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मानसरोवर की दैवीय अनुभूति

मानसरोवर की दैवीय अनुभूति

by रश्मी जोशी
in पर्यटन, मार्च-२०१४
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कैलाश मानसरोवर को देखने की तीव्र इच्छा हमेशा से ही मेरे में थी। मेरी इस इच्छा को साक्षात कैलाशपति ने पूर्ण भी किया। ठाणे की एक टूर कंपनी ‘ईशा टूर्स’ के साथ मैंने और मेरी बेटी ने यात्रा करना निश्चित किया। यात्रा के लिये आवश्यक तैयारियां कीं। सारे आवश्यक मेडिकल सर्टिफिकेट तैयार किये। यात्रा की योजना से ही बार-बार यह अनुभव हो रहा था कि कैलासपति हमारे साथ हैं। हमें पहले जुलाई माह में यात्रा की तारीख दी गयी थी। फिर कम्पनी ने उसे अगस्त माह में बढ़ा दिया। इससे हमें दुख तो हुआ परंतु जैसे ही उत्तराखंड की आपदा की खबर मिली हमने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया।

आखिरकार वह दिन भी आ ही गया जब हमने यात्रा की शुरुआत की। 11 अगस्त 2013 को हमने मुंबई से काठमांडु तक की यात्रा की। दूसरे दिन अर्थात श्रावण मास के पहले सोमवार को हमने पशुपतिनाथ के दर्शन किये। हमारी योजना के अनुसार हमें 11 और 12 दो दिन तक काठमांडु में ही रहना था परंतु आगे के होटल की बुकिंग पहले से नहीं की गई थी। हमारे अलावा और भी 2 ग्रुप मानसरोवर की यात्रा के लिये थे और वे भी 13 को ही निकलने वाले थे अत: हमने 12 तारीख को ही नायलम के लिये प्रस्थान किया।

नायलम समुद्र स्तर से लगभग 150 फीट की ऊंचाई पर है। यहां से ठंड की शुरुआत हो चुकी थी। नेपाल का 1 दिन का प्रवास कम करने के कारण हमें कस्टम और इमिग्रेशन में अधिक समय नहीं देना पड़ा।

13 अगस्त की सुबह हमने अभ्यास की दृष्टि से पास की एक पहाड़ी पर ट्रैकिंग की और शाम को मानसरोवर यात्रा के लिये आवश्यक सामान भी खरीदा। 14 अगस्त की सुबह सागा के लिये प्रयाण किया। ब्रह्मपुत्र नदी को लांघते हुए हम होटल पहुंचे। 15 अगस्त से वास्तविक रूप से हमारी मानसरोवर यात्रा शुरु हुई। सुबह 8 बजे हल्का नाश्ता करने के बाद हमने मयामू-ला दर्रा (17000 फीट) नामक सबसे ऊंचे स्थान तक प्रवास किया।

16 अगस्त हम सभी के लिये भाग्यशाली दिन था। जिस क्षण की हम सभी प्रतीक्षा कर रहे थे आखिर वह आ ही गया। हम दोपहर 12.30 बजे मानसरोवर पहुंचे।

बस से ही हमने मानसरोवर की यात्रा प्रारंभ की। सामने स्वच्छ नीला पानी और आकाश था। हम अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि हम सचमुच यह दृश्य देख रहे हैं या कोई चित्र। दृष्टि किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं हो रही थी। हमारे आनंद की कोई सीमा नहीं थी। हमें प्रत्यक्ष दर्शन के लिये बस से उतारा गया। बारिश का वातावरण न होने के कारण आसमान साफ था और धूप खिली हुई थी। हमने मानसरोवर में स्नान करने का निश्चय किया। पानी के स्पर्श मात्र से हमारा मन आल्हादित हो उठा। सारी थकान, ठण्ड, डर, भयानक कल्पनाएं सब कुछ न जाने कहां चला गया। यहां पहुंचने से पहले न जाने कितनी डरावनी दंतकथाएं सुन रखी थीं। हम पर मानो पर्वतरूपी कैलाशपति ने अपनी कृपा बनाये रखी थी।

स्नान के बाद हमने ‘राक्षस ताल’ देखा। लंकापति शिवभक्त ने यहां खड़े होकर भगवान शिव की तपस्या कर वरदान प्राप्त किया था। लगभग 2 घंटे के प्रवास के बाद हम अपने निवास स्थान पर पहुंचे।

यहां के वातावरण में नायलम से आगे जाने पर आक्सीजन की मात्रा में कमी आती जाती है। इस कारण होनेवाली तकलीफों से बचने के लिए हमें नेपाल से ही दवाइयां देना शुरू कर दिया गया था। ऑक्सीजन की कमी के कारण भूख-प्यास नहीं लगती परंतु हमें थोडा-थोडा आहार लेने के निर्देश दिये जा रहे थे। यात्रा के दौरान स्वादिष्ट और उस वातावरण के अनुरूप नाश्ता और भोजन हमें दिया जा रहा था। रोज सुबह ‘ब्लैक या ग्रीन टी’, यात्रा के दौरान फल या जूस, भोजन के समय सूप इत्यादि हमारे आहार का हिस्सा थे।

हमें मानसरोवर में ‘मड हाउस’ में रहना था। मानसरोवर में स्नान के कारण हमारा मन भावविभोर था। एक और बात मन में उत्सुकता और रोमांच जगा रही थी कि दूसरे दिन सुबह उठकर हमें एक अनुपम दृश्य देखने का सौभाग्य मिलनेवाला था। कहते हैं देव-देवता, यक्ष-किन्नर ब्रह्ममुहूर्त में तारों के रूप में स्नान करने मानसरोवर में आते हैं। हम यही दृश्य देखने की इच्छा को मन में लिये रात को जल्दी ही सो गये।
सुबह तीन बजे हम सभी उठकर बाहर आये तो आसमान में बादल थे। मन निराश हो गया कि हमें अब दृश्य देखने को नहीं मिलेगा। हम वापिस बिस्तर पर जाकर लेट गये परंतु नींद का नामोनिशान नहीं था। 3.15 बजे फिर बाहर आकर देखा तो सारे बादल गायब। आसमान एकदम साफ और टिमटिमाते तारों से भरा हुआ था। हम तुरंत मानसरोवर के किनारे पहुंचे। वहां मोमबत्ती, टार्च या किसी प्रकार की रोशनी की इजाजत नहीं होती। अंधेरा और शांति होने पर ही वे तारे दिखाई देते हैं। हमने लाइट बंद किये और नजर को कुछ और पैनी कर देखने लगे। 3.30 बज गये फिर भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने मन ही मन भगवान को याद किया।

आखिर 3.35 बजे दो तारे आकाश से उतरते हुए दिखाई दिये। अंधेरा होने का बावजूद वे पानी में तैरते हुए प्रतीत हो रहे थे। हमें प्रत्येक क्षण दैवीय अनुभूति हो रही थी। गहरा अंधेरा होने के बाद भी डर नहीं लग रहा था। कुछ ही क्षणों वे तारे जैसे आये थे वैसे आकाश में वापिस चले गये। यह सारी घटना 2 मिनट के अंदर घटी थी परंतु हमारी पूरी उम्र के लिये यादगार थी। हमारा मन नहीं भरा था, बार-बार यह लग रहा था कि और भी कुछ घटित होने वाला है। 3.45 बज चुके थे, समय बीतता जा रहा था। गहरे अंधेरे में जैसे ही हमने एक बार फिर पीछे पलट कर देखा तो स्तब्ध रह गये। यही वह क्षण था जिसकी हम प्रतीक्षा कर रहे थे। एक बड़ा सा तारा आकाश से पानी में उतरा। कुछ लोगों को मानव सदृश्य दिखने वाली उस आकृति ने आधे मिनट ही पानी में भ्रमण किया। हम सभी ने आज जाना था कि स्वर्ग-सुख की अनुभूति क्या होती है। हममें से कुछ ही लोगों को इस दृश्य को देखने का सौभाग्य मिला था।

कमरे पर आने के बााद भी हम उसी स्वप्नमय वातावरण में थे।
सुबह लगभग 8 बजे हम फिर से मानसरोवर पर हवन के लिये पहुंचे। 2 घंटे तक हवन और पूजाविधि करने के बाद हमने अपने साथ लायी हुई बोतलों में मानसरोवर का जल भरा तथा फिर से कमरे की ओर प्रस्थान किया। शाम को ऑक्सीजन के सिलेंडर खरीदे क्योंकि दूसरे दिन कैलास परिक्रमा के लिये निकलना था।

कैलास परिक्रमा की अवधि तीन दिन की होती है। वहां ऑक्सीजन की बहुत कमी होती है। साथ ही हमने सुना था कि अगर बारिश या बर्फबारी हुई तो परिक्रमा नहीं की जा सकती। अत: हम मन ही मन भगवान से यह प्रार्थना कर रहे थे कि यहां तक की यात्रा जिस तरह निर्विघ्न रूप से हुई उसी तरह आगे की भी हो।

18 अगस्त की सुबह 9 बजे हमने यम द्वार से परिक्रमा की शुरुआत की। बली चढ़ाये गये पशुओं के बीच से मार्ग निकालते हुए हमने आगे बढ़ना शुरू किया। ऑक्सीजन कमी के कारण हम तेज गति से नहीं चल पा रहे थे। आज हमारे साथ सामान के नाम पर केवल एक बैग था, जिसमें हमारी टूर कंपनी द्वारा दिया गया रेनकोट, 2 ड्रेस और थर्मस ही था। इसे भी हमारे साथ आये शेरपा ने ही पकड़ा हुआ था। धीरे-धीरे चलते हुए 2 बजे तक हम लोग भोजन के लिये नियत किये गये स्थान तक पहुंचे। हम लोग बहुत थक चुके थे; अत: यह तय किया गया कि आगे का प्रवास घोड़े से किया जाये। शाम को छह बजे हम गंतव्य तक पहुंचे। अत्यधिक ठण्ड और थकान के कारण हम तुरंत ही सो गये। हमारे साथ जो शेरपा आये थे वे ही हमारे रसोइये होने के कारण उन्होंने हमें गरम-गरम सूप और खिचड़ी हमारे बिस्तर के पास ही लाकर दी। वह खाकर हमें कुछ अच्छा लगा। अगले दिन कठिन परिक्रमा करनी थी।

19 अगस्त की परिक्रमा के लिये घोड़े तय किये गये। वह श्रावण सोमवार था। फिर एक बार दैवीय अनुभव हुआ। परिक्रमा के सर्वोच्च शिखर पर बैठ कर लगभग एक घंटे तक हमने श्लोक इत्यादि का पठन किया। मेरी पुत्री का घोड़ा गिर जाने के कारण हम हमारे दल के सदस्यों से पिछड़ गये थे। वहां अन्य लोगों ने हमारी सहायता की। शाम को छह बजे हम उस दिन के ठहरने के स्थान पर पहुंचे। तब तक बारिश शुरू हो चुकी थी। बारिश जैसे ही बंद हुई सामने के पहाड़ पर बर्फ का बड़ा सा ॐ दिखाई दिया। कुछ ही समय में वह पिघल गया।

20 अगस्त, परिक्रमा का आखरी दिन। घोड़े नहीं थे। धीरे-धीरे चलते हुए 5 बजे तक हम गंतव्य तक पहुंचे। बारिश शुरू हो चुकी थी अत: परिक्रमा बंद करनी पड़ी। परिक्रमा करनेवाला हमारा आखरी दल था।

21 अगस्त को हमारी वापसी की यात्रा शुरू हुई। 22अगस्त को हम काठमांडु पहुंचे। सामान लेकर बैग भरना प्रारंभ किया। कल घर जाना था। सुबह 6 बजे एवरेस्ट राइड करने का निश्चय हुआ। 23 अगस्त की सुबह 6 बजे हम काठमांडु एयरपोर्ट पर पहुंचे। वहां जाकर पता चला कि राइड 9 बजे है। हमने सामान पैक करके भेज दिया और हम राइड के लिये निकल गये।

एक और विलक्षण अनुभव है। 14 यात्रियों की क्षमता वाले हवाई जहाज के काकपिट से एयर होस्टेस और पायलट कांचनगंगा, अलकनंदा, शिव-पार्वती, कैलाश इत्यादि शिखर दिखा रहे थे। नजदीक से देखने के कारण तह अनुभव भी अविस्मरणीय और आल्हादित करनेवाला था।
दोपहर 3 बजे हवाई जहाज से हम मुंवई के लिये रवाना हुए और अनेक विलक्षणीय अनुभवों को अपने साथ लिये 6 बजे मुंबई पहुंचे।
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