? वैसे भी संविधान में इसे अस्थाई प्रावधान ही कहा गया था। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की स्थिति से अब इस धारा को कोई ताल्लुक नहीं रह गया है। राज्य में संवैधानिक व्यवस्था साठ साल से चल रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ में लम्बित पड़ी भारत की शिकायत तकनीकी आधार पर ही लम्बित है अन्यथा व्यावहारिक रूप से अब वह अप्रासंगिक हो गयी है क्योंकि ताशकन्द समझौते और शिमला समझौते में भारत और पाकिस्तान दोनों ने ही निर्णय कर लिया था कि आपसी विवाद द्विपक्षीय वार्ता से ही सुलझाये जाएंगे, उसमें किसी तीसरे पक्ष की जरूरत नहीं है। रियासत के संघ में विलय का अनुमोदन भी राज्य की संविधान सभा काफी अरसा पहले ही कर चुकी है। अत: गोपालस्वामी आयंगर ने यह धारा प्रस्तावित करते समय जिन परिस्थितियों की बात की थी वे सभी समाप्त हो चुकी हैं। राज्य के संघ में एकीकरण की प्रक्रिया भी पूरी हो चुकी है। राज्य के संविधान में केवल यह प्रावधान ही नहीं है कि राज्य भारत का अभिन्न अंग है, साथ ही यह भी प्रावधान है कि इसको चुनौती धारा 370 स्वयं में भी कुछ सीमा तक अर्थहीन होती जा रही है। धारा 370 में प्रावधान है कि संविधान की धारा 238 के उपबन्ध जम्मू- कश्मीर में लागू नहीं होंगे। लेकिन अब संघीय संविधान में से धारा 238 ही संशोधन के बाद समाप्त कर दी गयी है। ‘ख’ श्रेणी के राज्य संघीय संविधान में समाप्त कर दिये गए हैं और संघ के सभी राज्य एक ही श्रेणी के हैं। जम्मू-कश्मीर की भी संविधान में यही स्थिति है। उसे धारा 370 की वजह से कोई विशेष दर्जा हासिल नहीं है। लेकिन मनोवैज्ञानिक तौर पर कश्मीर के कुछ लोगों के मन में इस धारा से अलगाव की भावना उपजती है। शायद यही कारण था कि जम्मू -कश्मीर सरकार बख्शी गुलाम मोहम्मद और ग़ुलाम मोहम्मद सादिक के काल में स्वयं इस धारा को निरस्त कर देने के पक्ष में थी।

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