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विजय का विकल्प विजय ही

विजय का विकल्प विजय ही

by रमेश पतंगे
in अगस्त-२०१३, सामाजिक
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एक वरिष्ठ नेता से हुई मुलाकात के दौरान सहज ही 2014 में होनेवाले चुनावों का विषय निकला। चर्चा में मुद्दा आया कि क्या भाजपा 2014 के चुनावों में सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी और केन्द्र में सत्ता पर काबिज होगी? उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘सच कहें तो भाजपा के हिसाब से यह अंतिम अवसर है। 2004 का अवसर गया, 2009 का अवसर गया, और 2014 का अवसर भी निकल गया तो फिर जल्द अवसर मिलना बहुत कठिन है।’’ कहते- कहते वे बहुत गंभीर हो गये। मैं भी गंभीर हो गया।

वास्तव में उन्होंने जो कुछ कहा, वह मेरे मन की ही बात थी। मुझे भी वैसा ही लगता था। 2014 का चुनाव भाजपा की दृष्टि से निर्णायक चुनाव है। वह जीता तो भाजपा देश में राजनैतिक ध्रुवीकरण का केन्द्र बनेगी और किन्हीं कारणों से वह हार गई तो सभी ओर से कटु आलोचना का शिकार होगी और मार खाने की नौबत आएगी। इस यथार्थ को लिखें तो बिना बहुत ज्यादा सोचे-समझे भाजपा और भाजपा पर आंख मूंद कर प्रेम करने वाले बेचैन हो जाते हैं। फिर कुछ लोग फोन करते हैं और उपदेश देने लगते हैं… आप नकारात्मक न लिखें इत्यादि इत्यादि। यथार्थ का विश्लेषण बहुत सेे लोगों को नहीं सुहाता, परंतु अगर ऐसा नहीं किया जाये तो यह अपने स्वयं से ही धोखा करने जैसा होगा।

अनुकूल वातावरण

भाजपा को अगला चुनाव जीतने के लिये चारों ओर अनुकूल वातावरण उपलब्ध है। यूपीए सरकार के प्रति जनता में तीव्र रोष है। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह दोनों देश को लूटने और गर्त में डालने पर उतारू हैं, यह आम लोगों की धारणा है। भारत के प्रधान मंत्री अर्थात उनकी निर्णय क्षमता, उनके कामकाज, उनकी सशक्त भूमिका के बारे में अच्छा बोलनेवाा कोई नहीं मिलता। वे सज्जन हैं, अच्छे अर्थशास्त्री हैं इतना भर लोग कहते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में वे किसी काम के नहीं, यह छवि उनकी अपनी बनाई है। भाजपा ने उनकी यह छवि नहीं बनाई।

हर तरह के भ्रष्टाचारों के कारण यूपीए अलीबाबा और चालीस चोर की कहानी बन गई है। कौन कितना पैसा खाता है, कैसे खाता है और कहां रखता है, यही चर्चा चलती रहती है। अगर कोई राजनेता बीमार होता हैं और उसे वेंटिलेटर पर रखा जाता है तो चर्चा शुरू हो जाती है कि उसे इसलिये वेंटिलेटर पर रखा गया है ताकि वह अपने गोपनीय विदेशी खातों के नम्बर बता सके। आम जनता के मन में हमारे राजनेताओं की यह एक सामान्य प्रतिमा बन चुकी है। कहीं आतंकवादी हमला हो और कोई राजनेता मारा जाय तो कोई खेद प्रकट नहीं करता। यह लिखना अच्छा नहीं लगता, पर है यही यथार्थ।

आंतरिक सुरक्षा भारी खतरे में है। नक्सली हमले बढ़ते जा रहे हैं। उनमें सुरक्षाकर्मी मारे जाते हैं, आंकडे आते हैं। आंकडे कभी बोलते नहीं, परंतु इन आंकड़ों के पीछे एक परिवार होता है। मृतक की भी पत्नी होती है, बच्चे होते हैं, माता‡पिता होते हैं, भाई‡बहन होते हैं और इन सभी को होने वाला मानसिक आघात प्रचंड होता है। ये मानवीय कहानियां समाचारों का विषय नहीं बनतीं। नक्सली हमले कब रुकेंगे? उन्हें कब नकेल कसी जाएगी? क्या प्रधान मंत्री और गृह मंत्री केवल भाषण ही देते रहेंगे? ये और ऐसे कई सवाल आज देश के सामने हैं।

अपेक्षाएं अधिक नहीं हैं

कुछ विषय ऐसे होते हैं जिनके बारे में लिखलिखकर शब्द घिस जाते हैं। महंगाई भी एक ऐसा ही विषय है। हर सब्जी 80 रुपये किलो!। जो सब्जी पिछले वर्ष 5 रुपये में मिलती थी उसके लिए आज 20 रुपये देने पड़ते हैं। दिहाड़ी पर कमाने वाले लोगों की कैसी हालत होती होगी? दिहाड़ी पर जाने वाले जिस परिवार में पांच-छह लोग हों तो वे कैसे जीते होंगे? इस विचार मात्र से मन व्याकुल हो उठता है। इसका एक कारण यह है कि मेरा बचपन भी झोपडपट्टी में ही बीता। न्यूनतम आय में घर चलाने की मेरी मां की कसरत मैं कभी नहीं भूल सकता। ऐसी ही कसरतें देशभर की लाखों-करोड़ों माताओं को करनी पड़ती हैं। जनता को इस महंगाई से छुटकारा चाहिए। उसे आराम चाहिये।

लोग बहुत ज्यादा नहीं मांगते। उनकी अपेक्षाएं भी बहुत ज्यादा नहीं हैं। उनकी राजनीतिक दलों से यह भी अपेक्षा नहीं है कि अमेरिका जैसे सारी दुनिया पर राज करे। उसकी न्यूनतम अपेक्षा होती हैं। राजकाज ठीक से करें। हमारे लिए वह सुखदायी हो, हमें समय पर बिजली दो, समय पर गैस दो, अनाज, दूध, सब्जियां हमारी जेब सह सके इस भाव से दो। समाज में सुरक्षा का वातावरण बना रहे। ऐसा वातावरण हो जिससे लोगों को यह भरोसा रहे कि सुबह घर से निकला व्यक्ति शाम को सुरक्षित घर वापस आयेगा ही। दूसरी भाषा में कहें तो उत्तम प्रशासन दोे।

जनता की विपक्ष से भी यही अपेक्षाएं हैं। इसलिए कि सत्तारूढ़ दल से अपेक्षाभंग हो चुका है। उनकी भाजपा से ये अपेक्षाएं हैं। मैं इसलिये ऐसा नहीं कह रहा हूं कि मेरी भारतीय जनता पार्टी के प्रति सहानुभूति है; बल्कि इसलिए कि भाजपा में वैसी क्षमता रखने वाले नेता हैं। भारत के 9 राज्यों में भाजपा सत्ता में रह चुकी है। कर्नाटक में भी पिछले साल तक भाजपा की सरकार थी। भाजपा को सत्ता का अनुभव है। भाजपा के पास एक विचार है। यह विचार है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का। इस विचार पर श्रद्धा रखनेवाले कार्यकर्ता नेता हैं,उनमें अनुशासन है जो अन्य दलों में कम दिखाई देता है। भाजपा व्यक्ति केन्द्रित पार्टी नहीं है। वह परिवारवाद पर नहीं चलती। और, मीडिया कहती है वैसी नागपुर से भी चलाई नहीं जाती। भाजपा चलाने का काम भाजपा के लोग ही करते हैं।

‘परंतु’ महत्वपूर्ण

भाजपा को सत्ता में आने के लिये हर तरह से अनुकूल वातावरण है। इसके बावजूद उसमें एक ‘परंतु’ है जो भाजपा की जय अथवा पराजय निश्चित कर सकता है। भाजपा के केन्द्र से लेकर प्रदेश तक के सभी नेता अगर एकजुट होकर रणक्षेत्र में उतरे तो भाजपा की विजय निश्चित है। भाजपा के सभी लोगों को ऋग्वेद का ‘ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहविर्यम् करवावहै’ मंत्र याद ही होगा। इसका अर्थ है, हम एक ही बोलेंगे, एक ही साथ भोजन करेंगे, एक ही साथ पराक्रम करेंगे। इस श्लोक में आगे कहा गया है कि हमारी बुद्धि तेजस्वी हो और हम एक दूसरे का द्वेष न करें- ‘मा विद्विषावहै’। यह मंत्र अगर भाजपा का हर नेता निभाना शुरू कर दें तो भाजपा को दुनिया की कोई ताकत पराजित नहीं कर सकती। सोनिया, राहुल और मनमोहन की त्रिमूर्ति तिनके की भांति उखाड़ फेंकी जा सकती है।

भारतीय जनता पार्टी का यह ‘परंतु’ बहुत महत्वपूर्ण है। कर्नाटक में भाजपा की सत्ता खोने में भाजपा नेताओं का आपसी झगड़ा ही कारण बना। हिमाचल प्रदेश में सत्ता गई इसका कारण झगड़ा था। उत्तरांचल में भी यही झगड़ा। इसके पूर्व राजस्थान में भी यही
झगड़ा, दिल्ली में भी यही झगड़ा और उत्तर प्रदेश में भी यही झगड़ा। भाजपा के नेता यदि आत्मघात ही करना चाहे तो उन्हें कौन बचा सकता है? अगर मल्लाह अपनी नाव खुद ही डुबोना चाहे, पायलट ही विमान गिराना चाहे अथवा रेल्वे ड्राइवर ट्रेन की कहीं टक्कर करवाना चाहें तो कोई क्या कर सकता हैे? अनुभव ऐसा है कि इन सारी जगहों पर संघ कार्य का बहुत प्रभाव है और संघ के कार्यकर्ता सत्ता से दूर हैं, उनका जीवन समर्पित है; फिर भी उनकी एक न सुनने की नेताओं की मानसिकता होती है। यह मानसिकता आत्मघात कराने वाली होती है। इस आत्मघात के एक से एक अनुभव भाजपा के पास हैं।

इस तरह का आत्मघात 2014 के चुनावों में न करें, आपस में न लड़ें, चार‡चार पांच-पांच बार लोकसभा की सीट प्राप्त करने वालों को अब यह परिपक्व विचार करना चाहिए कि हम वृद्ध हो चुके हैं और अपनी सीटें युवकों को देनी चाहिए। उस सीट को पाने के लिये षड्यंत्र और कारगुजारियां नहीं करनी चाहिये। ये कितने भी गोपनीय तरीके से की जाए परंतु खुल ही जाती हैं। इनके परिणाम भी बहुत बुरे होते हैं। षड्यंत्र रचनेवाले व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है इससे ज्यादा विचारधारा और पार्टी के लिए यह ज्यादा नुकसानदेह होता है।

लक्ष्मण रेखा

आपस में विवाद का कारण सीटों का वितरण और नेतृत्व करने की स्पर्धा होता है। प्रदेश के नेता को लगता है कि उसके गुट के आदमी को टिकट मिले, केंद्र के नेता को लगता है कि प्रदेश मेंमेरे पंखों के नीचे काम करनेवाला व्यक्ति होना चाहिये। राजनीतिक दलों और राजनीतिक व्यवहार में इस तरह की गुटबाजी नहीं होनी चाहिये, यह आदर्श स्थिति है, लेकिन राजनीति का स्वभाव और धर्म देखते हुए यह होना संभव नहीं है, यह ध्यान में रखना होगा। कुछ बातें ऐसी ही चलती रहेंगी यह मान कर आगे बढ़ना होता है। फिर भी इसमें भी एक लक्ष्मण रेखा का पालन करना होता है। ऐसी कोई भी बात न की जाये जिससे हमारी एक सीट कम हो जाए। लोकसभा की प्रत्येक सीट का असाधारण महत्व होता है। ध्यान रखना होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार केवल एक मत के अंतर से हार गई थी। राजस्थान के हर गांव में जिस तरह एक‡एक बूंद संग्रहित करने का काम देहात के लोग करते हैं, वैसा ही मतोंके बारे में है, हर सीट के बारे मेंहैं।

जनता के सामने जाते समय भाजपा के सभी लोगों की आवाज समान होनी चाहिये। सभी का नेता एक होना चाहिये। युद्ध का नेतृत्व दस लोगों के हाथ में देने से वह जीता नहीं जा सकता। सुप्रीम कमांडर एक ही होने की आवश्यकता होती है और सभी को उसके मातहत ही कार्य करना होता है। दूसरे महायुद्ध में आयजेन हावर मित्र देशों की सेना के सुप्रीम कमांडर थे; जिसके कारण युद्ध जीता गया। प्रदेश में भी राजनैतिक नेतृत्व एक ही व्यक्ति के हाथ में होना चाहिये। हमारा सामूहिक नेतृत्व है; यह केवल बैठकों में बताने के लिये ठीक है। दलगत स्तर पर सामूहिक नेतृत्व होना भी चाहिए, लेकिन दस चेहरे लेकर हम जनता के समक्ष जा नहीं सकते। जनता के समक्ष एक ही चेहरा रखना आवश्यक होता है और वही पार्टी का अधिकृत प्रवक्ता, पार्टी की अधिकृत बात कहने वाला होता है।

ऐसे नेता जनमान्य होना चाहिए। वह केवल संगठनमान्य, पार्टी को मान्य या पार्टी प्रबंधकों को मान्य होने से काम नहीं चलता। जबरजस्ती से लादा गया कोई भी नेतृत्व राजनीतिक क्षेत्र में कभी सफल नहीं होता। राजनीति जनता से सतत संवाद साधने का खेल है, जनता में निरंतत घुलते- मिलते रहने का खेल है। जनता की नब्ज ठीक से पकड़ने का वैद्यकीय गुण है। यह हरेक से संभव होगा ऐसा नहीं है। इसके लिये प्रचंड कर्तृत्व तो आवश्यक है ही, इसमें विलक्षणराजनैतिक कौशल लगता है, राजनीतिक दांवपेंचों की महारथ लगती है। राजनीति का खेल सीधा नहीं होता। वहां बोलना एक, कहना एक और करना कुछ और होता है। समर्थ रामदास स्वामी ने अपने मराठी अभंग में कहा है-

इशारतीचे बोलू नये,
बोलायचे सांगू नये,
सांगायचे लिहू नये,
काही केल्या।

(अर्थात- जो मन में है उसका संकेत भी कहीं न दें,मन की बात न कहें, न लिखें। यह किसी भी तरह से नहीं होना चाहिए।)
आप इसे राजनैतिक चतुराई कहें अथवा चाणक्य नीति। लेकिन, इसके बिना चुनाव नहीं जीते जा सकेंगे।

विजय का विकल्प विजय ही

प्रतिस्पर्धियों के दांवपेंच समझने पड़ेंगे। राजनीति साधु संतों का क्षेत्र नहीं है। राजनीति में ‘जैसे को तैसा’ व्यवहार करना होता है। इसका महान आदर्श भगवान श्रीकृष्ण ने पेश किया है। उनका मंत्र है, ‘जो मेरी भक्ति जैसी करेगा उसे वैसा फल मैं देता हूं।’ हमें शुद्ध रहना चाहिये, पवित्र रहना चाहिये, निर्मल होना चाहिये; लेकिन सामने वाला यदि कोई अधर्म करता है तो उसे धर्म की भाषा में उत्तर देने की अपेक्षा अधर्म की भाषा में ही उत्तर देना चाहिए। इस नीति पर छत्रपति शिवाजी महाराज ने पूरी तरह अमल किया। अफजलखान को उन्होंने प्रतापगड़ पर भोजन के लिये नहीं बुलाया था। अफजलखान का खात्मा ही उनका लक्ष्य था। लोकतंत्र में इस प्रकार की हिंसा मान्य नहीं है, इसलिए वर्ज्य है। अत: शिवाजी के उदाहरण को शाब्दिक अर्थ में न लेकर उसका भावार्थ समझना चाहिये।

इस प्रकार की तैयारी करके केन्द्र से प्रदेश तक भाजपा को अपना घोड़ा रणक्षेत्र में उतारना चाहिये। एक ही संकल्प करना चाहिये कि चाहे जो हो विजयी होना ही है। विजय का कोई विकल्प नहीं है। विजय के लिये कोई ‘किन्तु, परंतु’ नहीं होता। विजय का एक ही विकल्प है और वह है सिर्फ विजय।
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