लोकतांत्रिक सुधारों की जरूरत

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन यह आदर्श लोकतंत्र नहीं बन पाया। इसका कारण है इसमें पनप रही अनेक विसंगतियां। इन विसंगतियों को दूर किये बिना भारतीय लोकतंत्र को आदर्श लोकतंत्र नहीं बनाया जा सकता। अत: उचित होगा कि हम भारतीय लोकतंत्र में व्याप्त निम्मांकित विसंगतियों को दूर करने हेतु अपेक्षित कदम उठाएं।

1. राजनीति में बढता अपराधियों का वर्चस्व :

राजनीति में अपराधियों के बढते वर्चस्व का कारण है राजनीति का अपराधीकरण। अपराधियों के साथ सांठ-गांठ एक आम बात हो गई है। कारण स्पष्ट हैं। ये बाहुबली अपराधी न केवल राजनीतिज्ञों की रक्षा करते हैं वरन् विरोधियों और मतदाताओं को डराने, धमकाने, पिटवाने, अपहरण करवाने, मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने, अपनी बात मनवाने के लिए तोड़-फोड़ करने जैसे कामों में सहायक होते हैं। बदले में उन्हें राजनीतिज्ञों का संरक्षण प्राप्त होता है।

2. दागी व्यक्तियों को राजनीति में प्रवेश से रोकना :

दागी व्यक्तियों को राजनीतिक दल का सदस्य बनने से रोकने के लिए भी मीडिया और जनता को ही आगे आना होगा। उन्हें जनप्रतिनिधि बनने से रोकने के लिए तो कानून है ही जिससे वे चुनाव नहीं लड़ सकते। लेकिन यह कानून तभी कारगर होता है जब संबंधित व्यक्ति को न्यायालय द्वारा सजा दी जा चुकी है। इससे बचने के लिए अधिकांश अपराधी अपने विरूद्ध चल रहे मुकदमों में लगातार विलंब कराते रहते हैं ताकि उन्हें सज़ा न होने पाये। ऐसी दशा में यदि किसी व्यक्ति के विरूद्ध दो से अधिक मुकदमें चल रहे हैं तो उसे भी चुनाव लड़ने की पात्रता न होने संबंधी कानून बनाया जाना चाहिए।

3. हारने पर विधान परिषद या राज्य सभा का सदस्य बनाया जाना :-

यह वास्तव में जनता द्वारा दिये गये निर्णय का अपमान है। यह हमारे प्रजातंत्र का बड़ा दोष है। इसे समाप्त कराने हेतु भी सरकार पर दबाव बनाया जाना चाहिए। ध्यान रहे विधान परिषदों और राज्य सभा का गठन वस्तुत: इसलिए किया गया था कि विभिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसा शिक्षा, कला, विज्ञान, न्याय आदि के विशेषज्ञों को उनमें स्थान देकर उनके ज्ञान और अनुभव का लाभ उठाया जा सके। किन्तु इन्हें पराजित राजनीतिज्ञों का संरक्षण स्थल बना दिया गया है। यह नियम विरूद्ध तो है ही नीतिविरूद्ध भी है। अत: इसके विरूद्ध देश के चिन्तकों को आवाज उठानी चाहिए। या तो विधान परिषदों एवं राज्य सभा को समाप्त किया जाये या इन्हें हमारे संविधान की भावना के अनुरूप विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों हेतु आरक्षित किया जाये।

4. मतदान प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना :-

मतदान प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए मतदाता परिचय पत्र का सहारा लिया जाना चाहिए। ये पहचान पत्र प्रत्येक मतदाता को अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराये जाना चाहिए। इससे जाली मतदान संभव नहीं हो पायेगा एवं मतदान प्रक्रिया पारदर्शी बन जायेगी।

5. अनिवार्य मतदान:- प्रजातंत्र में मतदान की प्रक्रिया सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह हमारे प्रजातंत्र की बुनियाद है। अनेक मतदाताओं का मतदान न करना हमारे प्रजातंत्र की एक कमजोरी है। ऐसा नहीं है कि वे मतदान नहीं करना चाहिते। वे चाहकर भी मतदान इसलिए नहीं करते कि वे मतदान केन्द्र जाने, लंबी लाइनों में खड़े होने, धूप-पानी सहने को तैयार नहीं है। कुछ को राजनीति में रूचि ही नहीं है, कुछ तो यह सोचकर मतदान नहीं करते कि कोई योग्य उम्मीदवार चुनाव मैदान में है ही नहीं। मतदान अनिवार्य किया जाना चाहिए।

6. सीमित दलों का लोकतंत्र :-

भारतीय लोकतंत्र राजनैतिक दलों की भरमार से पीड़ित है। यदि यह कहा जाये कि भारतीय लोकतंत्र दलों के दलदल में धंसा जा रहा है तो अत्युक्ति न होगी। इसका कारण है हमारे संविधान द्वारा संसदीय प्रणाली का चयन। यह ब्रिटेन को आदर्श लोकतंत्र मानकर वहां की संसदीय प्रणाली को भारत में भी लागू करने की भूल का परिणाम है। संसदीय प्रणाली ब्रिटेन जैसे छोटे देश के लिए उपयुक्त हो सकती है लेकिन भारत जैसे विशाल देश के लिए यह उपयुक्त नहीं है। कारण स्पष्ट है हमारे देश में लगातार छोटे-छोटे अनेक प्रांत बन गये हैं। नवीन प्रान्तों के निर्माण के लिए संघर्ष जारी है। परेशानी का कारण तब उत्पन्न होता है जब विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न दलों की सरकारें सत्ता में आ जाती हैं। इससे केन्द्र सरकार और प्रान्तीय सरकारों के बीच स्वार्थ की रस्साकसी चलने लगती है। ऐसी दशा में सरकारों की जो शक्ति देश के विकास में लगनी चाहिए वह कुर्सी बचाने में नष्ट होती रहती है। इससे विकास पिछड़ जाता है।

7. चुनाव प्रणाली में सुधार :-

हमारी वर्तमान चुनाव प्रणाली में अनेक दोषों का समावेश है। इनमें प्रमुख हैं बेहद खर्चीलापन, व्यापक तैयारी की अपेक्षा, सरकार गठन में विलंब, समय की बर्बादी, बहुकोणीय संघर्ष की संभावना, बूथ पर बलात् अधिकार की प्रवृत्ति, हिंसक वारदातों की पुनरावृत्ति, दलीय अनुशासन का कसता शिंकजा, मतदाताओं की उदासीनता, राजनैतिक दलों का चंदा-संग्रह अभियान, चयनित उम्मीदवारों पर मतदाताओं की पकड़ का अभाव, दलों में आंतरिक कलह तथा बाह्य संघर्ष की स्थितियां, दल-बदल की समस्या, केन्द्र और प्रांतीय सरकारों में मत वैभिन्य, केन्द्र, प्रान्त और पंचायत स्तर पर बार-बार चुनाव की व्यवस्था आदि।

उपरोक्त सभी दोषों से काफी हद तक निजात पाई जा सकती है यदि हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा सुझाई गई नीति से राष्ट्रीय पंचायत-केंद्र सरकार एवं प्रान्तीय-पंचायत-प्रान्तीय-सरकार का गठन करें। इस हेतु हमें केवल ग्राम पंचामतों, नगर पालिकाओं एवं नगर निगमों के ही प्रत्यक्ष चुनाव कराने होंगे। शेष सरकारों-विकास खण्ड पंचायत, जिला पंचायत, प्रान्तीय पंचायत और राष्ट्रीय पंचायत का गठन अप्रत्यक्ष चुनाव से होगा। ग्राम पंचायतें अपने सदस्यों में से या बाहर से अपना एक प्रतिनिधि चयनित कर विकास खंड पंचायत हेतु भेजेंगी। इस प्रकार गठित विकास खंड पंचायतें अपने सदस्यों में से या बाहर से अपना एक प्रतिनिधि जिला पंचायत के लिए भेजेंगी। जिला पंचायतें नगर पालिकाओं एवं नगर निगमों के साथ मिलकर जनसंख्या के आधार पर निर्धारित संख्यानुसार अपने प्रतिनिधि पूर्वानुसार प्रान्तीय पंचायत (विधान सभा एवं विधान परिषद) के लिए भेजेंगी। तात्पर्य यह कि ग्रामीण और नगरीय पंचायतों की धारायें जिला स्तर पर आकर एक रूप हो जाएंगी और मिलकर प्रान्तीय पंचायत का चुनाव करेगी। इस प्रकार गठित की गई प्रांतीय पंचायतें जनसंख्या के आधार पर निर्धारित संख्या में पूर्वानुसार अपने प्रतिनिधि राष्ट्रीय पंचायत (लोकसभा/राज्य सभा) हेतु भेजेंगी। इस प्रकार राष्ट्रीय पंचायत का गठन हो जाएगा। सभी पंचायतों को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने एवं नये प्रतिनिधि भेजने का अधिकार होगा। इस चुनाव प्रणाली में शक्ति या सत्ता का बहाव नीचे से ऊपर की ओर-जनता से सरकार की ओर होगा जो स्वाभाविक है। जबकि आज शक्ति का बहाव ऊपर से नीचे की ओर होता है क्योंकि केन्द्रीय नेतृत्व ही सभी बातों पर अंतिम निर्णम लेता हैं।

8. लोकतंत्रीय शासन में सामंतीय प्रशासन :

वर्तमान समय में जो प्रशासनिक व्यवस्था हमारी प्रादेशिक सरकारों एवं केन्द्र सरकार में चल रही है वह वहीं है जो अंग्रेजों से हमें विरासत में मिली थी। इसकी सबसे बड़ी विशेषता थी अधिकारों का केन्द्रीकरण एवं अपनी मर्जी जनता पर थोपना। अंग्रेजों की सरकार देश पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए इस प्रशासनिक व्यवस्था को अपनाये हुए थी। उसमें प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजों के पक्के गुलाम थे। आज भी कमोबेश वही स्थिति बनी हुई है। आज भी विभाग के सारे अधिकार प्रशासनिक अधिकारी के पास होते हैं। वही विभाग का वास्तविक संचालक होता है। अनेक अवसरों पर तो वह विभागीय मंत्री की भी बात नहीं सुनता। यही कारण था कि भारत में जनता सरकार के जमाने में अनेक मंत्रियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई से शिकायत की कि उनका सचिव (प्रशासनिक अधिकारी) उनकी बात नहीं सुनता। इस पर मोरारजी देसाई ने कहा था कि प्रशासनिक अधिकारी घोड़े हैं उन पर लगाम कसना सीखो वरना वे आपको उठाकर पटक देंगे। प्रधानमंत्री की यह सलाह सुनने में भले ही कलात्मक और चातुर्यपूर्ण लगती हो लेकिन वस्तुत: यह कोई समाधान प्रस्तुत नहीं करती। इस प्रकार हमारे भारत के लोकतंत्रीय शासन में सामंतीय प्रशासन चल रहा है। इसकी काट यही है कि प्रांतीय एवं केन्द्रीय स्तर पर प्रत्येक विभाग में उस विभाग के विशेषज्ञों की समिति गठित की जाए। मंत्री जी इस समिति के अध्यक्ष हों और प्रशासनिक अधिकारी केवल कार्यपालन अधिकारी ही बना रहे उसे नीति निर्धारण करने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।

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