नालंदा का पुनरुद्धार

हमारा अतीत बड़ा ही समृद्ध, वैभव से भरा और गौरवशाली रहा है। यह पुण्यभूमि प्रसिद्ध है और इसके निवासी आर्य हैं, विद्या कला कौशल्य में सबसे प्रथम आचार्य हैं। आज हमारे छात्र ऊंची पढ़ाई के लिये विदेशी आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों में जाते हैं, लेकिन अतीत में भारत में नालंदा तथा तक्षशिला जैसे गुरुकुलों अर्थात विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा के लिए विदेशी छात्र आते थे। यहां आने वाले देशों के छात्रों में रूस, चीन, जापान, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपीन, बर्मा, जावा, सुमात्रा और श्रीलंका का समावेश रहता था। यही नहीं, ईरान, इराक, पास के खाड़ी देशों के छात्र भी हुआ करते थे। भारत को शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता था। इस देश को गुरू के रूप में जाना जाता था। यहां भौतिकी, रसायनशास्त्र, वनस्पति विज्ञान, गणित, दर्शन शास्त्र, अध्यात्म की ऊंची से ऊंची शिक्षा दी जाती थी। बहुत से देशों के छात्र यहां आकर यहां के हो जाते थे और जो अपने देश वापस जाते थे, वे वहां शिक्षा केन्द्रों की स्थापना कर वहां अपने छात्रों को यहां से मिली शिक्षा में निष्णात बनाते थे।

इस संदर्भ में बिहार प्रदेश के नालंदा विश्वविद्यालय का जिक्र करना चाहूंगा। वैसे बिहार की कई क्षेत्रों में अलग पहचान है। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के तीन धर्मों- जैन, बौद्ध और सिख- की शुरुआत इसी राज्य से हुई है, जिसका अपना लिपिबद्ध इतिहास है। अन्य धर्म तो पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं।

नालंदा विश्वविद्यालय, बिहार में उच्च शिक्षा का केन्द्र था। भौगोलिक दृष्टि से नालंदा बिहार राज्य की राजधानी पटना (जिसे पहले पाटलीपुत्र कहा जाता था) से करीब 88 किलोमीटर दक्षिण पूर्व मैं है। यह स्थान पांचवीं शताब्दी से करीब 12 वीं शताब्दी तक धार्मिक शिक्षा का केन्द्र रहा है। नालंदा का विकास सकरादित्य के शासन काल में हुआ। उनकी पहचान निश्चित नहीं है। उनकी पहचान कुमार गुप्त प्रथम या कुमार गुप्त द्वितीय के रूप में की गयी है। नालंदा का विकास बौद्ध शासक हर्षवर्धन के काल में भी हुआ। राजाश्रय प्राप्त होने के कारण नालंदा के विकास में किसी प्रकार का धनाभाव बाधक नहीं बन पाया।

नालंदा संकुल का निर्माण लाल ईंटों से किया गया। इसके भग्नावशेष 14 हेक्टेयर (488×244 मीटर) में फैले हुए हैं। नालंदा के दु:खद इतिहास के पन्नों पर इस बात का उल्लेख है कि बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में तुर्की मुसलमान सेना ने 1883 ईस्वी में शिक्षा के इस महान केन्द्र को तहस-नहस कर दिया। विद्या केन्द्र का विनाश करने के बाद आतताइयों ने नालंदा विश्वविद्यालय के महान पुस्तकालय में आग लगा दी। विश्वविद्यालय के महान पुस्तकालय में आग लगा दी। विश्वविद्यालय में कितनी पुस्तकें और पांडुलिपियां थीं, इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि पुस्तकालय की आग पर तीन माह की लंबी अवधि तक नियंत्रण नहीं स्थापित किया जा सका।

पुस्तकालय में आग लगाने के अलावा आतताइयों ने शिक्षा केन्द्र के भवनों, मठों तथा अन्य निर्माण कार्यों को ध्वस्त कर दिया। उन्होंने बौद्ध भिक्षुकों, पंडितों, विद्वानों और जैन मुनियों को भी नालंदा विश्वविद्यालय से खदेड़ दिया। 2006 में सिंगापुर, चीन, जापान तथा अन्य देशों ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार की घोषणा की और वहां एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव रखा। इसका अर्थ यह कि इन सभी देशों को नालंदा के पूर्व गौरवशाली इतिहास का पूरी तरह से पता था और वे उसकी अतीत गरिमा को पुन: स्थापित करना चाहते थे। इतिहासकार सुकुमार दत्त ने नालंदा विश्वविद्यालय के इतिहास को दो भागों में विभक्त किया है। उन्होंने लिखा है कि गुप्त काल से चली आ रही उदारवादी सांस्कृतिक परम्परा के अन्तर्गत छठीं से नौवीं शताब्दी तक नालंदा विश्वविद्यालय का विकास हुआ। 8 वीं से 13 वीं शताब्दी तक बौद्धों की तांत्रिक परम्परा के चलते इसके विनाश की अवधि आरंभ हो गयी।

चीनी बौद्ध यात्री यिजिंग 673 से 695 ई. में भारत की यात्रा पर था। उसने लिखा है कि नालंदा विश्वविद्यालय में नौ महाविद्यालय थे और तीन सौ कक्षों में अध्ययन कार्य का संचालन किया जाता था। तिब्बती सूत्रों के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय के अन्तर्गत पांच महा-विहार थे। उन सभी को राजाश्रय प्राप्त था। सभी महा-विहारों की देखरेख शासनतंत्र करता था। पांचों महा-विहारों में सामंजस्य था। इन्हीं विहारों के कारण ही राज्य का बिहार नाम दिया गया है।
एक लेख के अनुसार तुर्क बख्तियार खिलजी ने 1183 ई. में नालंदा को तहसनहस कर दिया। फारसी इतिहासकार मिनहाज-ई-सिराज ने लिखा है कि खिलजी ने हजारों भिक्षुओं को जिंदा जला दिया और हजारों भिक्षुओं का सिर तलवार की धार से उड़ा दिया। वह बौद्ध भिक्षुओं को पूरी तरह से समाप्त कर देना चाहता था। पुस्तकालय कई महीनों तक जलता रहा। वहां की पहाड़िया धुएं के बादल के ढंग गयी थीं।

तिब्बती यात्री चग लोतसावा ने 1235 ई. में नालंदा आकर वहां की स्थिति का जायजा लिया। उसने 90 वर्षीय शिक्षक राहुल श्रीभद्र से मिलकर 70 छात्रों को लेकर वहां अध्ययन कार्य आरंभ किया। बौद्ध सम्प्रदाय निरंतर संघर्ष करता रहा कि नालंदा के पुराने गौरव की फिर से स्थापना की जा सके। सन् 1400 ई. तक चगला राजा नालंदा का उद्धार करने का प्रयास करते रहे। एक अनुमान के आधार पर नालंदा विश्वविद्यालय की आगजनी के कारण भारतीय विद्या को बहुत बड़ा नुकसान हुआ, जिस हानि की पूर्ति अभी तक नहीं हो पायी है और न ही भविष्य में हो पायेगी। हमारा ज्ञान विज्ञान सब कुछ जलाकर भस्म कर दिया गया। गणित, ज्योतिष, अलकेमी और एनाटामी का भी सारा ज्ञान जलाकर भस्म कर दिया गया।

यहां यह जान लेना आवश्यक है कि नालंदा विश्वविद्यालय एकमात्र ऐसा केंद्र था, जहां वहां शिक्षा ग्रहण करने वाले सभी विद्यार्थियों के लिये आवास की व्यवस्था की गयी थी। यह व्यवस्था करीब 10 हजार छात्रों और हजार अध्यापकों के लिये पर्याप्त थी। वास्तुशास्त्र के अनुरूप नालंदा परिसर के भवनों का निर्माण किया गया था। परिसर में आठ अलग-अलग कम्पाऊंड थे। 10 मंदिर थे। विशाल प्रवेश द्वार था। साधना के लिये कई हाल और क्लास रूप थे। परिसर के अंदर ही झीलें और उद्यान थे। नौ मंजिले भवन में विशालकाय पुस्तकालय था।

विश्वविद्यालय में विविध विषयों के अध्ययन की व्यवस्था थी। शिक्षा ग्रहण करने के लिये कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस और तुर्की आदि देशों के छात्र आते थे। विश्वविद्यालय के अंतर्गत करीब दो सौ गांव थे। हर्षवर्धन के जमाने में इन गावों के उत्थान के लिये सरकार की ओर से अनुदान दिये जाते थे।

चीनी यात्री ने नालंदा विश्वविद्यालय की सुंदरता का विस्तार से वर्णन किया है। उसके अनुसार सातवीं शताब्दी में विश्वविद्यालय परिसर का दृश्य बड़ा ही मनोहारी था। कोहरे और बादलों के बीच परिसर का दृश्य बड़ा ही लुभावना लगता था। बड़े-बड़े टावरों के बीच होकर जब हवा गुजरती थी तो उसके शीतल वातावरण के बीच छात्रों और साधकों की पंक्तियां अध्ययन तथा साधना करती हुई बहुत ही मनोहारी लगती थीं। कमल, गुलाब, बेला और चमेली जैसे पुष्पों की महक से सारा वातावरण सुगंधमय रहता था। नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष आज भी यह बताने के लिये पर्याप्त हैं कि अपने यौवनकाल में इस शिक्षा केंद्र का दृश्य कैसा रहा होगा। गुप्त काल में तो इसकी छटा अनुपम और अतुलनीय रही होगी।

नालंदा विश्वविद्यालय परिसर का नाम धर्मगंज था। इसमें तीन भवन थे। एक का नाम रतनसागर, दूसरे का नाम रतनरंजक और तीसरे का नाम रतनदधि था। नौ मंजिले भवन में पवित्र ग्रंथों की पांडुलिपियां रखी गयी थीं। पांडुलिपियां बहुत ही सहेज कर लोहे की आलमारियों में रखी गयी थीं। पांडुलिपियों की संख्या का सही-सही अंदाज नहीं बताया जा सकता है, लेकिन एक अनुमान के अनुसार उनकी संख्या हजारों में नहीं, बल्कि लाखों में रही होगी। पुस्तकालय में न केवल धर्म से संबंधित पुस्तकें थीं, अपितु उनमें व्याकरण, तर्कशास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, चिकित्सा जैसी पुस्तकों का प्रचुर संख्या में समावेश था। भारत के विभिन्न धर्मों की पुस्तकें अलग-अलग विभाग में रखी गयी थीं। बताया जाता है कि पुस्तकालय को उसके पुराने स्वरूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया गया। एक बौद्ध विद्वान मुक्तिभद्र ने यह प्रयास किया, लेकिन उनके मत से असहमत लोगों ने फिर पुस्तकालय में आग लगा दी।

विश्वविद्यालय में किसी विषय पर विचार-विमर्श के लिये एक सुविचारित पद्धति तय की गयी थी। विचार-विमर्श के लिये एक तिथि और समय निर्धारित किया जाता था। उस समय समर्थ विचारक हाल में एकत्र होते थे। आपत्तियों पर विशेष ध्यान दिया जाता था। यदि किसी विषय पर एक भी विचारक की आपत्ति आती थी तो वह विषय ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता था। यदि विश्वविद्यालय का कोई भी व्यक्ति नियमों के विरुद्ध कार्य करता था तो उसे सर्वसम्मति से परिसर से बाहर कर दिया जाता था। नियम का पालन सभी के लिये अनिवार्य था। इस प्रकार विश्वविद्यालय के अनुशासन में किसी प्रकार की खलल नहीं पड़ती थी। विश्वविद्यालय के लिये राजा की ओर से बड़ी ही उदारता से अनुदान मिलता था। इस प्रकार विश्वविद्यालय के संचालन के मार्ग में धनाभाव की कोई समस्या नहीं थी।

बौद्ध धर्म के लिये विश्वविद्यालय में अध्ययन की व्यापक व्यवस्था थी। बौद्ध धर्म के महायान दर्शन को लेकर कुछ मतभेद भी थे।

आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की 1915-1937 और फिर 1975 से 1982 में की गयी खोज से पता चला है कि नालंदा विश्वविद्यालय एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ईंट के छह मंदिर और 11 मठ थे। ये बड़े ही व्यवस्थित ढंग से बनाये गये थे। उत्तर से दक्षिण की ओर एक सौ फीट चौड़ा मार्ग था, जिसके पश्चिम में मंदिर और पूर्व में मठ थे। मठों के आकार प्राय: एक रूप में थे। मूल्यवान वस्तुओं के संरक्षण के लिये एक गोपनीय बरामदा बनाया गया था। ऊपर जाने के लिये सीढ़ियां बनायी गयी थीं। रसोई घर, प्रार्थना कक्ष की समुचित व्यवस्था थी। इन्हें देखने से उस समय की भव्य वास्तुकला के दर्शन होते हैं। आज की वास्तुकला की तुलना में वे ज्यादा ही भव्य थे। बुद्ध भगवान की विभिन्न मुद्राओं वाली मूर्तियां प्रचुर संख्या में मिली हैं।

विष्णु, शिव-पार्वती, महिषासुर मर्दिनी, गणेश, सूर्य आदि की मूर्तियां भी मिली हैं। अनेक प्रकर के सिक्के ताम्बे के प्लेट, सील भी बरामद हुये हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की खोज में नालंदा विश्वविद्यालय की सील भी बरामद हुई है। यह उसकी खोज की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। बचे हुये अवशेष में सूर्य मंदिर, एक हिंदू मंदिर शामिल है। अवशेष 1 लाख 50 हजार वर्गमीटर में फैले हुए हैं। अभी 90 प्रतिशत अवशेष की खोज नहीं की जा सकी है।

नालंदा विश्वविद्यालय के गौरव को वापस लाने की दिशा में कार्य आरंभ हो गये हैं। 1950 में पाली बौद्ध अध्यापन के नये केंद्र की स्थापना कर दी गयी है, जिसके अन्तर्गत पूरे क्षेत्र के सेटेलाइट इमेजिंग का कार्यक्रम चल रहा है। नालंदा म्युजियम में बहुत पांडुलिपियां रख दी गयी हैं। 26 जनवरी 2008 को म्युजियम का उद्घाटन हो गया। शेखर सुमन की 3 डी एनिमेशन फिल्म में नालंदा के इतिहास को दोहराया गया है। इसके अलवा म्युजियम में चार और विभाग खोले गये हैं- भौगोलिक, ऐतिहासिक, नालंदा हाल और नालंदा का पुनरुद्धार।

8 दिसम्बर 2006 को न्यूयार्क टाइम्स ने 10 लाख डॉलर की नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार की एक योजना का सूत्रपात किया। यह कार्य नालंदा विश्वविद्यालय की पुरानी जगह पर ही किया जायेगा। सिंगापुर ने चीन, भारत, जापान और अन्य देशों के सहयोग से 50 करोड़ डॉलर के खर्च से नालंदा नाम से नया विश्वविद्यालय स्थापित करने की योजना बनायी है। इसके अतिरिक्त 50 करोड़ डॉलर के खर्च से अन्य सुविधाएं उपलब्ध करायी जायेंगी। 28 जून 2007 की एक योजना के अनुसार प्रथम वर्ष 1137 और पांचवें वर्ष 4 हजार पांच सौ तीस छात्रों के अध्ययन की व्यवस्था की जायेगी।

न्यूज पोस्ट इंडिया की एक खबर के अनुसार जापान ने कहा है कि वह नालंदा (बिहार) में एक अत्याधुनिक विश्वविद्यालय की स्थापना करेगा, जिसका खर्च वह स्वयं वहन करेगा। प्रस्ताव में कहा गया है कि पूरा विश्वविद्यालय आवासीय होगा, जैसा वह अपने अतीत में था। पहले चरण में इस अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में 46 विदेशी फैकल्टी होगी। विश्वविद्यालय के पहले चरण में विज्ञान, दर्शनशास्त्र, आध्यात्मिक विद्या तथा अन्य विषयों की पढ़ाई होगी। एक विश्वविख्यात विद्वान विश्वविद्यालय का कुलपति होगा। एक अन्य खबर के अनुसार भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि वे इस अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना में अपनी ओर से पूरा सहयोग देंगे। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन भी इस कार्य के लिये तैयार हैं।

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार पूर्व एशिया देशों के प्रतिनिधियों की न्यूयार्क में हुई एक बैठक में नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार की योजना पर गंभीरता से विचार विमर्श किया गया। बैठक में निर्णय किया गया कि नालंदा के नये विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर विषयों की पढ़ाई होगी। विषयों में बौद्ध शिक्षा, दर्शनशास्त्र, तुलनात्मक धर्म, ऐतिहासिक अध्ययन, अंतरराष्ट्रीय संबंध, व्यापारिक व्यवस्थापन, शांति, भाषाई और साहित्यिक विषय, पर्यावरण अध्ययन की पढ़ाई होगी। एशियाई समुदाय के पुराने और नये संबंध पर विशेष ध्यान दिया जायेगा। हमारी संसद ने 13 सितम्बर 2010 को एक प्रस्ताव पास कर कहा कि भारत की वैश्विक महत्वाकांक्षा दर्शाने के लिए नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण होगा।

बी. बी. सी. की 28 मई 2013 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 से नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में छात्रों का आगमन शुरू हो जायेगा। विश्वविद्यालय में मानवता से संबंधित विषयों, अर्थशास्त्र, व्यवस्थापन, एशियाई एकता विकास, प्राच्य भाषा की पढ़ाई की जायेगी।
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