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सीरियाः अमेरिकी हमला टला, गुत्थी कायम

सीरियाः अमेरिकी हमला टला, गुत्थी कायम

by सरोज त्रिपाठी
in अक्टूबर-२०१३, देश-विदेश
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फिलहाल सीरिया पर अमेरिकी हवाई हमले की संभावना टल गई है। इससे पूरी दुनिया के शांति प्रेमियों ने राहत की सांस ली है। सीरिया ने रूस के उस प्रस्ताव को मान लिया है जिसके तहत वह अपने रासायनिक हथियार अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में सौंप देगा, ताकि बाद में उन्हें नष्ट किया जा सके। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी रूसी प्रस्ताव को अपनी रजामंदी दे दी है। टीवी पर प्रसारित राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में ओबामा ने कहा कि रूस की इस पहल से बल प्रयोग के बिना रासायनिक हथियारों का खतरा दूर होने की उम्मीद बंधती है क्योंकि रूस सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद का सबसे शक्तिशाली मित्र देश है।

बीसवीं सदी में आटोमन तुर्क साम्राज्य के पतन के बाद अस्तित्व में आया अरब देश सीरिया लगभग पिछले दो वर्षों से गृहयुद्ध से जूझ रहा है। सऊदी अरब, तुर्की, कतर और इस्राइली समर्थन से राष्ट्रपति असद के विरोधियों ने देश के कुछ हिस्सों पर कब्जा जमा लिया है। उनका दावा है कि वे मुक्ति युद्ध लड़ रहे हैं। वे सीरिया को असद और उनकी बाथ पार्टी की तानाशाही से आजाद कर वहां लोकतंत्र कायम करने की इच्छा का इजहार कर रहे हैं। इन विद्रोहियों को अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों का वरदहस्त प्राप्त है। दूसरी तरफ असद सरकार का दावा है कि वह उन आतंकवादियों से जूझ रही है जिन्हें कि सऊदी अरब से समर्थन और यूरोपीय देशों तथा अमेरिका से हथियार और पैसा मिल रहा है। अब तक इस सीरियाई गृह युद्ध में एक लाख से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। मानवाधिकारों का उल्लंघन करने में विद्रोहियों और असद सरकार में होड़ लगी प्रतीत होती है।

21 अगस्त को सीरिया की राजधानी दमिश्क की एक उपनगरीय बस्ती पर रासायनिक हमला किया गया। इस हमले में लगभग डेढ़ हजार लोग मारे गये और बच जाने वाले सैकड़ों लोग जिंदगी भर गैस के असर से परेशान रहेंगे। रासायनिक गैस के इस हमले के कुछ घंटे बाद ही अमेरिकी खेमे ने बशर अल असद की सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। उस पर ‘लाल रेखा’ के उल्लंघन का आरोप लगाया गया। ज्ञातव्य है कि पिछले साल ओबामा प्रशासन ने एक ‘लाल रेखा’ खींची थी। इसका मतलब यह था कि यदि असद सरकार ने विद्रोहियों के खिलाफ रासायनिक गैस का इस्तेमाल किया तो उस पर हमला होगा। 21 अगस्त की घटना की न कोई जांच हुई, न आरोप साबित हुआ, हमलावर का भी पता नहीं चला और सीरियाई सरकार को अपराधी घोषित कर दिया गया।

अमेरिका द्वारा सीरिया पर बमबारी करने का ऐलान किया जाने लगा। ब्रिटेन और फ्रांस भी सीरिया पर हमले का अभियान चलाने लगे। जॉर्डन में सऊदी अरब और अमेरिका के नेतृत्व में संपन्न 10 देशों की बैठक में हमले की योजना को मंजूरी दे दी गई। हमले के इन ऐलानों का रूस और चीन ने जोरदार शब्दों मे विरोध किया। रूस के विदेश मंत्री सेर्जेई लावरोव ने कहा कि सुरक्षा परिषद में मंजूरी के बिना बल प्रयोग अंतरराष्ट्रीय कानून का गंभीर उल्लंघन होगा। उन्होंने आगाह किया कि सीरिया में हस्तक्षेप कर अतीत की गलतियां न दोहराई जाएं, क्योंकि लीबिया और इराक में सैन्य दखल का खामियाजा अब भी भुगता जा रहा है। चीन के कहा कि जिनीवा में प्रस्तावित वार्ता के जरिये सीरिया के मसले का राजनीतिक समाधान ढूंढ़ा जाना चाहिए।

सीरिया ने अमेरिकी खेमे के इस आरोप का तीखा प्रतिवाद किया कि उसने रासायनिक गैसों का इस्तेमाल किया है। राष्ट्रपति असद की तरफ से जारी बयान में आरोप लगाया गया कि सीरिया, सऊदी अरब, इस्राइल, कतर और तुर्की की विध्वंसक साजिशों का शिकार है। असद ने अमेरिका को चेतावनी दी कि वियतनाम युद्ध से लेकर अब तक हर सैनिक हस्तक्षेप में उसकी हार हुई है, यही हाल उसका सीरिया में भी होगा।

रूसी विटो के कारण सुरक्षा परिषद में सीरिया पर हमले की योजना को मंजूरी नहीं मिल पाई। ब्रिटेन की संसद में दिन भर की बहस के बाद प्रधानमंत्री डेविड कैमरन का सीरिया पर हमले का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। यूरोपीय संघ और नाटो के सबसे महत्वपूर्ण देश जर्मनी सहित 10 यूरोपीय देशों ने हमले का विरोध किया। अमेरिकी जनता ने भी युद्ध का विरोध शुरू कर दिया। पर फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रंक्वा होलांद ने सीरिया पर हमले की योजनाओं का जोरदार शब्दों में समर्थन किया। उन्होंने तो दो टूक शब्दों में कहा कि सुरक्षा परिषद मंजूरी न दे तब भी सीरिया के खिलाफ सैनिक कार्रवाई कानूनी होगी। युद्ध छेड़ने की फ्रांस की आतुरता के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी के बाद अमेरिका असद सरकार के खिलाफ सैनिक कार्रवाई करेगा।

यह तथ्य काबिलेगौर है कि अभी गृह युद्ध में असद सरकार का पलड़ा भारी है। सिर्फ दो महिने पहले सामरिक महत्व के शहर कुसेर को सेना ने डेढ़ साल बाद बागियों से मुक्त करा लिया था। इसके पश्चात असद सरकार ने एक और महत्वपूर्ण शहर अलेप्पो को बागियों से मुक्त कराने में सफलता हासिल की थी। ऐसे में कोई वजह नहीं दिखती जिससे कि एक के बाद एक शिकस्त पा रहे बागियों पर असद सरकार रासायनिक हमला कर अमेरिका को युद्ध छेड़ने का मौका देती।

सीरियाई जनता के मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर अमेरिका सीरिया पर हमला करना चाहता है पर मानवाधिकारों के प्रति अमेरिकी सरोकारों पर यकीन करने लायक उसका अतीत है ही नहीं। इस मुद्दे पर अमेरिका की दो मुंही नीति की दर्जनों मिसालें दुनिया ने देखी हैं। उदाहरण के लिए अमेरिकी खैरात पर टिकी मिस्र की अमेरिका परस्त फौजी सरकार ने इस साल अगस्त महीने में राजधानी काहिरा में एक हजार से ज्यादा नागरिकों की हत्या कर दी। धरने पर बैठे लोगों की मांग थी कि विधिवत निर्वाचित मोहम्मद मुर्सी की सरकार की बहाली की जाये। अमेरिका ने डेढ़ अरब डॉलर की इमदाद जारी रखकर मिस्र के फौजी हुक्मरानों का हौसला बढ़ाया। निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध फायरिंग में अमेरिका को मानवाधिकारों का हनन नजर नहीं आया।

दर असल मानवाधिकार और रासायनिक हथियार नहीं, असली कहानी यह है कि असद सरकार अमेरिका और सऊदी अरब की आंखों की किरकिरी है। इन दोनों को सीरिया में ईरान का प्रभाव सख्त नापसंद है। सऊदी अरब के शाहों को यह डर स्थायी तौर से सताता रहता है कि कहीं ईरान के शहंशाह की तरह एक दिन उनका तख्ता भी न पलट दिया जाए। इसी कारण ईरान के अयातुल्लाओं को वे अपना स्थायी दुश्मन मानते हैं। सऊदी अरब सुन्नी बहुल सीरिया को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेना चाहता है। असद सरकार का पतन हो जाए, ईरान के पंख कट जाएं और सीरिया में सरकारी सैनिकों के कंधे से कंधा मिलाकर बागियों को शिकस्त दे रहा हिजबुल्लाह अगर कमजोर हो जाए तो अमेरिका, सऊदी अरब और इस्राइल को एक साथ फायदा होगा।

यह बात ध्यान रखने योग्य है कि अगर अमेरिका के कारण सीरिया में असद सरकार का पतन होता है, तो इराक का इतिहास सीरिया मे दोहराया जाएगा। आज तीन इराक हैं- शिया इराक, सुन्नी इराक और कुर्द इराक। कुर्द इलाका वस्तुत: स्वतंत्र है। असद सरकार के पतन की हालात में- पश्चिमी सीरिया में असद समर्थकों और हिजबुल्लाह का प्रभुत्व होगा, उत्तरी केन्द्रीय इलाके में ओसामा बिन लादेन के अल कायदा से संबद्ध जबात अल- नुसरा और अन्य सुन्नी संगठन हावी रहेंगे और उत्तर के कुर्द इलाके में राष्ट्रवादी कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी स्वायत्त क्षेत्र स्थापित कर सकती है। यथास्थिति टूटने के बाद पैदा होने वाले हालात पर न तो सऊदी अरब के पेट्रो डॉलरों और न अमेरिकी हथियारों का नियंत्रण रहेगा।…. और तब पश्चिमी एशिया में एक नए संकट की शुरूआत होगी। इससे विश्व शांति को खतरा उत्पन्न होगा। वैसे यह बात भी उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने जहां कहीं भी सैनिक हस्तक्षेप किया है, अंतिम परिणाम उसके प्रतिकूल रहे हैं।
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