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जब इतिहास बोलता है….

जब इतिहास बोलता है….

by विशेष प्रतिनिधि
in मार्च-२०१४, सामाजिक
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इतिहास अन्वेषण यह ऐरे-गैरे का काम नहीं है। सारी जिंदगी समर्पित करने के बाद इतिहास के किसी रहस्य से परदा उठ सकता है। अमुमन यह दिखाई देता है कि इस क्षेत्र में नई पीढ़ी आती नहीं है, फिर भी मिरज का तीस-पैंतीस वर्षीय युवक इस विषय में स्वयं को झोंक देता है, यह राहत की बात है। यह व्यक्ति है मानसिंगराव कुमठेकर। उन्होंने एक निश्चित दिशा पकड़ कर लगभग 15 वर्षों से समर्पित भाव से इतिहास अन्वेषण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। उनके कार्यों का लेखाजोखा पेश है।

क्या स्मशान भूमि ऐतिहासिक धरोहर हो सकती है? क्या वहां की समाधियां इतिहास का कथन कर सकती हैं? मिरज के मानसिंगराव से मिलेंगे तो इन प्रश्नों के उत्तर ‘हां’ होंगे। ऐसे प्रश्न पूछने वालों को वे मिरज की कुछ स्मशान भूमियों में ले जाकर वहां प्राप्त होने वाले इतिहास के सबूत दिखा सकते हैं। आज मिरज में बिल्कुल दिखाई न देने वाला पारसी समाज एक जमाने में वहां बड़ी संख्या में था इसका सबूत वे दे सकते हैं। औरंगरजेब के मुख्य सेनापति का दफन मिरज के कब्रस्तान में किया गया था। यह सिद्ध करने के लिए वे उसकी कब्र दिखा सकते हैं। पंडिता रमाबाई की बेटी मनोरमा का निधन वानलेस अस्पताल में चिकित्सा के दौरान हुआ था और उनका अंत्यसंस्कार यहां की कैथलिक ईसाई स्मशान भूमि किया गया था यह बात वे संगमरमर पट्टी पर अंकित शब्दों से सप्रमाण दिखाते हैं। इतिहास की खोज के दौरान स्मशान भूमियां भी बोलने लगती हैं, इस नई दृष्टि से नई दिशा दिखाने वाले मानसिंगराव विशेष रूप से दक्षिण महाराष्ट्र के इतिहास की खोज में लगे हुए हैं।

मानसिंगराव कुमठेकर मूलतया मिरज के ही हैं। अप्पासाहब और मंगल के सुपुत्र मानसिंगराव का जन्म 3 जून 1977 के दिन हुआ। उनकी प्राथमिक शिक्षा भारत भूषण विद्यालय तथा माध्यमिक शिक्षा विद्या मंदिर स्कूल में हुई। 1992 में दसवीं कक्षा उत्तीर्ण की और ग्यारहवीं में विज्ञान शाखा में प्रवेश लिया। 1994 में बारहवीं के बाद 1997 में उन्होंने भौतिक विज्ञान में बी. एससी. की उपाधि प्राप्त की। वे विज्ञान के विद्यार्थी थे, परंतु इतिहास की खोज में उनकी बचपन से ही रुचि थी। पाचवीं और दसवीं के दरमियान वे मिरज के भुईकोट किल्ला में रहने वाले दिनकर आपटे गुरुजी के पास ट्यूशन के लिए जाते थे। ट्यूशन पूर्ण होने पर वे उस परिसर में घूमते रहते थे। यह उनका शौक ही बन गया था। खाई में घूमना, तहखाने जैसी जगह देखना, पुराने पत्थरों का निरीक्षण करना ये उनके शौक थे। इससे वे इतिहास की ओर आकर्षित हुए। आगे चलकर बापुजी सालुंखे महाविद्यालय में उपाधि की शिक्षा लेते समय वहां के ग्रंथालय ने उन्हें बहुत समृद्ध किया। श्रेष्ठ संदर्भ ग्रंथों से समृद्ध यह ग्रंथालय उनके लिए खजाना ही था। ये ऐतिहासिक संदर्भ ग्रंथ पढ़ते समय उन्हें मिरज के बारे में अनेक उल्लेख मिलते थे। उन्हें यह बात खटकती थी कि यह परिसर ऐतिहासिक संदर्भ की दृष्टि से इतना सम्पन्न होने के बावजूद उस पर बहुत खोज हुई नहीं हुई है। इसी कारण 1996-97 में पढ़ाई करते समय ही उनका ‘मिरजचा इतिहास आणि भुईकोट किल्ला’ नामक लेख वार्षिक अंक में प्रकाशित हुआ। उसके बाद उन्होंने स्थानीय अखबारों में लिखना शुरू किया।

उनकी आरंभ से ही यह भूमिका थी कि लेखन करते समय केवल प्रकाशित पुस्तकों के संदर्भों पर ही निर्भर न रहकर मूल दस्तावेज खोजने चाहिए और उनमें से अपनी नई खोज दुनिया के सामने रखनी चाहिए। मिरज परिसर में अनेक पुराने घरानें हैं। उनके पास ऐसे अनेक पुराने दस्तावेज हैं जिनसे अनेक ऐतिहासिक संदर्भ प्रकाश में आ सकते हैं। यह बात ध्यान में आते ही उन्होंने ऐसे दस्तावेज खोजना शुरू किया। प्रारंभ में अनेक दस्तावेज इकट्ठे हुए किन्तु वे सारे मोडी लिपि में थे। यह उनके लिए एक बड़ी दिक्क्त थी। पुराने दस्तावेजों का अध्ययन करना हो तो मोडी का ज्ञान होना आवश्यक था। मोड़ी वर्णाक्षर पुस्तिका प्राप्त कर उसका अध्ययन किया। महाराष्ट्र राज्य के पुराभिलेख विभाग का मोडी लिपि का पाठ्यक्रम भी पूर्ण किया और दो वर्ष के परिश्रम के बाद उन्होंने मोडी लिपि पर प्रभुत्व पाया।

इतिहास का अध्ययन शुरू हुआ लेकिन वर्तमान का क्या हो? उपाधि प्राप्त करने के बाद आगे क्या करें यह प्रश्न था। वही घर में सब से बड़े बेटे थे। घर की आर्थिक़ स्थिति नाजुक थी। इसी कारण कमाई करना जरूरी था। मगर नौकरी में बाधाएं थीं। इसी उधेड़बुन में कुछ समय बीत गया। इस दरमियान अध्ययन तो चल ही रहा था। 9 फरवरी 2000 से 3 अप्रैल 2000 के दौरान उन्होंने 53 लेख लिखकर मिरज का डेढ़ हज़ार वर्षों का इतिहास प्रमाणों के साथ ‘तरुण भारत’ दैनिक पत्र के जरिए प्रस्तुत किया। इस लेख मालिका के अंतर्गत प्रति दिन आधे पृष्ठ की जानकारी प्रकाशित होती रही। इस लेख-मालिका ने अनेक लोगों का ध्यान उनकी ओर खिंचा। अनेक लोगों ने इन लेखों को संग्रिहत कर रखा। उसका एक अलग लाभ मानसिंगराव को हुआ। मई 2000 में वे ‘तरुण भारत’ की नौकरी में आये। उसके बाद गत 12 सालों में उनके लगभग 800 अन्वेषणात्मक लेख प्रसिद्ध हुए हैं।

उनके अध्ययन का विषय मुख्यतया ‘दक्षिण महाराष्ट्र’ अर्थात सांगली, सातारा, कोल्हापुर तथा वर्तमान में कर्नाटक में स्थित बेलगाव जिलों तक सीमित है। 1553 से 1686 तक का आदिलशाही काल, 1686 से 1730 तक का मुगल काल एवम् उसके बाद 1948 तक रियासतों के विलय तक का मराठाशाही, पेशवा तथा छोटी-छोटीे रियासतों का काल इस तरह तीन चरण महत्वपूर्ण हैं। इन इलाकों में सांगली, मिरज, बुधगांव, कुरुंदवाड़, कोल्हापुर, इचलकरंजी, तासगांव, औंध, नरगुंद ये छोटी-छोटीे रियासतें थीं। इस सारे इतिहास को खोजना उनके अध्ययन का विषय है। आज भी उनके संग्रह में हजारों की संख्या में दस्तावेज हैं। उनमें से अनेक दस्तावेज दुर्लभ किस्म के हैं।

इस तरह के दस्तावेजों को प्राप्त करना आसान काम नहीं होता। लगभग हर इतिहास अन्वेषक को इसका अनुभव आता है। कुछ लोग इन दस्तावेजों का महत्व जानकर उन्हें अन्वेषकों तक पहुंचाते हैं। कुछ लोग देने से इनकार करते हैं। कुछ लोग ‘व्यर्थ में नई झंझट क्यों?’ कह कर दस्तावेजों को सीधे जला डालते हैं। अनेक लोगों के घर में रखे दस्तावेजों को दीमक लगी है। उन्हें कल्पना नहीं होती कि ये दस्तावेज इतिहास पर नया प्रकाश डाल सकते हैं। ऐसी स्थिति में काम करते समय मानसिंगराव भी कभी कभी हताश हो जाते हैं।

फिर भी, अनेक दुर्लभ दस्तावेज तथा पुस्तकें उनके संग्रह में हैं। मिसाल के तौर पर देवनागरी लिपि में प्रकाशित पहली पुस्तक उनके संग्रह में है। इस पुस्तक की अनेक विशेषताएं हैं। वह उन दिनों तांबे के सांचों का उपयोग कर छापी गई थी। उसकी छपाई मिरज में हुई थी। उसकी उस समय 100 प्रतियां छापी गईं थीं। इस समय मानसिंगराव के पास जो प्रति है वह आज उपलब्ध एकमात्र प्रति है। यह ग्रंथ भागवत गीता है और मिरज के देवधर शास्त्री के परिवार से मानसिंगराव को प्राप्त हुआ। इस ग्रंथ को देखने के लिए जर्मनी से मुद्रण क्षेत्र के कुछ विशेषज्ञ आये थे, यह बात मानसिंगराव आज भी याद करते हैं।

भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम के अप्रकाशित इतिहास के दो हज़ार से अधिक मूल कागजात उनके संग्रह में हैं। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम का घोषणापत्र, सन 1900 से 1942 के समय में भिन्न-भिन्न आंदोलनों के बारे में पुलिस द्वारा पेश गोपनीय रिपोर्टें, क्रांतिसिंह नाना पाटील, लोकमान्य तिलक, साने गुरुजी, देशभक्त बर्डे गुरुजी, क्रांतिकारी बालचंद्र भानप इत्यादि की गतिविधियों पर पुलिस की निगरानी और उसकी गोपनीय रिपोर्टों का इन कागजातों में समावेश है। इसके अलावा गांव-गांव में हुई उत्स्फूर्त बगावत, उन दिनों स्वाधीनता के लिए समाज में पैदा हुई जागृति, जगह-जगह दिखाई देने वाले उत्स्फूर्त आंदोलन आदि पर ये दस्तावेज प्रकाश डालते हैं। दुकानदारों का ‘बंद’, क्रांतिकारियों द्वारा लूटी रेलगाडी वगैरेह रिपोर्टें भी उनमें हैं। इस विषय पर उनका लेखन इस समय चल रहा है।

पेशवा युग के आठ पेशवाओं में से सवाई माधवराव, माधवराव तथा दूसरे बाजीराव इन तीन पेशवाओं के हस्ताक्षर में लिखे हुए पत्र, उस वक्त के सरदार यशवंतराव होलकर, गोपालराव पटवर्धन, चिंतामनराव पटवर्धन, गंगाधरराव पटवर्धन और महत्वपूर्ण यह कि छत्रपति शाहू महाराज के हस्ताक्षरों वाले अनेक दस्तावेज उनके संग्रह में मौजूद हैं। विशेष यह कि राज्य सरकार ने शाहू महाराज के विषय में उनके पास उपलब्ध सभी कागज़ातों की एक-एक प्रतियां तैयार करवा ली है। पेशवाओं द्वारा दिए गए इनामों का उनके ही दरबार का एक बहुत बड़ा संग्रह भी मानसिंगराव के पास है। उस जमाने की प्रथा के अनुसार उसे चमड़े की जिल्द लगाई गई है। पेशवाओं के सरदार बड़े चिंतामणराव पटवर्धन और उनके सुपुत्र धुंडिराजतात्या पटवर्धन के हस्ताक्षरों में लिखा 1846 से 1851 और 1851 से 1868 तक का रोजनामचा भी उन्होंने प्राप्त किया है। इससे उन दिनों के सामाजिक एवम् सांस्कृतिक प्रवाह के उसमें दर्शन होते हैं।

मिरज की ‘नायकिणियों’ (देवदासियों) का एक विशिष्ट इतिहास है। राजा-महाराजाओं और देवस्थानों की सेवा हेतु इस नायकिणियों की नियुक्तियां होती थीं। उन्हें दिये हुए सनद (प्रमाणपत्र) जिस तरह मानसिंगराव के पास है उसी तरह उनका लोकमान्य तिलक के साथ किया गया पत्र व्यवहार भी उनके पास है। लोकमान्य के विरुद्ध थोपे गए राजद्रोह के प्रथम मुकदमे का खर्च लोगों से चंदा इकट्ठा कर किया गया था। उसमें महत्वपूर्ण योगदान नायकिणियों का था। उनमें उस समय जो सामाजिक जागृति थी उसका यह सबूत है। नायकिणियों के एक और पहलू पर प्रकाश डालने का मानसिंगराव का प्रयत्न है। वह यह है कि महाराष्ट्र में स्त्री शिक्षा के लिए प्रथम पाठशाला महात्मा ज्योतिबा फुले ने 1848 में शुरू की थी। नायकिणियों ने उस समय के ब्रिटिश शासकों को उनकी लडकियों के बारे में चल रही शर्मनाक प्रथा पर बंधन लगाने के लिए 1858 में लिखा पत्र उनके संग्रह में है। पुणे का वह आंदोलन क्या उस समय नायकिणियों तक पहुंचा था अथवा वे क्या पहले से ही शिक्षित थीं यह उनके अध्ययन का है। विशेष बात यह कि नायकिणियों का यह पत्र उनके खुद के हस्ताक्षरों में है और उसकी भाषा परिपक्व तो है किन्तु उससे जुड़ा हुआ सामाजिक विचार भी उतना ही अमूल्य है। इसके अलावा असंख्य महत्व के दस्तावेज उनके संग्रह में हैं और उन दस्तावेजों पर उनका अध्ययन भी जारी है।

इस लेख के प्रारंभ में जिसका जिक्र किया है उस स्मशान भूमि का भी बड़ा महत्व है। मिरज में कैथोलिक तथा प्रोटेस्टंट इन दो ईसाई समाजों की अलग-अलग स्मशान भूमियां हैं। पारसियों का स्मशान तथा मुस्लिमों का कब्रस्तान है। औरगंजेब के मुख्य सेनापति बक्षी मुखलिस खान का निधन मिरज में हुआ और उसका दफन औरंगजेब की आज्ञा के अनुसार यहीं किया गया ऐसा उस कब्र पर लिखा गया है। पंडिता रमाबाई ने ईसाई धर्म स्वीकार किया था। उनकी सुपुत्री मनोरमा भी विदुषी थी। अपनी आयु के अंतिम दिनों में इलाज करवाने वानलेस अस्पताल में आई थी। उसकी समाधि भी मिरज में है। कैंसर पर रेडिओथेरपी करने वाले भारत के प्रथम चिकित्सक डॉ. पटेल, विख्यात संगीतकार वसंत पवार की समाधियां भी कैथोलिक स्मशान भूमि में दिखाई देती हैं।

ऐसी अनेक घटनाएं भारत में सर्वप्रथम मिरज में हुई हैं। तैरने की कला पर पहली पुस्तक मिरज में बनी थी, मल्लविद्या का पहला वैज्ञानिक संदर्भग्रंथ यहां का ही है। देवनागरी का पहला मुद्रण मिरज में ही हुआ था, हमारे देश की प्रथम ‘ओपन हार्ट सर्जरी’ मिरज के वानलेस अस्पताल में की गई। तंतुवाद्य तैयार करने की महाराष्ट्र में शुरुआत इसी शहर से हुई। मिरज के स्नेह में आकंठ डूबे मानसिंगराव के साथ गपशप में ऐसे असंख्य संदर्भ वर्ष के साथ सुनने को मिलते हैं।

मिरज की नई पीढ़ी के दिल में इतिहास की खोज के प्रति दिलचस्पी पैदा हो उसके लिए उनके प्रयास जारी हैं। इस हेतु उन्होंने मिरज इतिहास संशोधन मंडल की स्थापना की है। मिरज के महान इतिहास शोधक वासुदेवशास्त्री खरे को वे गुरु मानते हैं। खरे जी की मृत्यु 1924 हुई किन्तु उसके पूर्व उन्होंने 15 खंडों में लिखा ‘ऐतिहासिक लेखसंग्रह’ इस क्षेत्र में अति मूल्यवान ग्रंथ है। मराठेशाही के उत्तरार्ध का इतिहास खरे जी के आधार के सिवा पूर्ण नहीं होता। रियासतकार सरदेसाई के अंतिम तीन खंडों में तो अनेक पृष्ठों पर संदर्भ के रूप में खरे जी की पुस्तकों का जिक्र है। लोकमान्य तिलक के दैनिक का ‘केसरी’ नाम रखने का सुझाव खरे जी का ही था। पुणे के न्यू इंग्लिश स्कूल के वे प्रथम शिक्षक थे। लोकमान्य के कहने पर ही वे मिरज आए। उनका ही आदर्श सामने रखकर मानसिंगराव आगे बढ़ रहे हैं। इसके अलावा मियां सिकंदरलाल अतार की इतिहास खोज की विरासत उन्होंने आगे बढाई है। वे कहते हैं कि अपने माता-पिता और भाई रविभूषण एवम् साथ में रणधीर मोरे, सदानंद कदम और प्रा. गौतम काटकर की सहायता के बिना वे यह कार्य कर ही नहीं सकते थे। वे कहते हैं, ‘किसी भी कार्य में अपने को झोंककर निरंतर लगे रहने से यश प्राप्त होता ही है।’ उनकी आर्थिक स्थिति तथा अंग्रेजी भाषा पर प्रभुत्व न होने के कारण उनके काम में अवरोध पैदा होता है और इसकी वजह से काम में तेजी नहीं आती इसे वे खेदपूर्वक स्वीकार करते हैं। मानसिंगराव कहते हैं, ‘जीवन में हमारी रुचि के अनेक विषय होते हैं, किन्तु उसकी समझ हमें सही उम्र में हुई तो उसमें से जिंदगी का प्रयोजन प्राप्त होता है। हर व्यक्ति को कोई एक ऐसा विषय पसंद करना चाहिए कि उसके जरिये जीवन निर्वाह के साथ उसे आनंद भी मिल सके।’ मानसिंगराव स्वयं भी उनकी रुचि के क्षेत्र में कार्यरत हैं।

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Tags: cultural educationheritagehindi vivekhindi vivek magazinehistoryinvestigationmysteryresearchtraditions

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