सन 2014 में, याने अब से 6-7 महीनों के बाद लोकसभा का चुनाव होगा। लोकसभा का चुनाव इस वर्ष के अन्त में होने वाले विधान सभाओं के चुनाव के साथ ही हो, यह मांग भारतीय जनता पार्टी ने की है। भाजपा ने इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति से भी भेंट की। किन्तु समय पूर्व लोकसभा का चुनाव होगा, ऐसा मुझे लगता नहीं। देश की आर्थिक स्थिति इतनी विकट हो गयी है और जिसके लिए केन्द्र में सत्तासीन यूपीए की गलत नीतियां ही जिम्मेदार हैं, ऐसी जन-भावना है, उसको कुछ मात्रा में ठीक करने के लिए यह सरकार कुछ कदम उठा रही है। उनके परिणामों के अपेक्षित सुफल देखे बगैर, यूपीए लोकसभा चुनाव की चुनौती स्वीकार करेगी, ऐसा मुझे लगता नहीं। 2014 के अप्रैल-मई में ही चुनाव होंगे।
नागरिकों का प्रथम कर्तव्य
कोई भी चुनाव हो, 2014 का हो या उसके बाद का हो, लोकसभा का हो या किसी राज्य की विधान सभा का हो, नागरिकों का यह प्रथम संविधानात्मक कर्तव्य है कि उनको जो मतदान करने का अधिकार प्राप्त है उसका पालन करना चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि चुनाव में शत-प्रतिशत मतदान नहीं होता। 60 प्रतिशत मतदान हुआ तो हम धन्यता का अनुभव करते हैं। मान लीजिए कि मतदाताओं की संख्या 100 है। उनमें से 60 ने मतदान किया। तीन-चार प्रत्याशी तो चुनाव मैदान में रहते ही हैं। इस स्थिति में जिसको 25 वोट मिलेंगे वह चुनकर आएगा। बाकी के 35 वोट, बचे हुए दो-तीन उम्मीदवारों में बंट जाएंगे और यह 25 प्रतिशत मत पाने वाला यह जाहिर करेगा और जनता भी उसे मान लेगी कि वह पूरे 100 मतदाताओं का प्रतिनिधि है। इस झूठ को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि मतदान शत-प्रतिशत हो। अत: इस हेतु एक नियम बनने की आवश्यकता है कि सभी के लिए मतदान अनिवार्य हो। केवल जो बीमार हैं, या विदेश में गये हैं, उनको ही इस अनिवार्यता से छूट मिलेगी। जो व्यक्ति लगातार दो चुनावों में मतदान नहीं करता, फिर कारण कुछ भी हो, उसका मतदान का अधिकार समाप्त होना चाहिए, मतदाता सूची में से उसका नाम निकाल देना चाहिए। नागरिकों का पहला कर्तव्य है अपने मताधिकार को अमल में लाना। इस पद्धति से मतदान 99 प्रतिशत से नीचे नहीं आएगा और चुनाव जीतने वाला जनता के अधिकांश हिस्से का प्रतिनिधि बनने की योग्यता प्राप्त करेगा।
और एक नियम
और एक नियम जो यूरोप के फ्रान्स देश में है, बनाने की आवश्यकता है। विजयी उम्मीदवार को कम से कम 50 प्रतिशत वोट प्राप्त करना पड़ेगा। यदि, अनेक उम्मीदवार खड़े होने के कारण सभी उम्मीदवारों से अधिक किन्तु पचास प्रतिशत से कम मत मिलते हैं, तो उसको विजयी घोषित नहीं किया जाएगा। बल्कि, अधिकतम वोट पाने वाले पहले और दूसरे उम्मीदवार के बीच फिर से चुनाव होगा। मतदाताओं को इसे सजा नहीं माननी चाहिए। यही समझना चाहिए कि उनकी ही गलती के कारण उन्हें दुबारा मतदान करना प़ड रहा है। फ्रान्स में यह पद्धति चालू है। साल का मुझे स्मरण नहीं है किन्तु फ्रान्स के राष्ट्रपति का चुनाव था। प्रत्याशी तीन थे। किसी को भी 50 प्रतिशत वोट नहीं मिले थे। पहले दो में फिर से चुनाव हुआ। आश्चर्य यह हुआ कि पहली गिनती में जो प्रत्याशी नम्बर दो पर था वह इस नये चुनाव में जीतकर फ्रान्स का राष्ट्रपति बना।
अखिल भारतीय पार्टियों का स्थान
लोकसभा का चुनाव देशव्यापी होता है। अत: उन्हीं पार्टियों को मतदाता को वोट देना चाहिए जिनका कम-ज्यादा प्रमाण क्यों न हो, पर पूरे देश में अस्तित्व है। ऐसी दो ही पार्टियां आंखों के सामने आती हैं। वे हैं (1) कांग्रेस और (2) भाजपा। तीसरा क्रमांक लगता है वामपंथी पार्टियों का। उनका कई वर्षों से एक संगठन बना हुआ है। आज भले ही केवल त्रिपुरा राज्य में उनका शासन हो, किन्तु अभी तक प. बंगाल और केरल में भी उनकी सत्ता थी। प्राय: सभी राज्यों में इस संगठन का भी अस्तित्व है। अन्य सभी पार्टियां किसी न किसी एक राज्य में ही सीमित हैं। इस तथ्य के अनेक उदाहरण हैं। अकाली दल केवल पंजाब तक मर्यादित है। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी हो या मायावती की बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश के बाहर उसका अस्तित्व नहीं है। तृणमूल कांग्रेस केवल प. बंगाल में, बीजू जनता दल केवल ओडिशा में, अन्ना द्रमुक और द्रमुक केवल तमिलनाडु में, तेलगू देशम केवल आंध्र प्रदेश में और शिवसेना केवल महाराष्ट्र में है। इन पार्टिेयों का केवल अस्तित्व ही नहीं उनकी विचारधारा और कार्यक्रम भी उस उस राज्य के लिए ही सीमित रहते हैं। ये सारी प्रादेशिक पार्टियां हैं, अ. भा. भारतीय पार्टियां नहीं। इन दलों को लोकसभा के चुनावों में प्रत्याशी ख़डा करने का ही कानूनन अधिकार नहीं मिलना चाहिए ताकि नागरिकों को अपने विवेक का उपयोग कर वोट देने का अवसर प्राप्त होगा। इन पार्टियों को कानून के द्वारा लोकसभा के चुनाव में उम्मीदवार ख़डा करने के लिए प्रतिबंधित करने की बात जब अमल में आएगी, तब आएगी किन्तु नागरिकों का कर्तव्य यह बनता है कि जिनके विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों की पहुंच पूरे भारत के सन्दर्भ में है उन्हीं में से किसी एक पार्टी के उम्मीदवार का उन्हें चयन करना चाहिए।
तीन क्षेत्रों की चर्चा
नागरिकों के सामने केवल तीन पर्याय बचते हैं- 1) कांग्रेस 2) भाजपा 3) वामपंथी। कुछ क्षण के लिए वामपंथियों को बगल में रखें। पूरे भारत पर शासन करने की उनकी क्षमता नहीं है, यह सत्य वे भी जानते हैं। तो मुख्य पर्याय दो ही बचते हैं- (1) कांग्रेस और (2) भाजपा। पिछले नौ वर्षों तक कांग्रेस नेतृत्व वाले मोर्चा का शासन हमने देखा है। सभी क्षेत्रों में कांग्रेस की असफलता ही नजर आएगी। उदाहरण के लिए मैं केवल तीन बुनियादी क्षेत्रों की चर्चा करूंगा।
आर्थिक क्षेत्र
(1) रुपये का ऐसा अवमूल्यन होगा यह कभी स्वप्न में नहीं सोचा था। उसके थमने के कोई आसार नहीं हैं। इस यूपीए के प्रारम्भ काल में 50 रुपयों में एक डॉलर मिलता था। अब एक डॉलर के 69 रुपये देना प़ड रहे हैं। महंगाई बेतहाशा ब़ढ रही है। राष्ट्रीय विकास की दर तो 5 प्रतिशत से भी नीचे आई है। इसको मद्देनजर रखते हुए नागरिकों का यह कर्तव्य बनता है कि कांग्रेस के पर्यायी राजनीतिक दल को ही मौका देना चाहिए, मतलब भाजपा को ही चुनना चाहिए।
जिहादी आतंकवाद
(2) दो प्रकार के आतंकवाद से भारत पी़िडत है। एक जिहादी और दूसरा नक्सली। जिहादी आतंकवाद का मूल स्रोत पाकिस्तान है। हमें पाकिस्तान के बारे में कठोर नीति ही अपनानी प़डेगी। पाकिस्तान आक्रमण करे और हम निषेध-पत्र भेजते रहे, यह अब नहीं चलना चाहिए। कुछ लोगों की मान्यता है कि अब पाकिस्तान में नयी सरकार आयी है और उसने मित्रता का हाथ फैलाया है तो हमें भी अपनी नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए। किन्तु यह बात ध्यान में रखें कि पाकिस्तान में असली सत्ता नागरी प्रशासन के हाथ में नहीं होती। वह होती है सेना के हाथ में। और मेरा यह तर्क है कि सेना को भारत के साथ मित्रभाव पसन्द नहीं है। पाकिस्तान का जन्म ही भारत द्वेष में है। वही उसके अस्तित्व का प्रयोजन और आधार भी है। आज का नया नागरी शासन मित्रता की राह पर आगे न ब़ढे, इसी हेतु सेना के द्वारा निर्धारित सीमा का बार-बार उल्लंघन किया जा रहा है, ऐसा मुझे लगता है। मुझे आशंका है कि जैसे ही अफगानिस्तान से नाटो की सेना हट जाएगी, जो 2014 में हटने वाली है, पाकिस्तान में नागरी शासन समाप्त होगा। सेना का शासन आएगा या जो सेना को पसन्द है उसके हाथों में शासन की बागड़ोर रहेगी। विद्यमान पाकिस्तान के प्रधान मंत्री ने स्वयं यह अनुभव लिया है। वे अवश्य जानते होंगे कि जनरल मुशर्रफ ने उनको कैसे हटाया और शासन अपने कब्जे में लिया। अमेरिकी आर्थिक सहायता और सेना का भारत विद्वेष इसी पर पाकिस्तान टिका है।
पाकिस्तान की हालात
पाकिस्तान के सिंध, पंजाब, बलुचिस्तान और खैबर पख्तुनख्वा में चार घटक राज्य हैं। इस्लाम ही एकमात्र इनको जो़डकर रखने का माध्यम है। किन्तु इस्लाम राष्ट्रभाव को निर्माण नहीं कर सकता। वह सब इस्लामियों को भी जो़डकर नहीं चल सकता। इधर-उधर न देखते हुए भी हम कह सकते हैं कि इस्लाम में पाकिस्तान को एकत्र रखने की क्षमता होती तो बांग्ला देश पाकिस्तान से अलग नहीं होता। बांग्ला देश में भी इस्लाम ही प्रमुख मजहब है। यदि इस्लाम एकता का पक्षधर होता तो विद्यमान पाकिस्तान में शियाओं को आघात लक्ष्य नहीं बनाया जाता। शिया भी इस्लाम को मानने वाले हैं और पाकिस्तान में 20 प्रतिशत उनकी जनसंख्या है तो उन पर और उनके प्रार्थना स्थानों पर हमले क्यों होते हैं? पूरे पाकिस्तान को एकत्र रखने वाली कोई विचारधारा नहीं है। पूरे पाकिस्तान ने एक होकर कभी भी अंग्रेजी शासन के खिलाफ आजादी की ल़डाई नहीं ल़डी। अंग्रेजों की कूटनीति के कारण पाकिस्तान बना और शीत युद्ध की कालावधि में रूस पर निगरानी रखने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान की भूमि की आवश्यकता थी इसलिए उसने पाकिस्तान की मदद की। उसके भरोसे पाकिस्तान अभी टिका हुआ है। और एक बात, सिंध में पाकिस्तान से अलग होने के लिए अनेक वर्षों तक आन्दोलन चला। उस समय ‘जिये सिंध’ के बुलंद नारे आसमान में गरज रहे थे। सेना की ताकत ने उसे भले ही दबाया हो वह भावना आज भी मरी नहीं है। बलुचिस्तान में तो आज भी खुल्लमखुल्ला पाकिस्तान सेे अलग होने की बात चल रही है। खैबर पख्तूनख्वा यानी पुराना सरहद प्रान्त पाकिस्तान में शामिल होना ही नहीं चाहता था। 1946 के चुनाव में अखण्ड भारत का मुद्दा लेने वाले कांग्रेस पार्टी को यहां बहुमत मिला था। पाकिस्तान में न रहने की वह भावना आज भी जीवित होगी। पाकिस्तान के टिकने में भारत का भला है, यह भ्रम है। पाकिस्तान का विघटन ही भारत के हित में है। इस हेतु किस पार्टी का शासन उपयुक्त होगा, यह बात समझदार नागरिकों को ध्यान में रखनी चाहिए।
नक्सली आतंकवाद
दूसरा नक्सली आतंकवाद है। यह स्वयं को माओवादी कहलाता है। नाम से उसके हृदय के तार किस देश से जु़डे होंगे इसका पता चलता है। यह आतंकवाद, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसग़ढ, महाराष्ट्र, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में फैला है। कुछ क्षेत्रों में ईसाई चर्च का नक्सलियों को समर्थन प्राप्त है। नक्सली आतंकवाद से पी़िडत में राज्य अपनी सीमित शक्ति के कारण उसका सही अर्थ में मुकाबला नहीं कर सकते। सबको समेटने के हेतु केंद्रीय नीति और व्यवस्था चाहिए। नौ वर्षों में केन्द्र में सत्तारू़ढ शासन इस समस्या को निपटाने में असमर्थ सिद्ध हुआ है। इसलिए नयी सरकार, नयी नीति और नयी सोच की आवश्यकता है।
सेक्युलरिज्म
तीसरा क्षेत्र है ‘सेक्युलरिज्म’ का। उसका अर्थ और व्यवहार सही मायनों में समझने की आवश्यकता है। हिंदू-सिद्धान्त की दृष्टि से ‘राज्य’ सेक्युलर याने पंथनिरपेक्ष ही होता है। ‘सेक्युलर’ का अर्थ ऐहिक जगत से सम्बद्ध यह है। ‘राज्य’ (ीींरींश) संस्था का सम्बन्ध ऐहिक जीवन से है, अत: हिंदुओं के सिद्धान्त में राज्य सेक्युलर ही रहेगा। इसलिए अपने संविधान में भी 1950 से 1976 तक ‘सेक्युलर’ शब्द नहीं था। फिर भी राज्य ‘सेक्युलर’ ही था। 1976 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने संविधान की भूमिका (िीशरालश्रश) में ‘सेक्युलर’ शब्द का अन्तर्भाव करने के कारण हमारा राज्य ‘सेक्युलर’नहीं बना। इसका श्रेय श्रीमती इंदिरा गांधी को देने का कोई सोचता है तो उसे यह मानना प़डेगा कि पहले 26 सालों तक हमारा राज्य ‘सेक्युलर’नहीं था।
कांग्रेस का व्यवहार
संविधान में तो ‘सेक्युलर’ शब्द डाल दिया गया है किन्तु कांग्रेस पार्टी की सोच और व्यवहार उसके अर्थ से एकदम विपरीत है। उसकी सोच में ‘सेक्युलर’ का मतलब अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलमानों को खुश रखना है। यह सरकार मुसलमानों को केवल वोट बैंक समझती है और उस पर अपना ही कब्जा रहे, इस हेतु पंथनिरपेक्षता को ताक पर रखकर नीतियां अपना रही है। मुसलमान समाज, सब समाजों से दूर रहे, राष्ट्रीय जीवन प्रवाह से दूर रहे, यही तथाकथित सेक्युलर पार्टियों की नीतियां और व्यवहार रहा है। दुर्भाग्य यह है कि मुसलमान समाज के अधिकांश लोग इसमें ही अपने समाज का हित है, ऐसा मानते हैं। फिर विचित्र परिस्थितियां पैदा होती हैं। हज यात्रा के लिए अनुदान दिया जाता है। मुसलमानों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने के निर्णय होते हैं। उनके लिए अलग बैंकिंग का प्रस्ताव है। केरल में जहां कांग्रेस पार्टी की सरकार है, शरीयत के मुताबिक चलने वाले न्यायालयों की स्थापना की चर्चा है। सबके लिए समान नागरी कानून, संविधान की अपेक्षा होने पर भी नहीं बनता है। यह एकराष्ट्र भाव को धोखा देने वाली नीति है। अंग्रेजों ने मुसलमानों को राष्ट्रीय जीवन प्रवाह से अलग रखने के लिए जो चाल चली थी, उसी का अनुसरण किया जा रहा है। अंग्रेजों की नीति के कारण ही भारत में रहने वाले उस समय के मुसलमानों ने भारत के विभाजन का लक्ष्य रख़ने वाली मुस्लिम लीग को भारी बहुमत से जिताया था। अब आवश्यकता है, सही अर्थ में पंथनिरपेक्षता की नीति और व्यवहार अपनाने की। यह काम न कांग्रेस कर सकती है, न वामपंथी पार्टियां। यह करने की क्षमता केवल भाजपा में ही है। जो सही अर्थ में राष्ट्र में एकात्मभाव ब़ढे, ऐसी चाह रखेगा वही सही अर्थ में ‘सेक्युलर’ राज्य चलाएगा।‘सेक्युलर’ का अर्थ बहुसंख्यक हिंदुओं का विरोध और मुसलमानपरस्ती यह जो अभी रू़ढ हुआ है, उसको निरस्त करने की नितान्त आवश्यकता है। भाजपा सचमुच यह करती है या नहीं, ऐसी आशंका रह सकती है, किन्तु उसे एक मौका अवश्य देना चाहिए।
इन विचारों के अलावा, नागरिकों को प्रत्याशी का चरित्र भी देखना चाहिए। यह सबके लिए शर्म की बात है कि हमारी सार्वभौम संसद के एक-तिहाई सदस्य अपराधलिप्त हैं। आशा करें कि भारत के समझदार नागरिक इन मौलिक बातों को समझकर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे।
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