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अध्यात्मिक आनंद की यात्रा- मानसरोवर

अध्यात्मिक आनंद की यात्रा- मानसरोवर

by प्रकाश बाल जोशी
in नवंबर -२०१३, पर्यटन, सामाजिक
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हिमालय के बर्फाच्छादित शिखर मुझे हमेशा निमंत्रण देते रहे हैं। फिर भी, कैलास मानसरोवर जाऊंगा यह कभी सोचा ही नहीं था। लेकिन, अचानक कैलास मानसरोवर जाने का संयोग जुड़ गया। इज्मीर आर्ट फेस्टिवल, तुर्कस्तान के लिए मेरा चयन हुआ। इस प्रदर्शनी के लिए मेरा मौसेरा भाई सतीश याज्ञिक भी साथ था। वह पहले कैलास मानसरोवर की यात्रा कर चुका था और पुनः काठमांडु के मार्ग से जाने वाला था। उसने पूछा, क्या आएंगे और मैंने भी तुरंत कह दिया, हां।

दोस्तों ने सलाह देनी शुरू की, ‘अरे जा तो रहा हो; लेकिन आपको ट्रेकिंग का कोई अनुभव नहीं है। ऊंचाई पर क्या कष्ट होते हैं इसकी आपको कल्पना नहीं है। जाना ही है तो जाइए; लेकिन जरा सम्हल कर।’ कुछेक ने तो हताश करने वाले अनुभव भी सुनाए। लेकिन इरादा पक्का था। चलने का अभ्यास शुरू हो गया। रोज दो घंटे चलने और मुलुंड में घर के पिछवाड़े की मामा-भांजे की पहाड़ी पर तारामती पॉइंट तक चढ़ने की प्रेक्टिस शुरू की। सचमुच यह अभ्यास काम का रहा।

पहले यह यात्रा इतनी कठिन और साहसभरी थी कि मानसरोवर की यात्रा पर निकला यात्री फिर जिंदा लौटेगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं होती थी। अब ऐसी स्थिति नहीं है। मानसरोवर जाकर आना इतना कठिन नहीं रहा है। फिर भी, दुनिया के अत्यंत दुर्गम इलाकों से गुजरने वाली यह यात्रा आज भी साहसिक और रोमांचक यात्रा ही है। कैलास और मानसरोवर दोनों तिब्बत में आते हैं और तिब्बत है चीन के कब्जे में! यह यात्रा 1980 तक कुछ साल बंद ही रही। समुद्र की सतह से 22,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित विशाल कैलास पर्वत अर्थात वेदों में उल्लेखित मेरू पर्वत। इस पर्वत की तलहटी में समुद्र की सतह से 15250 फुट ऊंचाई पर विस्तीर्ण प्रदेश में फैला महाकाय जलाशय है- मानसरोवर। पुराणों में इसे ही ‘बिंदुसार’ कहा गया है। ये दोनों स्थान अब चीन के कब्जे में हैं और भारतीयों की तीर्थ यात्रा के लिए चीन से बातचीत करनी होती है।

यह यात्रा यदि पैदल करनी हो तो भारत सरकार की ओर से आयोजित यात्रा में ही जाना होता है। इसके लिए बहुत तैयारी करनी होती है और 26-27 दिनों की इस यात्रा के लिए आपका चयन होगा ही इसकी कोई गारंटी नहीं होती। पिछले कुछ वर्षों से नेपाल के काठमांडु से निजी ट्रेवल एजेंसियों द्वारा आरंभ की गई यह यात्रा कम दिनों की होती है। चीनी वीजा से लेकर अन्य सुविधाओं तक सारी व्यवस्था ये कम्पनियां करती हैं। काठमांडु से कैलास तक यात्रा सड़क मार्ग या हेलिकॉप्टर से की जा सकती है।

मैं, सतीश, उसका मित्र, नितीन गायकवाड़ और मृदुला किणीकर इस तरह हम चारों विभिन्न मार्गों से काठमांडु पहुंचे। तब तक भारत के मार्ग से जाने वाली मानसरोवर यात्राएं मूसलाधार बारिश और पर्वतों के भूस्खलन के कारण बंद कर दी गई थीं। इसलिए हमारे मार्ग की जानकारी न रखने वाले मित्रों और परिवारों के लगातार फोन व एसएमएस आ रहे थे और उन्हें उत्तर देते-देते हम थक गए थे।

हमारा मुख्य सम्पर्क प्रमुख राजन श्रेष्ठ शाम को मिलने आया। उसने स्पष्ट किया कि इस परिसर में मौसम चंचल होता है। कभी भी बदलाव होता है। अतः हर प्रकार की तैयारी रख और बिना किसी अपेक्षा के कल आपका जत्था रवाना होने वाला है। एक ही ग्रुप वीजा होने से सभी को साथ-साथ ही यात्रा करनी पड़ेगी। इसके अलावा बहुतेरे उपदेश भी उन्होंने दिए। सभी को नीले रंग का पिट्ठू दिया और अपने कीमती सूटकेस यहीं रखकर उसका सामान पिट्ठू में रखने की सलाह दी। बाद में जिस तरह से सामानों की फेंकाफेकी बस और हवाई जहाज में हुई उसे देखकर थैले में सामान रखना ही बेहतर लगा।

दूसरे दिन एक छोटे विमान से हमें नेपालगंज भेजा गया। वहां हमारा 40 लोगों का ग्रुप बना। उसमें भारतीय वंश के लेकिन अब अमेरिका में बस चुके पांच लोग भी शामिल थे। उनमें मूलतया हैदराबाद की रहने वाली एक डॉक्टर भी थीं, जिसकी बाद में बड़ी सहायता हुई। कुछ लोगों को तिब्बत के तकलाकोट में पहुंचने पर ऊंचाई की तकलीफ शुरू हुई तब उनसे ही सहायता लेनी पड़ी। फाल्गुनी नामक गुजराती युवती अमेरिका में मोटेल चलाती है। वह लंदन की अपनी बुआ को साथ लेकर आई थी। दोनों गुजरात के आणंद की निवासी थीं। अपने पति को क्या देखा यह दिखाने के लिए वह अपने मोबाइल पर वीडियो शूटिंग कर रही थी। हिल्सा में नेपाली सीमा लांघकर हम बस का इंतजार कर रहे थे। वहां मौजूद चीनी सैनिकों को वीडियो में कैद करने के लिए जैसे ही उसने वीडियो शुरू किया एक फौजी ने आंखें तरेर लीं। तब उसका फोन बैग में चला गया और फौजी के चले जाने के बाद ही बाहर निकला। नेपाली पुलिस और चीनी सैनिकों में अंतर को समझने के लिए लोगों को कुछ समय लगा।

बेंगलुरु से दो बहनें आई थीं। एक की उम्र 70 और दूसरी की थी 72। दोनों ने अंत तक कैलास चढ़ने का प्रण कर रखा था। एक खच्चर से गिर गई, लेकिन अंत तक- देरापुक तक- दोनों घोड़ों पर सवार होकर आईं।

कोठारी ग्रुप 19 लोगों का था। ये वृहद परिवार के लोग एकत्र आकर मानसरोवर यात्रा पर निकले थे। उनमें स्वयं कोठारी चेन्नई के रहने वाले थे। कुछ कोलकाता के थे। एक परिवार अहमदाबाद का और अजितमल नागपुर के थे। पांच बार कैलास यात्रा कर चुके उदयपुर के फल व्यापारी हिंदुजा हमारे समूह में शामिल थे। राजेश जोशी, सतीश का मित्र था और इस बहाने 25 साल बाद मिला था। वह चीन के शांघाई में काम करता है और हमारे समूह में शामिल था।

हमारे समूह में भारत के कोने-कोने से आए लोग शामिल थे। हरेक की भाषा अलग-अलग, पसंद अलग-अलग। क्रोध-लोभ, हास्य-व्यंग्य में अगली यात्रा में आनेवाली अड़चनें भी सुखद हो गईं।

सिमिकोट

नेपालगंज से सिमिकोट की यात्रा एकदम छोटे सिंगल इंजन वाले 8 सीटर विमान से जान हथेली पर रखकर की। एक ही पंखा सामने था। विमान बहुत पुराना है यह दिख ही रहा था। कुछ जगह अंदर सिलो टेप लगाए गए थे। ऐसा विमान बहुत ऊंचाई पर नहीं जा सकता। हिमालय के ऊंचे शिखरों और लगातार सामने आने वाले बादलों का मुकाबला करते हुए यह विमान आगे बढ़ रहा था।
सिमिकोट हिमालय की गोद में बसा एक छोटासा गांव है। यहां यातायात का एकमात्र साधन यह विमान है। इस गांव के लिए कोई रास्ता ही नहीं है। इस गांव में याक और गधे को छोड़कर अन्य कोई वाहन नहीं है। विमानतल एक बराक किस्म की इमारत है। सुरक्षा नाम के लिए ही है।

चीनी वीजा के लिए पासपोर्ट की जेराक्स प्रति जरूरी थी, लेकिन कइयों के पास वह नहीं थी। वह कहां से उपलब्ध होगी? गांव में दिन-दिन भर बिजली नहीं होती। एक ही दुकान थी, जहां सौर ऊर्जा पर कंप्यूटर व स्कैनिंग मशीन चालू थी। उसने प्रतियां बनाकर दीं। इसके लिए दाम भी भरपूर चुकाने पड़े।

गांव में रहने के लिए एक ही स्थान था। एक ही रिसार्ट था। वहां विजय मल्या से लेकर मुकेश अंबानी तक सभी रह चुके हैं। हमारे हाथ में तिब्बत जाने का वीजा नहीं था। कुछ लोगों का कहना था कि वह आने तक आगे न बढ़े, लेकिन हम आगे बढ़ना चाहते थे। तड़के पांच बजे जग कर 7 बजे के पहले हेलिकॉप्टर से हम चार लोग तिब्बत-नेपाल सीमा पर स्थित हिल्सा नामक स्थान पर हेलिपैड़ पर उतरे।

हिल्सा-कर्नाली नदी

बगल में तिब्बत की सब से लम्बी कर्नाली नदी बह रही थी। चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पर्वत थे। हेलिपैड़ नदी के पात्र में फैले पत्थरों पर ही था। ऊंचाई की तकलीफ अब होनी शुरू हो गई थी। हर आधे घंटे बाद पानी पीना यही उस पर एक उपाय था। हरेक की जेब में कपूर की पुड़िया थी। बीच-बीच में लोग कपूर सूंघ रहे थे।

बगल के धनिया रंग के पहाड़ों पर वृक्ष-झाड़ियां नदारद थे। सर्वदूर धनिया रंग की अनेक छटाएं बिखरी थीं। नदी के पास कुछ बौनी झाड़ियां थीं। उनमें खिले छोटे-छोटे रंगीन फूल अपनी आभा बिखेर रहे थे। पहाड़ों से मिट्टी और कच्चे पत्थर लुढ़कते नीचे आ गए थे। मामूली धक्के से भी लगे कि मिट्टी के ढेर नीचे आ जाएंगे। हमारे आने के पंद्रह दिन पहले ही लगता है बड़ा भारी भूस्खलन वहां हुआ था। भारी मात्रा में मिट्टी-पत्थर नीचे लुढ़क आए थे।

करीब ही पत्थर के 10-15 छोटे घर थे। वहां एक कमरे में चार-पांच लोगों के सोने की व्यवस्था थी। ठण्डी बयार चल ही रही थी। रात में खिला चंदेरी आकाश देखने लायक था। वहां का मुखिया करमा नामक व्यक्ति था। वह सारी व्यवस्था देख रहा था। चावल-आलू का सर्वत्र मेन्यू था। बहुत हो गया तो पत्ताकोभी होती थी। पानी की बोतल 150 रु. में मिलती थी, लेकिन बिना पानी पीये रहा भी तो नहीं जा सकता। आक्सीजन की कमी महसूस की जा रही थी। इससे कई लोगों को नींद नहीं आ रही थी।

सुबह जल्दी जगा और नदी के तट की सैर कर आया। कर्नाली नदी का प्रवाह तेज था। लेकिन पानी का रंग भूरा था। इस तरह का पानी बहते हुए पहली बार देख रहा था। यही नदी बरसात में नागन जैसा फुत्कार करते हुए बहती है। अगल-बगल की मिट्टी-रेत बहाकर ले जाती है। हेलिकॉप्टर से किसी दूधिया रेखा की तरह दिखने वाली कर्नाली नदी गिरी-कंदराओं से पश्चिम की ओर बहती है।

दूसरे दिन हेलिकॉप्टर से हमारे लिए वीजा आया। दोपहर बारह बजे हम तैयार होकर कर्नाली नदी पर बने तार के रस्से से बनी पुलिया से सीमा पार कर तिब्बत में प्रवेश कर गए और तकलाकोट में हमारी बस का इंतजार करने लगे।

घंटेभर में हम सभी के चेहरे तिब्बती व्यक्ति की तरह लाल-लाल हो गए। कड़ी धूप और मौसम विरल होने से हमारी चमड़ी झुलस रही थी। कइयों ने अपने पास की सनस्क्रीन क्रीम निकाली।

बस में चीनी फौजी भी थे। अधिकांश 20-22 वर्ष के युवा थे। उन्होंने हरेक की बैग की तलाशी ली, पर्स-थैलियां खोलकर देखीं। हर चीज बाहर निकाली और उनका बारीकी से निरीक्षण किया। एक महिला नेपाली अखबार में कुछ लपेट कर लायी थी। उसमें दलाई लामा की फोटो थी। उसे निकालकर फेंक दिया गया।

करीब डेढ़ घंटे तक यह औपचारिकता होती रही। इसके बाद अगली यात्रा शुरू हुई। वह तकलाकोट तक थी। सभी मार्गों से आने वाले यात्री यहीं पहुंचते हैं। वहां सरकारी निवास स्थान बनाया गया है। काफी निर्माण भी हो रहा है। वहां पहुंचने तक तीन जगह फिर चेकिंग हुई।

तकलाकोट

तकलाकोट नामक नया शहर कर्नाली नदी के तीर पर बसाया गया है। पहले यहां बौद्ध धर्मियों की धर्मशाला थी। नए शहर में होटल, छोटी दुकानें, चीनी मोबिल शॉप, ब्यूटी पार्लर, अंग्रेजी माध्यम की स्कूल आदि सभी सुविधाएं हैं। हमारे साथ आए शेरपा ने सभी के स्वास्थ्य की पूछताछ की और कुछ औषधियों की गोलियां भी दीं। हमने मृदुला किणीकर द्वारा पुणे से लाई गई होम्योपैथी की गोलियां लेना पसंद किया और हमें कोई कष्ट भी नहीं हुआ।

दूसरे दिन आलू पराठे का नाश्ता कर हम बस से आगे बढ़े। दूर दिखाई देने वाले बर्फाच्छादित शिखर हमारे संग थे। अगल-बगल का परिसर बदलता दिखाई दे रहा था। धनिया और नसवारी रंग की मिट्टी और बौनी झाड़ियां कम होती जा रही थीं। रास्ता शानदार था। कहीं गड्ढे नहीं थे, न सर्पिले मोड़।

रास्ते में राक्षसताल नामक विशाल झील लगी। वहां से कैलास का प्रथम दर्शन होते ही हमारे साथी भाविक लोग एकदम ‘ओम नमोशिवायऽऽ भोले ऽऽ’ की प्रार्थना कर वहीं जमीन पर सिर नवाकर मुक्त हो गए। राक्षस झील बहुत सुंदर है। हरे-नीले पानी पर काली आभा है। इस झील में मछलियां या अन्य कोई जीव-जंतु नहीं हैं। माना जाता है कि यहां एक पर एक सात पत्थर रखने पर मन्नत पूरी होती है। फलस्वरूप चारों ओर पत्थरों के ढेर लगे दिखाई देते थे। लेकिन प्रकृति इतनी आक्रामक है कि तेज हवाओं और बर्फ की मार के आगे कुछ टिकता नहीं होगा।

मानसरोवर

चेकिंग होने के बाद हमारी बस मानसरोवर के तीर पर आकर रुक गई। कुछ लोगों को पहले स्नान करना था तो कुछ पहले मानसरोवर परिक्रमा करने के इच्छुक थे। परिक्रमा चीनी लक्जरी बस से ही करनी थी इसलिए हम सब से पहले नीचे उतरे। निवास के लिए छोटे पत्थरों से बने कमरें थे। हर कमरे में पांच-छह लोगों की व्यवस्था की गई थी। गरमागरम चाय पीने के बाद सरोवर के तट की ओर निकले। इस विस्तीर्ण जलाशय के पानी का रंग बदलते हुए दिखाई देता है। आकाश में बादल और प्रकाश जिस तरह बदलता है वैसे ही पानी के रंग भी बदलते हैं।

हममें से बहुत से लोगों ने स्नान किया। जिन्हें ठण्ड सहन नहीं होती उन्होंने ‘काकस्नान’ किया अर्थात अंजुलि में पानी लेकर वह सिर पर फेंका। शेरपा परिक्रमा शुरू करने का तगादा लगा रहा था। अंत में चीनी बस से प्रवास शुरू हुआ।

लगभग चार घंटे लगे। अंधियारा हो रहा था, लेकिन अगल-बगल के हिमशिखर बर्फ के दीयेे की तरह चमक रहे थे। किवदंती है कि रात में पार्वती शंकर से मिलने के लिए मानसरोवर में उतरती है और दो बड़े दीये दिखाई देते हैं। इसलिए हम सभी लोग भारी शीत में भी रात को 2 से 3.30 तक सरोवर के तट पर जा डटे। केवल एक-दो हंसों के जोड़े दिखाई दिए। एक-दो तारे टूट कर तालाब में आ गिरे। लेकिन कोई बड़ा प्रकाश दिखाई नहीं दिया। हममें से दो लोग वहां तड़के पांच बजे तक रुके रहे, लेकिन वे भी निराश होकर लौटे।

मानसरोवर के तट पर बौद्धों के पांच धर्मस्थल थे, लेकिन अब उनमें से एक ही बचा है। मानसरोवर से 12 किमी दूरी पर जैनों का अष्टापद तीर्थ है। माना जाता है कि हजारों वर्ष पूर्व जैनों के 24 तीर्थंकरों में से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान को यहीं मोक्ष प्राप्ति हुई।

दारचेन

कैलास पर्वत के मार्ग में पड़ने वाला पहला पड़ाव है दारचेन। वहां से कुछ किमी अंतर से कैलास परिक्रमा आरंभ होती है। यहां खच्चरों और याक का बाजार लगता है। कई लोग खच्चरों पर बैठ कर परिक्रमा करते हैं। कुछ लोग शेरपा के साथ पैदल परिक्रमा करते हैं। अपनी थैली शेरपा को सौंप कर केवल पानी की बोतल अपने पास रख कर पैदल चलना शुरू करते हैं। परिक्रमा के आरंभ में यमद्वार लगता है। मान्यता है कि इस स्थान तक ही मनुष्य की सरहद है। यम की अनुमति लेकर ही देव लोक में प्रवेश करना होता है।

इस निर्मनुष्य परिसर में प्रकृति की भव्यता और मनुष्य की आयु एवं अस्तित्व की क्षणभंगुरता ध्यान में आती है। कैलास मानसरोवर के बारे में पुराणों तो कई कथाएं हैं। यहां की भव्यता का उल्लेख वेदों में भी है।

यहां कोई मंदिर नहीं है और न कोई पुजारी। प्रकृति ही ईश्वर है यह बात परिक्रमा में ध्यान में आती है। यहां पर्वतों के शिखर इतने ऊंचे और विस्तीर्ण हैं कि सह्याद्रि की गोद में विचरण करने वाले मराठी व्यक्ति की आंखों में यह भव्यता समा जाती है। सर्पिली मोड़ वाली अनेक नदियां कंदराओं से उछलते बहती हैं।

हर चार माह में बदलने वाली ॠतु के अभ्यस्त लोग जब हर घंटे बदलने वाले मौसम को देखते हैं तब चकित हो जाते हैं। अचानक शीत लहर शुरू होती है, यकायक काले-काले बादल उमड़ पड़ते हैं, बारिश हो जाती है, फिर सूरज की किरणें दमक उठने से बदन झुलसने लगता है और यह सब कुछ हमारे चलते-चलते बदलता रहता है। ठण्ड के कारण पहना स्वेटर धूप खिलते ही उतारना पड़ता है और अचानक बरसने वाली बारिश के लिए रेनकोट साथ रखना होता है। इस निर्जन इलाके में पनाह के लिए कोई जगह नहीं है। लगातार तेजी से चलने वाले शहरी लोगों को यहां धीमे-धीमे चलना होता है अन्यथा सांस फूल जाती है और उससे अनेक दिक्कतें आ सकती हैं। हर कदम सावधानी से रखना होता है। हर पांच मिनट बाद कुछ देर विश्राम करना होता है और तभी कैलास की परिक्रमा बिना थके पूरी हो पाती है। नदी के तीरे-तीरे चलते हुए दोनों ओर के पर्वत, उन पर बर्फ की नक्काशी, कंदराओं से बहते पानी के प्रपात देख कर व्यक्ति भावविभोर हो जाता है। हर पहाड़ की विशेषता अलग, रंग अलग, उसके संकेत अलग, भूमि के क्षरण के कारण बहते प्रवाह की गति अलग, खुले पड़े पत्थरों के अमूर्त आकार देख कर दिल भर उठता है। जहां पानी निरंतर उतरता होता है वहां काले-हरे रंग का मुलम्मा चढ़ा रंग दिखाई देता है। बर्फ पिघल कर अलग-अलग आकार धारण करता है और कुछ अबूझ लिपि में प्रकृति का कुछ संदेश लिखा जाने का आभास होता है।

हममें से कुछ लोग नीचे ही रुके रहे। कुछ खच्चरों पर बैठ कर आगे बढ़े। जो पैदल निकले वे भी आगे पीछे हो गए। मैं और सतीश धीरे-धीरे पैदल चल रहे थे। दोपहर एक बजे निकले और मनमौजी की तरह आसपड़ोस का मनोरम निसर्ग मन में कैद करते चले। हमारे जैसे अन्य अनेक ग्रुप थे। उनमें तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के बहुत सारे लोग पैदल चलते हुए दिखाई दे रहे थे।

दाहिने ओर के कैलास के बीच-बीच में दर्शन हो रहे थे। आकाश साफ था इसलिए स्पष्टता थी। मानो कोई साधु शुभ्र भस्म ललाट पर लगाकर तपस्या के लिए बैठा है। बाएं हाथ के पर्वत अलग लग रहे थे। उनका गहरा धनिया रंग आंखों में भर रहा था। सामने से अनेक प्रपात आकर नदी में गिर रहे थे। सामने वाला पानी का प्रवाह छोटा भले हो लेकिन नदी के दोनों तट दोनों ओर के पर्वतों ने बांध रखे थे। इससे पता चलता है कि बारिश के मौसम में नदी कितना उग्र और विशाल रूप धारण करती होगी इसकी कल्पना सहज आ सकती है।

पीछे मुड़ने पर देखें तोे यह तंगघाटी कितनी विशाल है इसका पता चलता है। कदम-दर-कदम बढ़ते हुए हम पांच बजे एक तम्बू के पास पहुंचे। वहां चाय व एनर्जी ड्रिंक मिल रहा था। खच्चर पानी पीने के लिए रुकते हैं वैसे हम रुके। और दो-तीन घंटे चलना था। इसके बाद ही हम पहाड़ पर अपने अगले पड़ाव पर पहुंचने वाले थे। धीरे-धीरे हम काफी ऊंचाई पर पहुंच चुके थे और सूर्यास्त होने से ठण्डी बयारें शुरू हो गई थीं। अभी अंधियारा नहीं हुआ था, लेकिन माहौल में एक तरह की गूढ़ रम्यता थी। बीच में ही नदी किनारे चरने वाला जंगली याक का जोड़ा और उनके बच्चे हिलने वाले काले बिंब की तरह दिख रहे थे।

पड़ाव पर पहुंचे तो सामने कैलास का बीच-बीच में दर्शन हो रहा था। रात में निवास पत्थरों के कमरों और कुछ तम्बुओं में था। उसे देखते ही हममें से ऊपर पहुंचे कुछ लोग घबरा गए। चार-पांच लोगों को ऊंचाई की काफी तकलीफ होने लगी। एक महिला की हालत चिंताजनक हो गई। उसे आक्सीजन देना पड़ा। फोन कर सहायता मंगाई गई। इतनी ऊंचाई पर भी एम्बूलेंस बुलाकर उन्हें नीचे दारचेन ले जाकर अस्पताल में भर्ती कराया गया। केवल मनोरंजन के लिए आए पर्यटकों की हालत इस तरह होती है। शेरपा का कहना था कि परिक्रमा के पूर्व पैदल चलने की आदत डालना बहुत जरूरी है।

इस दौड़भाग में जिसके लिए आए उस कैलास को ठीक से देखना भी संभव नहीं हुआ। भोजन होने पर कुछ देर के लिए बाहर आया। तेज ठण्डी हवाएं चल रही थीं। यह पूर्णिमा के बाद का तीसरा दिन था और आकाश साफ होने से चंद्रमा सुंदर दिखाई दे रहा था। सामने कैलास पर्वत का बर्फ नीली आभा लिए शांत खड़ा था।

कैलास का रूप चारों दिशाओं में अलग-अलग दिखाई देता है। पूर्व दिशा की ओर से देखने पर वह स्फटिक जैसा दिखता है तो पश्चिम दिशा की ओर से देखने पर माणिक जैसा लालिमा लिए होता है, दक्षिण दिशा की ओर से देखने पर तेजस्वी लगता है और उत्तर की ओर से देखने पर सोने जैसा चमकता है। सुबह जगा तो बादलों के कारण सूर्यदर्शन हुआ ही नहीं और कैलास का अलग रूप दिखा ही नहीं। लौटे तब इतने बादल थे कि कैलास पर्वत दिखाई ही नहीं दिया। शेरपा ने बताया कि कल आकाश साफ होने से कैलास का जो दर्शन हुआ वह बहुत कम बार होता है।

रात में नींद आई ही नहीं। आसपास इतना बर्फ जमा हो गया था कि शेरपा ने कहा कि डोल्मा तक की अगली परिक्रमा अब संभव नहीं है और दूसरे दिन लौटती यात्रा शुरू हो गई। नदी में बर्फ के बड़े-बड़े ढेले बह रहे थे, आकाश काले-काले बादलों से भर आया था, पर्वतों के शिखर दिखाई नहीं दे रहे थे। हल्की-हल्की बारिश शुरू हो गई। अतः आते समय पैदल आए हम लोग खच्चरों पर बैठ कर सफर को तैयार हो गए। यह भी एक अनुभव था। मोलभाव कर दाम तय हुए यानी खच्चरों वाले जो मांग रहे थे वह देने को हम तैयार हो गए। बाद में लॉटरी डाल कर तय हुआ कि कौन किस खच्चर पर बैठेगा। एक शेरपा के हाथ में दो खच्चरों की लगाम थी। मैं और नितीन के खच्चरों की लगाम एक छोटी बच्ची के हाथ में थी। दोनों खच्चर अडियल थे, तिस पर वह लड़की लगातार मोबाइल पर बात कर रही थी। चायना मोबाइल ने कैलास की तलहटी तक सेवाएं उपलब्ध कराई हैं। जिनका इंटरनेशनल रोमिंग होगा उसका फोन चालू रहता है। लगातार मोबाइल पर बोलने के कारण कभी-कभी खच्चरों की लगाम उस लड़की के हाथ से छूट जाती थी और खच्चर इधर-उधर जाने लगते थे। किसी तरह चेक पोस्ट तक पहुंचे। हमें वहीं छोड़ दिया गया। वहां से घंटेभर चलकर यमद्वार को पहुंचे। खच्चरों पर बैठने से पैर अकड़ जाते हैं और इसके बाद पैदल चलना कठिन हो जाता है। इस आपाधापी में जेब से रुमाल निकालते समय कब चश्मा गिर गया इसका पता ही नहीं चला। यमद्वार से लौटते समय एकाध वस्तु या कपड़ा छोड़ आने की प्रथा है। सोचा, ठीक है अपना चश्मा ही वहां रह गया!

लौटती यात्रा

जिस आकर्षण और उत्सुकता से नियत कार्यक्रम के अनुसार यात्रा आरंभ हुई, उतने ही कष्ट से धीमे-धीमे लौटती यात्रा शुरू हुई। कारण था बदरिला मौसम और बारिश। हिल्सा पहुंच तो गए लेकिन तीन दिनों तक वहीं लटक गए। सभी परेशान हो गए। हेलिकॉप्टर आया तब भी उसमें केवल चार लोग ही जा सकते थे। हम तो कुल 40 लोग थे और हरेक को लौटने की जल्दी थी। कोठारी ग्रुप ने होमहवन का सभी सामान लाया था। उन्होंने कर्नाली नदी के तट पर होम किया। होम के दौरान कहे जाने वाले मंत्रों के लिए वे पुस्तक भी ले आए थे। हेलिकॉप्टर तीन दिन बाद आया। लौटते समय आपाधापी न हो इसके लिए लॉटरी डालकर पांच-पांच के समूह बनाए गए। पांच दिनों बाद सभी सिमिकोट पहुंचे।

वहां से आगे निकलना कठिन हो गया, क्योंकि इतने घने बादल और कोहरा था कि छोटी सी हवाईपट्टी भी दिख नहीं रही थी। काफी प्रयासों के बाद तीन दिनों बाद छोटा विमान आया और हमें नेपालगंज और वहां से उसी दिन काठमांडु पहुंचाया गया। इस हेलिकॉप्टर यात्रा पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं था। टूर चालक मनमानी करते थे। अपनी सुविधा से लोगों का लाना- ले जाना चलता था। जितना अधिक दिन मुकाम उतना खर्च बढ़ता जाता था।

भारत सरकार इस यात्रा के लिए क्या करती है, मैं नहीं जानता। लेकिन, मैंने जो कुछ देखा और सुना उससे पता चला कि चीन सरकार ही शांघाई से रेल्वे से ल्हासा और वहां से सड़क मार्ग से मानसरोवर तक पहुंचने की व्यवस्था कर रही है। कैलास मानसरोवर के प्रति भारतीयों के भारी आकर्षण के कारण इस यात्रा के जरिए चीन को बड़े पैमाने पर विदेशी मुद्रा प्राप्त करने में कोई दिक्कत दिखाई नहीं देती। भारत और नेपाल से खतरनाक मार्ग से यात्रा करने की अपेक्षा भक्त चीन से आराम से यात्रा करने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

आप धार्मिक हो या न हो, लेकिन कैलास मानसरोवर की यात्रा एक अविस्मरणीय अनुभव है। प्रकृति की भव्यता देखकर आपको एक आत्मिक संतोष और आनंद प्राप्त होता है।
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