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रसोईघर में इमली की तलाश

रसोईघर में इमली की तलाश

by भगवान वैद्य प्रखर
in नवंबर -२०१३, साहित्य
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मेरा मानना है कि राजनीतिक जीवन में विवादास्पद व्यक्तियों की जितनी अहमियत है उतनी ही गृहस्थी में पतियों के किचन प्रवेश की है। चर्चा में बने रहने के लिए गाहे-ब-गाहे दोनों जरूरी हैं। पहला न्यूज चैनल जीवंत बनाए रखता है तो दूसरा, किटी पार्टियों में इसीके चलते, मैं अवसर मिलते ही किचन में घुसपैठ कर लेता हूं। उस रोज भी यही हुआ। बेगम ने मायके जाने के पहले खाकसार के दो समय खाने का पुख्ता बंदोबस्त कर दिया था। पास के होटल से दिन में दो बार टिफिन आ जाया करता था और सब कुछ वैसा ही चल रहा था जैसा अनचाहे मेहमान और मेजबान के बीच चलता रहता है। होटल वाले एडवान्स लेकर मजबूर थे और मैं इस व्यवस्था के लिए अपनी सम्मति देकर।
बेगम आश्वस्त थी कि उनकी यह व्यवस्था मायके से उनकी वापसी तक मुझे उनके प्रति शतप्रतिशत निष्ठावान बनाए रखने में सफल होगी। वे मायके से होटल वाले को सीधे फोन करके मेरे टिफिन में चावल और चीनी से लेकर तेल और नमक तक की मात्रा नियंत्रित किए जा रही थीं ताकि मेरी तबीयत कोई बवाल खड़ा न करें और उन्हें ‘मायका-मिशन’ अधूरा छोड़कर लौटना न पड़े। उनकी इस निगरानी का नजीजा रंग ला रहा था।

बेगम को मायके जाकर चौंतीस दिन हो चुके थे और खाकसार का वजन चार ग्राम भी ऊपर-नीचे नहीं हुआ था। ऐसे में वाकई कोई जरूरत नहीं थी कि मैं कुम्हड़े की सब्जी पकाने जैसे किसी पचड़े में न पडूं। लेकिन पाण्डेयजी के बगीचे से सीधे मेरी रसोई में पहुंचकर कुंडली मारे बैठे कुम्हड़े ने मुझे मजबूर कर दिया था। छुट्टा सांड की तरह दिखाई देने वाला भारी-भरकम वजन का कुम्हड़ा मुझे जब तब ऐसे घूरता जैसे मुझ पर निगाह रखने के लिए बेगम ने अपने भाई को ‘सीएजी’ (कंट्रोलर ऑफ ऑडिटर जनरल) बनाकर कर रसोई में डेप्युट कर रखा हो। मैं पानी लेने के लिए भी रसोई में जाऊं तो मटके या गिलास पर नजर बाद में पड़ती थी, कुम्हड़े पर पहले।

इत्तिफाक से रविवार था। निर्मलजी भी अकेले ही हैं घर पर। फोन करते ही वे आ गए। उन्हें कुम्हड़े की सब्जी पकाने के अपने इरादे के बारे में बताया तो वे ऐसे खुश हो गए जैसे मैंने उन्हें राखी सावंत के किसी कार्यक्रम की फ्री-पास ऑफर की हो। उन्होंने आनन-फानन कुम्हड़े की सब्जी की पूरी रेसीपी बखान कर दी। मैंने पूछा, ‘लगता है, घर में कुम्हड़े की सब्जी आप ही पकाते हैं!’

‘जी, मैं स्वयं नहीं पकाता पर जब भी श्रीमतीजी कुम्हड़े की सब्जी पकाती हैं, मुझे उनके सहायक के रूप में ड्यूटी बजाना अनिवार्य होता है।’
‘तब छौंक आप लगाएंगे या मैं लगाऊं?’

‘आप की इजाजत हो तो मैं लगा देता हूं छौंक। इसमें मेरा छोटा-सा स्वार्थ भी है।’
‘कैसा स्वार्थ?’
‘जी, पंदरह साल हो गए सहायक के रूप में सेवाएं देते हुए लेकिन खुद छौंक लगाने का अवसर कभी नहीं मिला। जब भी प्रस्ताव करता हूं, श्रीमतीजी यह कहकर हतोत्साहित कर देती है कि यह दफ्तर में फाइल पर नोट लिखने जितना आसान नहीं है। लेकिन आज मैं साबित कर देना चाहता हूं कि इस मामले में मैं किसी फाइव-स्टार शेफ से कम नहीं हूं।’

‘शाब्बास!’ कहकर मैंने गैस के ओटे से सटी हुई रैक में से मसाले का तेरह कटोरे वाला डिब्बा खोलकर प्रस्तुत कर दिया। हल्दी और हींग से लेकर काली मिर्च और दाल चीनी तक सब एक झटके में हाजिर हो गए। अदरक, लहसून और रेसीपी का शेष साहित्य जुटाना शुरू हो गया। उधर, निर्मलजी कुम्हड़ा हलाल करने में मगन हो गए थे जैसे जुए में जब्त रकम का बंटवारा करने में जुटा थानेदार हो। उसके बाद निर्मलजी ने सारी सामग्री पर एक नजर डाली और कुरते की बांहें ऊपर करके कढ़ाई गैस पर चढ़ाने ही वाले थे कि सहसा उन्हें कुछ याद आ गया। कहने लगे, ‘भाईसाहब, सामान में एक चीज निकालने की तो छूट ही गई।’

‘कौन सी चीज! आपने जो कहा, वह सब तो जुटा लिया है भाई।’- मैंने कहा।
‘इमली रह गई है जनाब। बिना इमली के कुम्हड़े की सब्जी तो वैसे ही है जैसे बिना साली के ससुराल।’
‘अच्छा, मैं इमली तलाशता हूं। तब तक आप सब्जी बनाना शुरू कीजिए।’
‘नहीं भाईसाहब, इमली को भिगोकर रखना पड़ता है। थोड़ी देर भग जाए तब कहीं सब्जी में डाली जा सकती है।’
‘ठीक है, मैं इमली ढूंढता हूं। तब तक आप दो कप चाय बना लीजिए। मुझे पता है, आप चाय अच्छी बना लेते हैं।’

‘ठीक है भाईसाहब, श्रीमतीजी को अब तक मैं सैंकड़ों कप चाय पिला चुका हूं लेकिन उसने एक बार भी तारीफ नहीं की जबकि आपने पता नहीं कब पी थी मेरे हाथ की चाय…!’
‘पी नहीं अलबत्ता जानता जरूर हूं। क्योंकि मेरी श्रीमतीजी किटी-पार्टी में जब भी अपनी बदनसीबी की गजल सुनाती है तब गजल काफिया यही होता है कि इनको तो एक कप चाय तक ढंग से बनानी नहीं आती।’ जबकि भाभीजी यानी मिसेज निर्मल यह कह कर पूरा ‘मुशायरा’ अपने नाम कर लेती हैं कि वैसे चाहे किसी काम के न हों पर, निर्मलजी चाय गजब की बना लेते हैं। इसलिए जब कभी कोई मेहमान आते हैं तब किसी न किसी बहाने भीतर बुलाकर चाय तो मैं इन्हीें से बनवाती हूं।’

प्रशंसा से मुग्ध होकर निर्मलजी चाय बनाने में जुट गए। मैंने इमली की चाह में किचन की पहली रैक का पहला डिब्बा उठाया तभी मुझे मेरी अपनी बीस साल की गृहस्थी के कुछ निचोड़ याद आ गए। उनमें पहला है, ‘किचन में जो चीज जहां रखी है ऐसा मानकर चलोगे वो वहां कभी नहीं मिलेगी।’ दूसरा निचोड़ है, ‘जो चीज पहले जहां रखी मिली थी वो अगली बार वहां कभी नहीं मिलेगी।’ तीसरा निचोड़ यह है, ‘जिस चीज की तलाश हो उसका रिटेलर-डिब्बा आपने अगर ढूंढ भी लिया और वह अगर खाली निकला तो उसका होलसेलर-डिब्बा तभी मिलेगा जब उस चीज के बिना काम चला लिया जाएगा या उस चीज की आपकी इच्छा स्वर्ग सिधार जाएगी।’

मैंने सारे अनुभव दांव पर लगाए और उलटे सिरे से रैक का एकेक डिब्बा खोलना शुरू किया। इस प्रयास के शतप्रतिशत विफल साबित होने के बाद मैंने दूसरी, तीसरी और चौथी रैकों पर दांव लगाया। रैकों में सैंकड़ों डिब्बे थे। छोटे-बड़े, रंग-बिरंगे, प्लास्टिक, कांच, चीनी, विभिन्न धातु और कंटेनर उद्योग में कार्यरत दुनियाभर की कम्पनियों द्वारा निर्मित। ख्याल आया, ‘किचन कंटेनर से सम्बंधित किसी विषय पर पीएच.डी. करने वालों के लिए मेरा रसोईघर अच्छा-खासा ‘लैब’ साबित हो सकता है। डिब्बों में वर्षों से समाधिस्थ कई चीजों से मेरा साक्षात्कार हुआ। मसलन, हनीमून के लिए गए थे तब गोवा से ‘उत्कृष्ट दर्जे’ का समझकर खरीदा हुआ घटिया काजू, दस साल पहले केरल पर्यटन के दौरान ‘ताजा’ के चक्कर में खरीदे गए लेकिन रखे-रखे फॉसिल बन चुके मसाले के पदार्थ, बेहतरीन की तलाश में शिर्डी से हर बार खरीदकर ‘डम्प’ की गई भांति-भांति की सस्ती-महंगी किशमिश, पुरानी राजनीतिक पार्टियों की तरह अपनी पहचान खो चुकीं कई तरह की चाय-पत्ती, नरक की यातनाएं भुगत रहीं बेर और आंवले की पाउडर, एक बड़ा-सा डिब्बा खोला तो इक्कीस नारियल से साक्षात्कार हो गया। सब के सब आलूबुखारे के आकार के। मेरी पचमढ़ी यात्रा ताजा हो गई। मैंने श्रीमतीजी से पूछा था, ‘आखिर इत्ते छोटे-छोटे नारियल खरीदकर क्या करोगी? और वह भी एक-दो नहीं बल्कि पूरे बाईस!’ जवाब था, ‘एक अपनी शो-केस में रखूंगी और बाकी आगामी संक्रांत में सुहागिनों को भेंट करके सरप्राइज दूंगी।’ आपको बता दूं, तब से आज तक ग्यारह मर्तबा संक्रांत आकर चली गई है। शो-केस के हिस्से में आया एक नन्हा नारियल पचासों मर्तबा मुझ से अपने सहोदरों का पता पूछ चुका है।

कुछ चीजें ऐसी भी मिलीं जो सालारजंग म्यूजियम में रखी चीजों से भी दुर्लभ और सिंधू-संस्कृति की खोज में मिली वस्तुओं से अधिक हैरतअंगेज लग रही थीं और जिन्हें श्रीमतीजी शायद अपनी स्मुति में बेदखल कर चुकी थीं। मसलन, प्लास्टिक के एक डिब्बे में दो किलो के लगभग ऐसी जीच दृष्टिगोचर हुई जो डिब्बे के साथ पूरी तरह एकाकार हो चुकी थी। यह समझ पाना कठिन था कि डिब्बे की सीमा कहां समाप्त होती है और वस्तु कहां से आरंभ होती है। बीस डिब्बे आगे निकल गया तब याद आया कि उस डिब्बे में रखी वह वस्तु और कुछ न होकर सात साल पहले लाए हए मथुरा के प्रसिद्ध पेड़े थे जो विदर्भ की गर्मी सहते-सहते सीमेंट का डिब्बाकार पाषाण बन चुके थे। एक एअरटाइट डिब्बे में अवस्थित वस्तु की पहचान के लिए जब सारे ज्ञानेंद्रियों ने जवाब दे दिया तब मुझे अपनी जिह्वा को दांव पर लगाना पड़ा। उसके बिना यह समझ पाना कठिन था कि मैं जिसे गोंद समझ रहा हूं वह मुरमुरे के लड्डू बनाने के लिए आठ साल साल पहले तामिया (मध्यप्रदेश) से लाया हुआ खास किस्म की चिकी वाला गुड़ है। एक रैक की सबसे पीछे वाली पंक्ति में बड़े-छोटे बीस डिब्बे मिले जिनमें अलग-अलग समय पर खरीदे गए बादाम, पिस्ता, खजूर, अंजीर, अखरोट नामक सूखे मेवे समाधिस्थ थे। उनकी शक्ल को देखकर लगता था जैसे वे इजिप्त के पिरामिड में किसी ‘ममी’ के साथ गई वस्तुएं हों। कई डिब्बों में कैद रवा, पोहा पुरातत्व विभाग के कुतुहल का विषय बन चुके थे।जी हां, ये सब खूब मिला, लेकिन वो नहीं मिली जिसकी तलाश में मैं पसीना-पसीना हो चुका था। अर्थात, इमली!

भारत-श्रीलंका के बीच क्रिकेट मैच का समय हो चुका था। चाय का कप लेकर निर्मलजी ड्राइंग रूम में टीवी देखने चले गए थे। वे लौटे तो कहने लगे, ‘भाईसाहब, भारत के बीस ओवर फेंके जा चुके हैं। शायद आपके यहां इमली होगी ही नहीं। आप मैच देखिए, मैं अपने घर से इमली लेकर आता हूं।’ मैंने कहा, ‘निर्मलजी, श्रीमतीजी के मायके जाने के एक सप्ताह पहले ही मैं इतवारी बाजा से दो किलो इमली खरीद कर लाया था और वे और चाहे जो लेकर मायके गई हों पर इमली लेकर कदापि नहीं जाएंगी क्योंकि वहां इमली की कोई जरूरत नहीं है। जिस घर के प्रत्येक सदस्य के स्वभाव में इमली से पचास गुना अधिक खटास मौजूद हो वहां भला इमली की क्या बिसात! बहरहाल, आप अपने घर से ले आइए। मैंने एक बार फिर पसीना पोंछा और क्रिकेट मैच देखने बैठ गया।

निर्मलजी लौटे तब श्रीलंका का बीसवां ओवर चल रहा था। उन्हें खाली हाथ लौटा देख मैंने पूछा, ‘क्या हुआ, इमली नहीं मिली?’
‘इमली आ रही है।’
‘वर्माजी का लड़का अखबार मांगने आया था। मैंने उससे कहा है अपने घर से इमली लाकर देने के लिए। मैं भी पिछले हफ्ते ही खरीद कर लाया था लेकिन मिसेज ने पता नहीं कहां रख दी है।’
‘तो तब तक हम लोग शुरू कर सकते हैं न सब्जी बनाना। इमली ऊपर से डालकर एक उबाल ले आएंगे।’
‘चलेगा।’ कोई और पर्याय न देखकर निर्मलजी ने सम्मति दर्शाई और सब्जी बनाने की प्रोसेस शुरू हो गई। निर्मलजी अपने सैद्धांतिक ज्ञान को व्यावहारिक आयाम देने में जुट गए और मैं किचन की एकेक रैक को थके हुए यात्री की तरह निहारते हुए स्मरण करने लगा कि मुझे किस स्थान पर, किस डिब्बे में, किस चीज के, किस ऐतिहासिक रूप में दर्शन हुए थे। इस बीच वर्माजी का पुत्र एक कटोरी में कोई लेकर आया। कहने लगा, ‘मम्मी मंदिर गई है। पापा को इमली तो नहीं मिली पर उन्हें फ्रीज में रखी इमली की यह पेस्ट हाथ लग गई।’
मैं पेस्ट निर्मलजी के हवाले कर ड्राइंग रूम में आया कि फोन बजा। मायके से बेगम साहिबा बोल रही थीं। तबीयत और मौसम की गैरजरूरी जानकारी के आदान-प्रदान के बाद मैंने साहस करके पूछ ही लिया, ‘वो इमली कहां रखी है?’
‘क्यों इसकी आपको क्या जरूरत पड़ गई?’

‘वो सामने वाली शर्मा आंटी का नौकर आया था इमली मांगने। मैंने कह दिया, ‘भई किचन में कहां क्या रखा है, मुझे नहीं पता’-मैंने चालाकी से जवाब दे दिया।

‘अरे, दे देनी थी न। वो बेचारी कभी-कभार ही तो कुछ मांगती है। आज रविवार है न, दही-बड़े बना रही होंगी।’
‘लेकिन कहां रखी है यह पता हो तब न।’

‘वहीं तो है। चावल स्टोर करके रखने का वो बड़ा ड्रम खाली पड़ा था न, उसमें मैंने सिवई-पापड़ भरकर रख दिए हैं। जल्दी में, इमली का पैकेट भी उसीमें छोड़ दिया था। आने के बाद साफ करके सुखाऊंगी तब इमली के डिब्बे में भरकर रख दूंगी।’
मुझे अफसोस इस बात का है कि मैंने इमली की तलाश में किचन के शतप्रतिशत डिब्बे ढूंढ लिए थे, उस चावल स्टोर कर के रखने के ड्रम को छोड़कर।

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