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तकनीकें, जो बदल देंगी जिंदगी

तकनीकें, जो बदल देंगी जिंदगी

by अभिषेक कुमार सिंह
in तकनीक, सामाजिक, सितंबर २०१९
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तकनीक की दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। वाईफाई से कई गुना तेज लाईफाई, सूर्य प्रकाश को ऊर्जा में बदलने वाले सेंसर, बिग डाटा का चमत्कार, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, आईओटी जैसी प्रौद्योगिकी ऐसी बाजीगरी दिखाएंगी कि जिसकी सपनों में भी हमने कल्पना नहीं की थी।

दशकों तक मेज पर रखे जाने वाले भारी-भरकम और लंबे-चौड़े टेलीफोन इस्तेमाल करने वाली दुनिया में किसने सोचा था कि एक दिन ऐसा आएगा, जब फोन मेजों पर नहीं, लोगों की जेबों में रखे होंगे या स्मार्टवॉच की तरह कलाई पर बंधे होंगे? और फिर जब मोबाइल फोन आ जाएंगे, तो उन्हें चार्ज करने के लिए हर वक्त यह देखना होगा कि उनके चार्जिंग प्वाइंट कहां हैं? बस-ट्रेन से कहीं जा रहे हों, तो और मुसीबत पैदा हो जाती है। आम तौर चार्जिंग प्वाइंट होते नहीं हैं, यदि होते हैं तो उन पर फोन चार्ज करने वालों की भीड़ लगी रहती है। हालांकि इसका एक विकल्प पावर बैंक अरसे से देते रहे हैं, पर संभालकर रखने के अलावा उन्हें भी तो चार्ज करना पड़ता है। लेकिन जरा ठहरिए, विज्ञान ने इसके विकल्प की दिशा में भी काम किया है। अमेरिकी शोधकर्ता ने एक ऐसा सोलर पैनल विकसित किया है, जिसे आसानी से मोड़कर छोटे से बैग या जेब तक में रखा जा सकता है। पैनल खोलने के बाद यह सूरज की किरणों को अवशोषित करने लगता है और तब इससे 3 वॉट तक बिजली पैदा की जा सकती है। मोबाइल फोन और छोटे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट चलाने के लिए इतनी ऊर्जा काफी होती है। इस सोलर पैनल को प्लास्टिक की एक पतली फिल्म पर ‘एचईएलआई-ओएन’ स्ट्रिप चिपका कर तैयार किया जाता है, जिस पर सोलर सेल प्रिंट होते हैं। इसी तरह यूएवी ड्रोन यानी अनमैन्ड एरियल व्हीकल के अविश्वसनीय कारनामे अब तो हमारे देश में भी देखने को मिल रहे हैं। महंगी शादियों में ड्रोन पर लगे कैमरे शादी की पूरी चहल-पहल रिकॉर्ड कर रहे हैं, तो कुछ फिल्मों में ड्रोन से आसमानी दृश्य फिल्माए जाने लगे हैं। ड्रोन से पिज्जा डिलीवरी और दिल्ली से लेकर अहमदाबाद तक ट्रैफिक आदि की निगरानी में उनकी मदद ली जा रही है। ये दृश्य अब तक बेहद आम हो चुके हैं, पर तकनीक की दुनिया असल में इससे भी कहीं तेजी से बदल रही है और हमारी रोजमर्रा की जिंदगी पर असर डाल रही है।

लाईफाई का चमत्कार:

इंटरनेट से जुड़े लोगों ने अभी तक वाई-फाई तकनीक का ही सुख भोगा है, जिसमें बिना किसी तार का इस्तेमाल किए एक साथ कई स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप आदि पर इंटरनेट चलाया जा सकता है। वाईफाई कनेक्शन पर मिलने वाली स्पीड ने इंटरनेट सर्फिंग में काफी इजाफा भी किया है। पर अब इसमें एक नया चमत्कार जुड़ रहा है। इस तकनीकी चमत्कार का नाम है लाइट फिडिलिटी यानी लाईफाई। वैज्ञानिकों का दावा है कि वाईफाई की तुलना में लाईफाई से चलाया जाने वाला इंटरनेट आज के मुकाबले 224 गुना ज्यादा तेज होगा। इसे इससे समझा जा सकता है कि लाईफाई की मदद से पलक झपकते ही यानी एक सेकेंड में 18 फिल्में किसी भी गैजेट पर डाउनलोड की जा सकती हैं। अमेरिका के एस्टोनिया में किए गए एक प्रयोग के दौरान लाईफाई कनेक्शन से प्रति सेकेंड एक जीबी (गीगाबाइट) डाउनलोडिंग की स्पीड हासिल की गई जो पारंपरिक वाईफाई के मुकाबले 100 गुना ज्यादा तेज है।

वाईफाई और लाईफाई में असली फर्क तरंगों का है, जिससे उनके जरिये मिलने वाले डाटा और संकेतों की गति में अंतर आता है। वाईफाई में ट्रांसमिट किया जाने वाला डाटा रेडियो तरंगों के जरिये मिलता है, जबकि लाईफाई का आधार हैं प्रकाश तरंगें। रेडियो तंरगों की सीमाओं के चलते इंटरनेट से डाटा (शब्द, वीडियो आदि) भेजना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि दुनिया अब बहुत ज्यादा डाटा प्रतिदिन पैदा करने लगी है। इस कारण इंटरनेट के धीमे पड़ने का खतरा पैदा हो गया है। पर लाईफाई तकनीक इसका आसान समाधान हो सकती है क्योंकि प्रकाश तरंगों का स्पेक्ट्रम रेडियो तरंगों के मुकाबले 10 हजार गुना ज्यादा होता है।

बाबू, समझो इशारे:

कैसा हो अगर कमीज का कॉलर छूने मात्र से आपका स्मार्टफोन चलने लगे या बेडरूम के पर्दे को हल्का से छूने पर कमरे की लाइटों को मद्धिम (धीमा) या तेज किया जा सके? अभी ये बातें किसी साइंस फिक्शन जैसा अहसास देती हैं, पर वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की कई टीमें ऐसे आविष्कार दुनिया में लाने पर काम कर रही हैं जो हम इंसानों के इशारों को समझकर सौंपे गए काम निपटा सकेंगी। ऐसे एक ‘प्रोजेक्ट सोली’ पर गूगल में काम हो रहा है जहां मनुष्यों की भाव-भंगिमाओं को पढ़कर काम करने वाली सेंसर तकनीक को वास्तविकता में ढाला जा रहा है। प्रोजेक्ट सोली के तहत छोटे माइक्रोचिप्स से बना रडार सिस्टम आसपास के क्षेत्र (दो से तीन फुट की रेंज) में इंसानों की उंगलियों के संचालन को पढ़ व समझ लेता है और उनके अनुसार खुद से जुड़े गैजेट्स को काम करने का आदेश देता है। यह तकनीक कारों, खिलौनों, फर्नीचर, घड़ियों और कंप्यूटर गेम्स आदि में आसानी से फिट की जा सकती है। अमेरिका में प्रोजेक्ट सोली से जुड़कर कई किस्मों की चीजें तैयार हो रही हैं, जैसे धातु से बने धागों से बनी एक ऐसी स्मार्ट जींस जिसे पहनने वाले लोग अपने कई गैजेट जींस के सहारे चला सकेंगे।

बिग डाटा से बड़ा क्या?

कभी आपने सोचा है कि फेसबुक, ट्विटर, माईस्पेस, यूट्यूब, जीमेल, गूगल आदि असंख्य वेबसाइटों के जरिए पूरी दुनिया जो डाटा यानी शब्द, चित्र, संख्याएं, वीडियो आदि यहां से वहां भेज और स्टोर कर रही है, उस डाटा का आखिर क्या होता है। इस डाटा को हालांकि एक संज्ञा- बिग डाटा दी गई है, पर फिलहाल इस बिग डाटा का बहुत सा हिस्सा असल में व्यर्थ ही सर्वरों में जमा होता रहता है और उनसे काम की बातें जरा कम ही निकलती हैं। पर अब एक बड़ी कोशिश बिग डाटा को काट-छांट कर उनसे दुनिया के लिए नायाब चीजें खोज निकालने की होने वाली है। जमा होने वाले डाटा का आकार कितना है, इसका एक अनुमान करीब एक दशक पहले वर्ष 2010 में गूगल के कार्यकारी अध्यक्ष एरिक श्मिट ने लगाया था। तब उनका अनुमान था कि हरेक दो दिन में दुनिया करीब 5 एक्साबाइट्स के बराबर डाटा पैदा कर डालती है। वर्ष 2014 आते-आते यह मात्रा दो गुना हो गई। यानी अब हर दिन में उससे भी कई गुना ज्यादा डाटा लोग अपने स्मार्टफोन और कंप्यूटरों के जरिये उत्पन्न कर रहे हैं जितना 2010 में दो दिन में जमा होता था। पहले यह डाटा सिर्फ इंटरनेट के जरिये यहां-वहां पहुंचता था, पर अब तो मोबाइल ऐप्स (फोन, टैबलेट आदि) के जरिये भी पैदा हो रहा है। अब कुछ प्रमुख कंप्यूटर कंपनियां- आईबीएम और इंटेल सर्वरों से होकर गुजरने वाले डाटा को कुछ ऐसे ताकतवर कंप्यूटरों में डाल कर संसाधित करने वाले हैं, जो फिलहाल कुछ चुनिंदा उद्देश्यों से उनमें से उपयोगी सूचनाएं छांटकर अलग कर सकेंगे। डाटा से ताल्लुक रखने वाली इंडस्ट्री (जैसे ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइटें) के लिए विशेष कप्यूटिंग डिवाइसें तैयार की हैं, जो उनके काम की सूचनाएं डाटा के विशाल समुद्र में से खंगालकर बाहर ला सकेंगी।

नए मुकाम पर आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस:

कृत्रिम बुद्धिमता या आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस का सपना साइंस बिरादरी अरसे से देख रही है और कहा जा रहा है कि कई मामलों में यह असली बुद्धिमता यानी हम इंसानों के दिमाग को पछाड़ देगी। पर ये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस है क्या? आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का जन्मदाता कहलाने वाले प्रख्यात साइंटिस्ट जॉन मैकार्थी के अनुसार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस साइंस और इंजीनियरिंग का ऐसा मिश्रण है जिसका उद्देश्य इंटेलिजेंट मशीनें बनाना है। इस तरह की इंटेलिजेंस कंप्यूटर संचालित मशीनों को खुद फैसले लेने में सक्षम बनाने से संबंधित है। ऐसी मशीनों को कोई काम करने के लिए हर वक्त हम इंसानों से आदेश लेने की जरूरत नहीं होती। असल में यह कृत्रिम तरीके से विकसित की गई बौद्धिक क्षमता है। यह कंप्यूटर और उसके प्रोग्रामों को उन्हीं तर्कों के आधार पर चलाने का प्रयास है जिसके आधार पर मानव मस्तिष्क चलता है। मोटे तौर पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उद्देश्य यह है कि कंप्यूटर यह चीज खुद तय कर लें कि उनकी अगली गतिविधि क्या होगी। इसके लिए कंप्यूटर को अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया चुनने के लिए तैयार किया जाता है। इसके पीछे यही कोशिश होती है कि कंप्यूटर मानव की सोचने की प्रक्रिया की नकल कर पाए। इसका उदाहरण है, शतरंज खेलने वाले कंप्यूटर। ये कंप्यूटर प्रोग्राम मानव मस्तिष्क की हर चाल की काट और अपनी अगली चाल सोचने के लिए तैयार किए गए। अतीत में दुनिया देख चुकी है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की ताकत से लैस आईबीएम के सुपर कंप्यूटर डीप-ब्लू ने किस तरह दुनिया के नंबर वन शतरंज खिलाड़ी गैरी कास्परोव को हरा दिया था। पर अब दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कौन-सा नया करिश्मा देखने जा रही है? इसके दो या तीन चमत्कार होने की उम्मीद है। जैसे, कंपनी माइक्रोसॉफ्ट आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से लैस मशीन को स्काइप ट्रांसलेटर के साथ जोड़कर वह मशीन किसी एक भाषा की बातचीत के लहजे और भाव को समझते हुए रियल टाइम में दूसरी भाषा में उसी लहजे और भाव के साथ पेश करेगी। यह मशीन न केवल संवाद के टोन (लहजे) को पकड़ सकेगी, बल्कि उसी दक्षता के साथ उसे दूसरी (अनुवादित) भाषा में सुनाएगी।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का एक अन्य प्रयोग एक कंप्यूटर प्रोग्राम- ईयुजीन ग्रूट्समैन के साथ किया जा रहा है। इसमें यह कंप्यूटर अपनी बेमिसाल नकली बुद्धिमता से ठीक उसी तरह इंसानों को मूर्ख बनाने की कोशिश करेगा, जैसा कि अक्सर ठग और जालसाज किया करते हैं। माना जा रहा है कि जिस दिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से लैस कंप्यूटर हम इंसानों को उल्लू बनाने में कामयाब हो गया, उस दिन बुद्धिमता पर हमारी बादशाहत खत्म हो जाएगी और एक दिन दुनिया पर मशीनों का राज कायम हो जाएगा।

तीसरा प्रयोग गूगल के डेमिस हस्साबिस कर रहे हैं जिससे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भविष्य तय हो सकता है। वह असल में अपनी मशीनों से इंटेलिजेंस की पहेली को हल करने की कोशिश करने वाले हैं। उनकी बेताबी यह पता लगाने की है कि क्या सिलिकॉन जैसे तत्व और कंप्यूटर कोडों के बीच बुद्धिमता पैदा की जा सकती है और वह काम कर सकती है। अगर यह पहेली या समस्या सुलझ गई, तो समझिए कि यह साल अगले 20-40 वर्षों में साइंस की दिशा बदलने वाले वर्ष के रूप में दर्ज हो जाएगा।

आवाज दो, हम क्या चाहेंः

दुनिया में अब एक नया क्रेज चुटकी बजाकर या आवाज देकर (वॉइस कमांड से) गैजेट्स को कंट्रोल करने का है। आवाज सुनकर काम करने वाली ये मशीनें असल में वर्चुअल असिस्टेंट हैं, जिनके कई नमूने इन दिनों अमेजन के एलेक्सा, एप्पल के सिरी और गूगल असिस्टेंट के रूप में पहले से हाजिर हैं। अब चुनौती इन्हें और ज्यादा बेहतर बनाने की है, ताकि ये उपयोगकर्ताओं (यूजर्स) के ज्यादा से ज्यादा सवालों को समझ सके और उसका जवाब दे सके। हाल में, एक कंपनी- लूप वेंचर्स ने इन वर्चुअल असिस्टेंट पर एक टेस्ट भी किया, ताकि पता लगाया जा सके कि इस्तेमाल करने वालों के कमांड को समझने में इनमें से कौन सा वर्चुअल असिस्टेंट सबसे बेहतरीन है। इसके लिए करीब 800 सवाल पूछे गए। नतीजा निकला है कि अमेजन के एलेक्सा और एप्पल के सिरी के मुकाबले में गूगल असिस्टेंट ज्यादा बेहतर है। किए गए टेस्ट में गूगल असिस्टेंट ने 92.2 फीसदी, एप्पल के सिरी ने 83 फीसदी और अमेजन के एलेक्सा ने 80 फीसदी सवालों के सही जवाब दिए। पिछले साल कराए गए समान टेस्ट में इनके कामयाबी का प्रतिशत क्रमशः 88, 75 और 72.5 था, जिससे साबित होता है कि वर्चुअल असिस्टेंट की क्षमता में साल-दर-साल इजाफा हो रहा है। ध्यान रहे कि ये टेस्ट पांच कसौटियों को परखते हुए किए गए। ये कसौटियां थीं- कॉलिंग, मैसेजिंग, ईमेल भेजना, कैलेंडर याद रखना और महत्व की तारीखें फौरन बताना और म्यूजिक प्ले करना।

जुड़ो और आगे बढ़ोः इंटरनेट ऑफ थिंग्स

बचपन में यह गीत खूब सुनते थे- साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा….। वैसे तो मशीनें आगे बढ़कर इंसानों के प्रायः हर काम में मददगार साबित हो रही है पर क्या हो, जब एक मशीन ही दूसरी मशीन के काम आने लगे। यह मुमकिन हो रहा है इंटरनेट ऑफ थिंग्स नामक तकनीक के जरिए। असल में, स्मार्ट होती तकनीक में एक नया दौर इंटरनेट के जरिए एक-दूसरे से जुड़ी मशीनों का है जिसमें कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर से लैस मशीनें काम करते वक्त एक दूसरे का सहयोग करती हैं। जैसे सेल्फ ड्राइविंग कारें, स्मार्ट टेलीविजन, बच्चों के खिलौने, फ्रिज, इंडस्ट्रियल किट अब हमारे निर्देश पर एक दूसरे से कनेक्ट होते हुए काम करने लगे हैं। इस तकनीक को इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आईओटी- खजढ) कहा जाता है। इसमें तमाम गैजेट और यंत्र-उपकरण आपस में कनेक्ट किए जाते, ताकि ये आपस में निर्देशों-संकेतों को साझा करते हुए एक दूसरे का सहयोग कर सकें। मिसाल के तौर पर एक अंतरराष्ट्रीय कार निर्माता कंपनी चॠ मोटर्स (मॉरिस गैरेजेज़) ने कुछ माह पहले जून, 2019 में एक नई कार- एमजी हेक्टर भारतीय बाजार में पेश की, जिसके बारे में कंपनी ने दावा किया कि यह भारत में पेश की पहली ऐसी कार है जो इंटरनेट से जुड़ी हुई है। कंपनी के मुताबिक इस कार में इंटरनेट ऑफ थिंग्स तकनीक वाली आईस्मार्ट नेक्स्ट जेन प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया गया, जिससे यह कार इंटरनेट से जुड़ी कई तरह की सेवाएं दे सकती है। इस तकनीक की मदद से कार चलाने वाला शख्स केवल स्क्रीन छूकर या मौखिक आदेश देकर पूरी कार को नियंत्रित कर सकता है। ह्युंदै आदि कुछ अन्य कार कंपनियों ने भी इसी तरह की कारें बाजार में उतारी हैं।

बताते हैं कि इंटरनेट ऑफ थिंग्स का विचार अब से करीब चार दशक पहले 1982 में अमेरिका की कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों को तब आया था, जब उन्होंने एक कोक मशीन को इंटरनेट से जोड़ा था। यह मशीन अपने भीतर रखे गए सॉफ्ट ड्रिंक्स की बोतलों की संख्या का हिसाब रख सकती थी और उनके तापमान का आकलन कर लेती थी। हालांकि आईओटी (खजढ) यानी इंटरनेट ऑफ थिंग्स नामक शब्द की ईजाद का श्रेय टेक्नोलॉजी के ब्रिटिश विशेषज्ञ केविन एशटन को जाता है, जिन्होंने पहली बार इसका इस्तेमाल किया था और कहा था कि आईओटी एक ऐसी प्रणाली है, जो हर जगह मौजूद इंटरनेट को विभिन्न उपकरणों के सेंसरों के माध्यम से भौतिक या फिर इलेक्ट्रॉनिक दुनिया को आपस में जोड़ती है।

यहां सवाल पैदा होता है कि आखिर दुनिया में ऐसे कितने गैजेट या डिवाइसें हैं, जो एक दूसरे से कनेक्ट होकर इंटरनेट ऑफ थिंग्स की अवधारणा को साकार कर रही हैं। इसका एक जवाब नेटवर्किंग से जुड़े उत्पाद बनाने वाली कंपनी ‘सिस्को’ ने दिया है। ‘सिस्को’ के मुताबिक वर्ष 2015 में करीब 15 अरब डिवाइसें एक दूसरे से कनेक्ट होकर काम कर रही थीं। ‘सिस्को’ का अनुमान है कि 2020 में यह आंकड़ा 50 अरब तक पहुंच जाएगा। हालांकि रिसर्च फर्म ’गार्टनर’ के अनुसार 2020 तक 26 अरब डिवाइसेज आपस में कनेक्ट होंगी, जबकि एक अन्य कंपनी वेरिजॉन का दावा है कि अभी एक से डेढ़ अरब डिवाइसें ही आपस में जुड़ी हुई हैं। दुनिया में जैसे-जैसे स्मार्ट सिटीज, स्मार्ट ट्रैफिक सिस्टम, स्मार्ट कारें, मोबाइल हेल्थ, स्मार्ट ग्रिड आदि का चलन बढ़ेगा, इंटरनेट से जुड़े कंप्यूटर और सेंसर ‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ का सहारा लेकर लोगों की सुविधाओं और योग्यता में अभूतपूर्व इजाफा कर देंगे। यही नहीं, आम घरों में भी सेंसरयुक्त स्क्रीन से लैस फ्रिज, इंटरनेट से जुड़े स्मार्ट टीवी, बिजली कंपनी के सॉफ्टवेयर से जुड़े स्मार्ट मीटर आदि चीजें हमारे जीवन में‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ की बढ़ती दखल की प्रतीक हैं। इनमें से कई डिवाइसें ऐसी हैं, जो हमारी जीवनशैली में कोई खलल नहीं पैदा करतीं, लेकिन उनकी मौजूदगी से हमें कई फायदे होने लगते हैं। जैसे बिजली कंपनी के ऐसे स्मार्ट सॉफ्टवेयर, जो हमारी जरूरतों और उपभोग पर नजर रखते हैं, हमारी जीवनशैली से कोई समझौता किए बगैर बिजली की खपत में बचत के तरीके लागू कर देता है।

आईओटी यानी बाजीगर, ओ बाजीगरः

इंटरनेट ऑफ थिंग्स तकनीक को एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। मिसाल के तौर पर अभी कपड़े के किसी स्टोर में एक शख्स को जींस खरीदनी है, तो स्टोर के जींस सेक्शन में जाकर उसे अपनी पसंद के रंग, डिजाइन और ब्रांड वाली जींस की खोजबीन करनी होती है। यदि इन सारी कसौटियों पर खरी उतरने वाली जींस आपको मिल जाए, तो जरूरी नहीं कि वह आपके साइज की हो। ऐसे में स्टोर का कर्मचारी दूसरे सेक्शन में जाकर वैसी जींस खोजता है और तब वह जो जींस लाता है या तो उसका रंग अलग होता है या उसकी डिजाइन में अंतर होता है। ऐसी स्थिति में या तो लोग स्टोर से बाहर निकल आते हैं या फिर ऐसी चीज खरीद लेते हैं जो उन्हें वास्तव में पसंद नहीं है। इंटरनेट ऑफ थिंग्स से यह परिदृश्य पूरी तरह बदल जाता है। आपकी खरीद के पिछले विवरणों के आधार पर आपकी स्मार्ट वॉच और स्मार्ट फोन पहले से बता देते हैं कि फलां स्टोर के अमुक सेक्शन में आपकी पसंद की जींस इतनी कीमत में उपलब्ध है। स्टोर जाकर यदि आप वह जींस लेते हैं, तो जरूरी नहीं कि उसका भुगतान करने के लिए आपको काउंटर पर जाना पड़े। आप यह काम अपने स्मार्ट फोन पर महज एक बटन प्रेस करते हुए कर सकते हैं, जिससे आपके खाते से जींस की कीमत के बराबर रकम कट जाएगी और इसकी सूचना नोटिफिकेशन के रूप में आपको ईमेल और एसएमएस से मिल जाएगी। असल में, मौजूदा दुनिया में हमारे आसपास कई ऐसे गैजेट आ चुके हैं जो न सिर्फ हमारी जरूरतों, चाल-ढाल, दिनचर्या का हिसाब-किताब रख लेते हैं और परस्पर कनेक्ट होते हुए कई काम स्वतः ही निपटा लेते हैं। जैसे अब बाजार में ऐसे पंखे- लाइट बल्ब और एयर कंडीशनर मौजूद हैं, जो मोबाइल फोन से कनेक्ट हो जाते हैं और उन्हें फोन से एक निर्देश (कमांड) देकर चालू या बंद किया जा सकता है या उनका तापमान आदि नियंत्रित किया जा सकता है। आने वाले वक्त में ऐसा भी हो सकता है जब रेफ्रिजरेटर अपने अंदर मौजूद सामानों का हिसाब लगाकर हमारी जरूरत के मुताबिक खत्म हो चुके सामान का ऑनलाइन ऑर्डर किसी स्टोर को दे दे। या फिर कार को गेट से भीतर प्रवेश करते देख गेट पर लगा सीसीटीवी कैमरा घर के सुरक्षा तंत्र को गैराज का गेट खोल देने और वहां की लाइटें जलाने का निर्देश दे दे। कुछ ऑटोमोबाइल कंपनियां ऐसी कारें भी प्रायोगिक स्तर पर बना चुकी हैं, जो व्यक्ति को उसके घर या दफ्तर के नियत स्थान पर उतारने के बाद पार्किंग में जाकर खुद ही पार्क हो जाती हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें मोबाइल से एक मैसेज भेजकर घर या दफ्तर के दरवाजे पर हाजिर होने का आदेश दिया जा सकता है। असल में खुद पार्क हो जाने वाली कार का कंप्यूटरीकृत सिस्टम अपने सेंसरों और पार्किंग के उपकरणों से जुड़कर वहां मौजूद खाली स्थान का पता लगा लेता है। यह कंप्यूटर बिल्डिंग के नक्शे को देखकर खाली जगह का आकलन करता है और कार को उस स्थान पर ले जाकर सेंसरों से खाली जगह और कार के आकार का मिलान करते हुए कार को सुरक्षित ढंग से पार्क कर देता है। इस तकनीक में कंप्यूटर, इंटरनेट और सेंसरों का आसपास में तालमेल, दिशाज्ञान, खाली स्थान का आकलन और कार व जगह के आकार का आकलन ही इंटरनेट ऑफ थिंग्स की उपयोगिता दर्शाता है।

मोटे तौर पर कोई भी आईओटी सिस्टम चार अलग-अलग घटकों को साथ मिलाकर काम करता है। ये 4 घटक हैं-1. उपकरण (गैजेट) और उसमें लगे संवेदनशील सेंसर, 2. इंटरनेट आदि के जरिए दूसरे गैजेट्स के साथ कनेक्टिविटी, 3. डाटा प्रोसेसिंग (परस्पर कनेक्टेड गैजेट जितनी तेजी से डाटा की प्रोसेसिंग करेंगे, उतनी ही तेजी से कोई काम सम्पन्न हो सकता है और, 4. यूजर इंटरफेस। पूरी प्रक्रिया में कोई गैजेट अपने सेंसर से आसपास के माहौल या गतिविधि का डाटा जमा करता है और उस डाटा को इंटरनेट पर क्लाउड आदि तकनीक से आगे भेजता है। गैजेट की तरह सेंसर्स भी ब्लूटूथ, वाईफाई, सेलुलर या सैटेलाइट के जरिए अपना डाटा क्लाउड को भेजता है। क्लाउड पर डाटा पहुंचने के बाद वहां मौजूद सॉफ्टवेयर एक बार फिर उसकी प्रोसेसिंग करते हैं और स्थिति के मुताबिक फैसला लेते हुए आगे की कार्यवाही करते हैं। मिसाल के तौर पर किसी दफ्तर में अगर तापमान नापने और उसका नियंत्रण करने वाले सेंसर आईओटी तकनीक से लैस हैं, तो ये सेंसर वहां का तापमान दर्ज करते हुए क्लाउड पर भेजते रहेंगे। यदि किसी समय ज्यादा लोगों की उपस्थिति या किसी खराबी के कारण तापमान ज्यादा उतार-चढ़ाव आता है तो इस घट-बढ़ को दर्ज कर ये सेंसर यह सूचना आगे भेजते हैं, जहां से तापमान को दुरुस्त करने निर्देश जारी हो सकते हैं। अभिप्राय यह है कि इस तकनीक की मदद से किसी भी चीज की जानकारी संबंधित लोगों या सिस्टम तक आसानी से और बेहद कम समय में पहुंच जाती है।

Tags: #cruisemissilebrahmosandroidapplecomputerseducationgadgetsprogrammingsmartphonesoftware

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