चीन की ओर से विश्वासघात के रूप में कुछ हुआ नहीं, क्योंकि उसने तो कभी विश्वास दिलाया ही नहीं था। यह कहना ठीक नहीं कि चीन ने विश्वासघात किया। कहना यह चाहिए कि हम लोगों ने ही चीन की प्रकृति को समझा नहीं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरूजी एक दूरद्रष्टा थे। भारत के भीतर ही नहीं बल्कि बाहर से भी आ रहे खतरों का आभास उन्हेें पहले से था। गुरूजी की दूरदृष्टि का एक प्रमुख उदाहरण चीन के विषय में उनके विचारों और आकलन से पता चलता है। वास्तव में आज भी अगर चीन की प्रवृत्ति और उसकी सोच को ठीक से समझना हो तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक एम् एस गोलवलकर उपाख्य गुरूजी के विचारों को जानना ज़रूरी है। उन्होंने 1950 के दशक के आरंभ से ही चीन से होने वाले खतरों के बारे में चेतावनी देनी आरंभ कर दी थी। लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनकी एक नहीं सुनी। परिणाम हम सबके सामने है। 1962 में भारत को चीन के साथ युद्ध में भारी नुकसान उठाना पड़ा। नेहरू की नीतियों और उनके द्वारा उठाए गए कदमों की खासी आलोचना भी हुई। 1962 के युद्ध में नीतिगत व नेतृत्वके स्तर पर जो कमजोरी दिखाई गई उसकी पड़ताल हेंडरसन ब्रुक्स रिपोर्ट में भी की गई है। हालांकि अधिकृत तौर पर यह रिपोर्ट आज भी सार्वजनिक नहीं की गई है। पर इसके काफी सारे हिस्से इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।इनको पढ़ने से तत्कालीन सरकार की आपराधिक लापरवाही के बारे में पता चलता है।
भारत तथा दुनिया के अन्य देशों को लेकर चीन की विस्तारवादी नीति के बारे में समझना हो तो रामलीला मैदान में 23 दिसंबर 1962 को गुरूजी के एक सार्वजनिक भाषण को पढ़ना चाहिए जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा था, “आजकल चारों ओर एक और प्रचार चला है कि,’ चीन तो बहुत पहले से ही आक्रमणकारी है, विस्तारवादी है। कुछ मात्रा में यह सच भी है। उसके पुराने इतिहास में ऐसा देखने को मिलता है कि चंगेजखान आदि अकारण ही अपने पड़ोसियों पर आक्रमण कर, उनका विनाश करते आए हैं। उनकी केवल इतनी प्रकृति ही आज के आक्रमण का कारण नहीं है। चीन ने 12-13 वर्षों से जिस कम्युनिस्ट प्रणाली को अपनाया है, वह भी इस आक्रमणकारी नीति के लिए जिम्मेदार है॥ सबको पता है कि चीन गत 12-13 वर्षों से अपने को “कम्युनिस्ट” कहता है। इतना ही नहीं, जिस रूस में कम्युनिस्टों का राज्य सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ, उससे भी इनका कम्युनिज्म अधिक शुद्ध है, ऐसा इनका दावा है। चीन सोचता है कि सारे जगत् में कम्युनिस्ट विचार-प्रणाली का राज्य स्थापित करना उसका लक्ष्य है। इसके लिए वह विस्तारवाद के पीछे लगा है। अर्थात् पहले से ही प्रकृति में साम्राज्यवाद की पिपासा और उस पर जगत भर में कम्युनिस्ट विचारधारा का राज्य स्थापित करने का मानस, इन दोनों का ही आज चीन में संयोग हो गया है अर्थात् एक तो करेला कड़वा, दूजे नीम चढ़ा।”
गुरूजी ने एक खास बात ये भी कही जो वर्तमान में चीनी विस्तारवाद के मूल को स्पष्ट करती है, ”यह कहना कि आक्रमण तो चीन की प्रकृति है कम्युनिस्ट विचारधारा इसके लिए कोई कारण नहीं यह तो स्वयं को भ्रम में डालना है। जिस प्रकार हम लोगों ने अपने को इस भ्रम में डाल लिया था कि चीन तो अपना भाई है। आज अपने भ्रम का निराकरण होकर उसका प्रत्यक्ष आक्रमणकारी स्वरूप हमारे अनुभव में आ रहा है। इस प्रकार- ”कम्युनिज्म तो अच्छा है पर चीन का कम्युनिज़्म विकृत हो गया है इसलिए वह बहुत खराब है, कम्युनिज्म पर उसके विस्तारवाद का पाप नहीं आता।”- इस प्रकार का एक नया भ्रम आज फिर से हम लोगों ने अपने हृदय में उत्पन्न करने का यत्न किया है और इस नए भ्रम का प्रचार करने पर हम तुले हुए हैं। इसमें भी आगे चलकर निराश होने की पूर्ण संभावना दिखाई देती है। विस्तारवाद चीन की प्रकृति भले ही हो परंतु यही विस्तारवाद कम्युनिज्म का भी एक गुण है। इन दोनों का संयोग होने के कारण ही चीन का आज का संकट खड़ा है।
इससे पूर्व 2 फरवरी, 1960 को मुंबई में चीनी आक्रमण के संबंध में महाराष्ट्र के पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने एक प्रश्न का बड़ा दिलचस्प उत्तर दिया जिससे पता चलता है कि किस प्रकार हमारा तत्कालीन नेतृत्व चीन की उस रणनीति को नहीं भांप पा रहा था जिसके बारे में गुरूजी लगातार चेतावनी दे रहे थे। गुरूजी का उत्तर था, ”.. मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि आप लोगों को चीन द्वारा किए गए आक्रमण का समाचार इतनी देर से क्यों मिला? जबकि मुझे तो इसका समाचार 4-5 वर्ष पूर्व ही प्राप्त हो गया था। उस समय मैंने सार्वजनिक भाषणों में उसका उल्लेख भी किया था। तब कोलकाता के एक दैनिक पत्र के संपादक ने लिखा था कि ’ यह गैर-जिम्मेदारी से ऐसी बातें करते हैं-यदि ऐसा होता तो क्या सरकार को यह पता नहीं लगता? ’ अब आक्रमण का समाचार आने पर उसने कहा कि आपका कहना ही ठीक था कि आज भी यह आक्रमण जारी है।
दुःख की बात यह पं.नेहरू ने कहा था कि ऐसी परिस्थिति में कोई भी वार्ता नहीं की जाएगी, परंतु वार्ता करने की उनके मन की तैयारी प्रकट हो रही है। पहले का निर्णय बदल चुका है और अब चाऊ-एन-लाई से वार्ता करने की बात लगभग पक्की हो चुकी है। ”
एक पत्रकार ने इसी वार्ता में एक और प्रश्न पूछा, ”चार-पाँच वर्ष पूर्व जब आपने इस बात का रहस्योद्घाटन किया था, उस समय क्या आपसे सरकार ने कुछ पूछा था या आपने स्वयं ही उसे कुछ बताया था?
उत्तर: नहीं-। मेरे बताने की आवश्यकता ही क्या थी? उसी अवधि में गोरखपुर से निकलने वाले मासिक ’ कल्याण ’ में श्री मिरजकर ने एक लेख में लिखा था कि कैलाश व मानसरोवर की यात्रा करते समय रास्ते में चीन की चौकियाँ पड़ती हैं और उन चौकियों पर यात्रियों के संपूर्ण सामान की तलाशी लेने के पश्चात् ही उन्हें आगे जाने दिया जाता है।”
रामलीला मैदान के ही अपने भाषण में उन्होंने जो कहा वह आज पहले से भी अधिक प्रासंगिक लगता है। चीन की विश्वासघात करने की प्रवृत्ति के बारे में उन्होंने कहा “चीन ने तो स्पष्ट रूप से लोगों को चेतावनी दे दी थी कि वह कोई शांतिप्रिय नहीं है- आक्रमण न करने करने की संधि को माननेवाला नहीं है। वह आक्रमण करने पर तुला है। उसके ऐसे सब कृत्यों को देखने के पश्चात् भी अगर किसी ने विश्वास रखा होगा कि चीन तो अपना भाई है, इसलिए वह हम पर आक्रमण नहीं करेगा, तो गलती विश्वास करनेवाले की है। चीन की ओर से विश्वासघात के रूप में कुछ हुआ नहीं, क्योंकि उसने तो कभी विश्वास दिलाया ही नहीं था। यह कहना ठीक नहीं कि चीन ने विश्वासघात किया।कहना यह चाहिए कि हम लोगों ने ही चीन की प्रकृति को समझा नहीं।”