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इतिहास के अन्याय के शिकार  महाराजा हरि सिंह

इतिहास के अन्याय के शिकार महाराजा हरि सिंह

by डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
in दिसंबर -२०१३, देश-विदेश
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महाराजा हरि सिंह जम्मू-कश्मीर में डोगरा राजवंश के अंतिम राजा थे। भारत से अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत डोमिनियन के क्षेत्रफल में स्थित पांच सौ पचास से भी ज्यादा इंडियन स्टेट्स ने पन्द्रह अगस्त 1947 से पहले-पहले शासन की राजतांत्रिक व्यवस्था को त्याग कर देश की नई लोकतांत्रिक शासन पद्धति को स्वीकार करने का निर्णय कर लिया था। लेकिन जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने यह निर्णय 26 अक्तूबर 1947 को तब किया जब पाकिस्तान की सहायता से सीमान्त प्रांत के कबायलियों ने राज्य पर आक्रमण कर दिया।

भारत विभाजन से पूर्व देश में दो प्रकार की प्रशासनिक/सांविधानिक व्यवस्था प्रचलित थी।
(क) ऐसा भू-भाग जिसका शासन लंदन से इंग्लैंड की सरकार चलाती थी। इसे आम भाषा में ‘ब्रिटिश इंडिया’ कहा जाता था।
(ख) ऐसा भू-भाग जिसके अलग-अलग हिस्सों पर स्थानीय राजाओं- महाराजाओं का आनुवांशिक शासन था। इस भू-भाग को इंडियन स्टेट्स कहा जाता था। भारत का एक तिहाई भू-भाग इस प्रकार की राजशाही से शासित था।
सूत्र रूप में इसे इस प्रकार लिखा जा सकता है – (क) +(ख) =भारत।

अंग्रेज शासकों ने अनेक कारणों से (क) भू-भाग को विभाजित करके एक नया देश पाकिस्तान बना दिया। नये बने पाकिस्तान के भू-भाग को यदि सूत्र रूप में (ग) मान लिया जाये तो विभाजन के बाद भारत का अर्थ रह गया-(क-ग)+(ख)=भारत।

(ख) भाग के अन्तर्गत आने वाली सभी रियासतों से लंदन सरकार के भी समझौते थे, जिनके अन्तर्गत मोटे तौर पर इनकी सुरक्षा, संचार और विदेशी मामलों की देखभाल दिल्ली स्थित ब्रिटिश सरकार ही देखती थी। हर रियासत में ब्रिटिश सरकार का एक रेज़ीडेंट अधिकारी रहता था। भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में लंदन सरकार ने (ख) भाग की सभी रियासतों से ये समझौते समाप्त कर दिये और इस भू-भाग से भी अपना अधिराजत्व समाप्त कर दिया। 15 अगस्त 1947 से भारत सरकार अधिनियम 1935 को आवश्यक संशोधनों सहित भारत का अंतरिम संविधान घोषित कर दिया गया। इस अधिनियम में प्रावधान किया गया कि (ख) भाग की रियासतें (क) या (ग) भू-भाग में मिल सकती हैं। यद्यपि इन दोनों भागों की रियासतें इंडियन स्टेट्स ही थीं और भारत ही उत्तराधिकारी राज्य था, लेकिन फिर भी जो रियासतें भूगोल के हिसाब से पाकिस्तान को दिये गये भू-भाग में स्थित थीं, वे पाकिस्तान में ही रह सकती थीं।

भारत का विभाजन चाहे 15 अगस्त 1947 को हुआ लेकिन उसकी चर्चा बहुत अरसा पहले ही शुरू हो गई थी। मई मास में तो लगभग स्पष्ट हो ही गया था कि ब्रिटिश भारत दो हिस्सों में बंटेगा। जहां तक भारतीय रियासतों को मामला था, उनके भारत डोमिनियन की सांविधानिक व्यवस्था से एकीकृत हो जाने की चर्चा 1935 में ही शुरू हो गई थी। भारत सरकार अधिनियम 1935 में इसकी व्यवस्था है। भारतीय प्रांतों में अलग प्रशासनिक व्यवस्था थी और भारतीय रियासतों में अलग प्रशासनिक व्यवस्था थी। भारतीय प्रांतों का शासन सीधे सीधे लंदन सरकार चलाती थी और भारतीय रियासतों का प्रशासन स्थानीय शासक चलाते थे। कुछ सीमा तक भारतीय रियासतों और भारतीय प्रांतों यानि ब्रिटिश भारत का शासन एकीकृत भी था। संचार, विदेश सम्बध और कुछ सीमा तक सुरक्षा का जिम्मा केन्द्रीय सरकार के पास ही था। इसके लिये भारतीय रियासतों और केन्द्रीय भारतीय प्रशासन में कुछ समझौतों के तहत आम सहमति बनी हुई थी। 1935 के अधिनियम में इस एकीकरण और समान प्रशासनिक व्यवस्था हेतु कुछ और पग उठाये जाने की बात थी। वैसे किसी न किसी रूप में देश भर में जनान्दोलन चल ही रहे थे कि पूरे देश को लन्दन सरकार व स्थानीय शासकों से मुक्त करवा कर, पूरे देश के लिये एक समान प्रशासनिक और सांविधानिक व्यवस्था लागू की जाये। देश के जिस हिस्से पर लंदन सरकार का शासन था, वहां ऐसा जनान्दोलन कांग्रेस चला रही थी और जिन हिस्सों पर स्थानीय प्रशासकों का शासन था, वहां ऐसे आन्दोलन प्रजामंडल चला रहे थे।

ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताकतें भारत को विभाजित करने के बाद भी संतुष्ट नहीं हुई थीं। वे भारत का और भू-भाग पाकिस्तान को देना चाहती थीं। उसकी गिद्ध दृष्टि जम्मू-कश्मीर पर थी। जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान को देने में ब्रिटिश अमेरिकी कूटनीति के अपने साम्राज्यवादी हित थे। साम्राज्यवादी हितों के लिये ब्रिटेन को लगता था कि यदि पूरा जम्मू-कश्मीर राज्य नहीं तो कम से कम कश्मीर घाटी और उत्तरी क्षेत्र तो हर हालत में पाकिस्तान के पास जाने ही चाहिये। दरअसल ब्रिटेन के कूटनीतिज्ञों ने महाराजा प्रताप सिंह के शासन काल में ही उन्हें गद्दी से हटाने का षड्यंत्र बुन लिया था। इस गुप्त योजना के तहत महाराजा पर विदेशी शासन से सांठगांठ का आरोप लगा कर उनकी सत्ता एक कौंसिल ऑफ रीजैंसी को सौंप देने की बात थी। महाराजा सचमुच ही गद्दी से हटा दिये जाते, लेकिन कोलकाता से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘अमृत बाजार पत्रिका’ ने ‘कंडैम्ड अनहर्ड’ शीर्षक से एक लेख के जरिए अंग्रेजों के इस कुचक्र का पर्दाफाश कर दिया। इस रहस्योद्घाटन से ब्रिटिश संसद में इतना बवाल मचा कि लंदन को अपनी योजना रद्द करनी पडी। (आत्मकथा 30)। मुस्लिम कान्फ्रेंस और बाद में नैशनल कान्फ्रेंस ने जब डोगरा शासन के खिलाफ आन्दोलन चलाया तो उसमें मुख्य मुद्दा प्रशासन सम्बधी समस्याओं को लेकर नहीं बनाया गया था बल्कि 1876 की अमृतसर सन्धि को लेकर बनाया गया। शेख अब्दुल्ला की भी और मुस्लिम कान्फ्रेंस की भी मांग 1876 की सन्धि रद्द करने को लेकर थी।

ब्रिटिश कूटनीति उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से ही यह बनने लगी थी कि किसी तरह जम्मू-कश्मीर पर क़ब्ज़ा कर लिया जाये ताकि विभाजन के समय उसे आसानी से पाकिस्तान में शामिल किया जा सके। इसके लिये महाराजा प्रताप सिंह के समय से ही साजिश शुरू हो गई थी। गिलगित भी किराये पर लेने के पीछे मक़सद यही था। लेकिन 1947 तक आते आते यह कार्य पूरा नहीं हो सका। विभाजन से कुछ समय पहले ब्रिटिश सरकार ने गिलगित रीजैंसी महाराजा हरि सिंह को वापिस कर दी। इसके पीछे भी मक़सद साफ था। यदि विभाजन के बाद भी अंग्रेज सरकार उसे अपने पास रखती और बाद में स्वयं पाकिस्तान के हवाले करती तो उसकी नीयत नंगी हो जाती। इसलिये यह नई रणनीति बनी।

अब महाराजा हरि सिंह पर दबाव बनाया जा रहा था कि रियासत को किसी भी तरह उस हिस्से से जोड़ा जाये, जिसे काट कर पाकिस्तान नाम दिया गया है। अंग्रेज़ सरकार के पास तर्क तो था ही। पाकिस्तान को मुस्लिम बहुमत के आधार पर अलग किया गया और जम्मू-कश्मीर में भी मुसलमान बहुमत में हैं, इस लिहाज़ से उसे भारत से अलग किये गये हिस्से पाकिस्तान के साथ जाने चाहिये। इसके लिये उस समय के वायसराय लार्ड माऊंटबेटन, जो बाद में स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल भी रहे , 15 अगस्त से पहले चार दिन श्रीनगर जा कर बैठे रहे और महाराजा को मानचित्रों की सहायता से पाकिस्तान में मिल जाने हेतु समझाते रहे। 15 अगस्त के बाद भी वे चुप नहीं बैठे। उसके बाद उनका सचिव ग्रेसी महाराजा के पास पाकिस्तान की माला जपता रहा। उधर कराची से पाकिस्तान के क़ायदा-ए-आज़म जिन्ना के दूत श्रीनगर आकर महाराजा को पाकिस्तान में शामिल होने के लिये समझाने के साथ साथ धमकाते भी रहे। महाराजा की सेना के मुखिया जनरल स्काट पहले ही पाकिस्तान के लिये मोर्चा सजा चुके थे और राज्य के प्रधानमंत्री राय बहादुर सर पंडित रामचन्द्र काक, जिनकी पत्नी अंग्रेज थी, पाकिस्तान के निरन्तर सम्पर्क में थे ही, साथ ही स्वतंत्र कश्मीर के लिये भी विसात बिछा रहे थे।

उधर शेख अब्दुल्ला रट लगा रहे थे कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान में जायेगा या हिन्दुस्तान में ही बना रहेगा, इसके निर्णय वे स्वयं करेंगे, लेकिन निर्णय से पहले महाराजा हरि सिंह को हटाना पहली शर्त है। हठ अभी तक लार्ड माऊंटबेटन ने भी नहीं छोड़ा था।

महाराजा हरि सिंह की अपनी समस्याएं थीं। इसमें कोई संशय नहीं कि वे यक़ीनन भारत में ही बने रहना चाहते थे लेकिन दिल्ली में किसी के पास इतना समय ही नहीं था कि जम्मू कश्मीर की ओर ध्यान देता। उन दिनों के रियासती मंत्रालय, जिसके पास सभी रियासतों को नई संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में एकीकृत करने का ज़िम्मा था, के सचिव वी पी मेनन लिखते हैं कि सच्चाई तो यह थी कि हम अन्य समस्याओं से ही इतने घिरे हुये थे कि हमारे पास कश्मीर पर विचार करने का समय ही नहीं था। लगभग यही राय मेहर चन्द महाजन की बनी थी। उनके अनुसार, जहां तक भारत सरकार का ताल्लुक था, उसकी कश्मीर को लेकर कोई रणनीति या योजना नहीं थी। अलबत्ता यदि महाराजा स्वयं पहल करते तो संघीय सरकार को किसी राज्य को नई व्यवस्था में शामिल कर लेने में कोई एतराज़ न होता। (मेहर चन्द 131)

लेकिन इस स्थिति में भी एक एतराज़ था। हरि सिंह भारत में ही रहने का प्रस्ताव दिल्ली भेजते थे तो उधर से नेहरू का रटारटाया जवाब आ जाता था, शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दो। ऐसा कहा जाता है कि, विभाजन से एक मास पूर्व जुलाई में महाराजा ने अपने प्रधानमंत्री पंडित काक को रियासत के भारत में विलय की शर्तों की बात करने के लिये दिल्ली भेजा। लेकिन दिल्ली में काक को स्पष्ट बता दिया गया कि लोगों की इच्छा जाने बिना विलय का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जायेगा। दिल्ली के लिये उन दिनों लोगों की इच्छा का अर्थ था शेख अब्दुल्ला। (ऋर्रीश्रींश्रळपश घरीहाळी 144)। ताज्जुब था कि नेहरू देश भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था के हामी थे लेकिन जब जम्मू-कश्मीर की बात आती थी तो कश्मीर घाटी के भी केवल कश्मीरी भाषा बोलने वाले मुसलमानों के नेता शेख को बिना किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सत्ता दिलवाना चाहते थे। शेख को जेल से छोड़ने के बाद , महाराजा ने एक बार फिर दिल्ली को, विलय का प्रस्ताव भेजा। इस बार महाराजा अपने लिये केवल कुछ सुविधाजनक स्थिति चाहते थे। लेकिन नेहरू ने इस बार भी महाराजा का प्रस्ताव ठुकरा दिया। (ऋर्रीश्रींश्रळपश घरीहाळी 144) अलबत्ता महाराजा के विरोधियों ने दिल्ली में ये अफवाहें अवश्य फैलानी शुरू कर दीं कि कि महाराजा स्वतंत्र रहना चाहतें हैं। प्रधानमंत्री रामचन्द्र काक की गतिविधियां भी इन अफवाहों को बल दे रही थीं। जैसे ही महाराजा को काक के असली चरित्र की भनक लगी, उन्होंने तुरंत रामचन्द्र को फारिग कर दिया और लाहौर स्थित पंजाब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश मेहर चन्द महाजन को प्रधानमंत्री नियुक्त किया।

इसमें कोई शक नहीं कि नेहरू जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान में शामिल होने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन वे महाराजा हरि सिंह से राज्य द्वारा संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकारने का आग्रह करने की बजाय शेख को गैर लोकतांत्रिक ढंग से सत्ता दिलवाने में ज्यादा रुचि रखते थे। जब नये प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन, 12 अक्तूबर 1947 को नई दिल्ली से श्रीनगर में आये तो नेहरू ने उनके हाथ हरि सिंह के लिये यह संदेश भेजा कि जेल से रिहा हुये शेख को दिल्ली जाने की अनुमति दी जाये। (मेहर चन्द महाजन 129) नेहरू ने पहले दिन से ही हरि सिंह को अपना शत्रु घोषित कर दिया था। जिन दिनों सरदार पटेल दूसरी रियासतों के शासकों को मानमनौवल से देश की नई संघीय लोकतांत्रिक पद्धति का हिस्सा बनने के लिये मना रहे थे, उन्हीं दिनों नेहरू हरि सिंह जैसे स्वाभिमानी शासक को अपमानित करके पदच्युत करना चाह रहे थे।

शेख के विरोधी, ज़ाहिर है, पाकिस्तान की जयजयकार करने लगे थे। मुस्लिम कान्फ्रेंस महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने का दबाव बना रही थी। मेहर चन्द महाजन के अनुसार चितराल और हुंजा के सरदार बार-बार महाराजा को तार भेज रहे थे कि पाकिस्तान में शामिल हो जायें। लेकिन शेख भी कच्ची गोलियां नहीं खेले थे। उन्होंने भी अपने सभी विकल्प खुले रखे हुये थे। विभाजन के उपरान्त उपजी अनिश्चितता में वे भी अपने लिये बेहतर चरागाहों की तलाश में निकल चुके थे। जिन्ना शेख को घास नहीं डालते थे, यह कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं था। इसे शेख भी अच्छी तरह जानते थे। लेकिन फिर भी उन्होंने बदले हालत में जिन्ना के दरबार में अपने दलील भेजने में देर नहीं की। उन्होंने अपने दो विश्वस्त साथी बख्शी गुलाम मोहम्मद और गुलाम मोहम्मद सादिक को कराची की ओर रवाना कर दिया। यह अलग बात है कि इन्हें पाकिस्तान सरकार ने जिन्नाह से मिलने के काबिल भी नहीं समझा। शेख और उनकी नैशनल कान्फ्रेंस इस स्थिति में भारत की नई व्यवस्था में शामिल होने के पक्षधर थे, लेकिन वे इसकी क़ीमत चाहते थे। और वह क़ीमत थी, रियासत की गद्दी।

उस समय महाराजा हरि सिंह अजीब दुविधा में थे। पाकिस्तान वे जाना नहीं चाहते थे और नेहरू भारत में उन्हें रहने देने के लिये तभी तैयार थे जब तक वे सिंहासन ख़ाली करके वहां शेख अब्दुल्ला का राजतिलक कर दें।

पाकिस्तान नेहरू के इस हठ को समझ गया था। वह समझ गया कि नेहरू बिना शेख को गद्दी पर देखे महाराजा हरि सिंह को भारत में रहने की इजाज़त नहीं देंगे और हरि सिंह किसी भी हालत में शेख अब्दुल्ला की ताजपोशी के लिये मानेंगे नहीं। जब हरि सिंह ने रामचन्द्र काक को हटाया तभी पाकिस्तान समझ गया था कि महाराजा न तो राज्य को स्वतंत्र देश बनाना चाहते हैं और न ही पाकिस्तान में आना चाहते हैं, वे हर हालत में हिन्दुस्तान में ही बने रहेंगे। शेख की ताजपोशी को लेकर विवाद भी ऐसे ही चलता रहेगा। पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बनाने के लिये दूसरा रास्ता चुना। बल प्रयोग का रास्ता। उसने सीमान्त प्रान्त के जनजाति समाज के लोगों को आगे करके जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया। पंडित नेहरू के एक विश्वस्त साथी चेलापति राव के शब्दों में ही, 24 अक्तूबर की रात को कश्मीर राज्य की ओर से पहली बार रियासत के भारत में विलय और सैनिक सहायता की प्रार्थना की गई। ( च लहशश्रररिींळ ठरे 329)। लेकिन नेहरू ने तब भी उसे तुरंत स्वीकार नहीं किया। बैठकों की लम्बी प्रक्रियाएं चलीं। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से नेहरू का हठ ठीक वहीं टिका हुआ था। सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपो। 25 अक्तूबर को रियासती मंत्रालय के सचिव वी पी मेनन श्रीनगर आये। तब तक पाकिस्तानी सेना या उसके कबायली बारामूला तक पहुंच गये थे। श्रीनगर महज कुछ मील दूर रह गया था। हमलावर लूटपाट कर रहे थे और कत्लेआम में लगे हुये थे। राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में राज्य की सेना अंतिम सैनिक के जिन्दा रहने तक की लड़ाई में प्राण न्यौछावर कर रही थी। महाराजा स्वयं रणभूमि में जाने के बारे में सोच रहे थे। वे किसी भी हालत में राजधानी छोड़ कर नहीं गये थे। वी पी मेनन को डर था कि कहीं महाराजा का कबायलियों द्वारा अपहरण न कर लिया जाये। इसलिये उन्होंने महाराजा से तुरंत जम्मू चले जाने का आग्रह किया। भारत में अधिमिलन का प्रस्ताव भी मेनन के हाथ एक बार फिर दिल्ली भेजा। लेकिन सत्ता शेख अब्दुल्ला को नहीं दी गई थी। नेहरू ने इस प्रस्ताव पर विचार नहीं किया। उधर हमलावर श्रीनगर के करीब पहुंच गये थे। 26 अक्तूबर को वी पी मेनन फिर जम्मू आये। अबकी बार महाराजा ने चिट्ठी लिख दी कि शेख अब्दुल्ला को आपात प्रशासक बना कर सत्ता के सिंहासन पर बिठा दिया जायेगा। महाराजा को इस बात का श्रेय जायेगा कि उन्होंने पाकिस्तान की यह चाल विफल करने के लिये नेहरू की शर्त मान कर शेख अब्दुल्ला को आपात् प्रशासक नियुक्त कर दिया लेकिन पाकिस्तान में शामिल नहीं हुये। पाकिस्तान में जाने से बेहतर था नेहरू के हाथों पराजित हो जाना। यह घर की लड़ाई थी।

उधर पाकिस्तानी सेना ने अब तक पाकिस्तान राज्य के काफ़ी भू-भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया था। शेख को आपात प्रशासक नियुक्त करवाकर नेहरू ने सेना जम्मू-कश्मीर में भेज दी। शुरू में माऊंटबेटन ने इसमें भी अडंगे लगाने की कोशिश की लेकर सरदार पटेल की सख़्ती के आगे उनकी कुछ न चली। अलबत्ता बाद में महाराजा को इस बात से बहुत निराशा हुई कि सेना द्वारा सारे राज्य से पाकिस्तानी सेना को हटाने से पहले ही नेहरू ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। इतना ही नहीं, जिसे घर की लड़ाई मान कर महाराजा हरि सिंह ने अपने मान अपमान की भी परवाह न करते हुये नेहरू की हर शर्त मान ली थी, वही नेहरू विदेशियों के कहने पर इस घर की लड़ाई को बाहर के अखाड़े संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये।
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