झमटमल वाधवाणी

महान योगी, हिंदुत्व के निष्ठावान समर्थक, भारत माता के लाल, सिंधीयत के महान सुपुत्र दादा झमटमल वाधवाणी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एक ही समय में अनेक महान कार्य वह सफलता पूर्वक करते थे। बाल्यकाल से ही साध्य किया हुआ यह कौशल दिन-ब-दिन प्रखर होता गया।

लगता है परमात्मा ने हिंदुत्व का आधार लेकर विश्व कल्याण के साथ-साथ सिंधीयत के इस श्रेष्ठ चिंतक को सिंधीयत के देवदूत के नाते जन्म दिया होगा।

महापुरुष की तरह जीवन के आखिरी क्षण तक उन्होंने राष्ट्र कार्य के साथ सिंधी भाषा, सिंधी क्लास (वर्ग), सिंधी पाठ्यक्रमानुसार उनकी परीक्षा, सिंधी समाज की पंचायतों के संगठन, अखिल भारतीय संगठन आदि की जिम्मेदारी उठाई। उन्हें दूरदर्शन पर सिंधी कार्यक्रम प्रदर्शित की जाने की चिंता लगी रहती थी। मृत्यु के दो दिन पूर्व तक वे पूछताछ तथा मार्गदर्शन करते रहे। सब को साथ लेकर कार्य करने का आग्रह करते रहे।

नौकरी छोड़कर संघ कार्य

दादा झमटमल का जन्म सिंध प्रांत के सकर जिले में 10 मार्च 1921 को हुआ। बचपन से ही उनकी पढ़ने में अत्यंत रुचि थी। सिंध में ही एल. एल. बी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे आयकर अधिकारी के शानदार पद पर नौकरी करने लगे। 1939 में जब उनकी आयु 18 वर्ष की थी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम सिंध प्रांत में शुरू हुआ और वे संघ के सक्रिय स्वयंसेवक बने तथा अल्प समय में पदाधिकारी बन गए। उन दिनों कराची में संघ कार्य का भार चंद्रशेेखर भुशीकर वहन कर रहे थे। स्वयं डॉ. हेडगेवार ने ही यह जिम्मेदारी उन पर सौंपी थी

सरकारी कानून की वजह से आयकर अधिकारी के नाते काम करते हुए संघ का काम करने में बहुत कठिनाइयां आती थीं। देशभक्ति की भावना के कारण नौकरी को तिलांजलि देकर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम करने के लिए वापस हैदराबाद (सिंध) में आ गए। यहां संघ के काम के साथ ही बैरिस्टर होतचंद गोपालदास आडवाणी (जो वाधवाणी तथा अन्यों के प्रयत्न से सिंध प्रांत के संघचालक बने) की फर्म में आयकर विभाग में अधिकारी की हैसियत से नौकरी करने लगे। वे सिंध प्रांत प्रचारक राजपाल पुरी के दाहिने हाथ थे। सिंध प्रांत की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आर्थिक व्यवस्था की जिम्मेदारी भी उन पर थी।

कारावास

विभाजन के बाद मुंबई में आकर झमटमल वाधवाणी आयकर संबंधी व्यवसाय करने लगे, साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुंबई के बौद्धिक प्रमुख के नाते भी काम करने लगे। कुछ समय बाद वे सी. ए. (चार्टर्ड एकाउंटेंट) हो गए। 1951-52 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई और 1957 में वे महाराष्ट्र के सचिव बने। उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे भारतीय जनता पार्टी के अखिल भारतीय कोषाध्यक्ष भी रहे। झमटमल वाधवाणी भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। आपातकाल में 19 महीने जेल में थे। हंसते-हंसते, अध्ययन करते हुए उन्होंने वह काल व्यतीत किया। महाराष्ट्र स्टेट फाइनांशियल कॉर्पोरेशन के वे अध्यक्ष थे। संघ परिवार के सभी संगठनों के वे किसी न किसी प्रकार सहायक थे।

हशू अडवाणी के साथ उन्होंने टूटे-फूटे चार कमरे लेकर विवेकानंद एज्ाूकेशन सोसायटी का काम आरंभ किया। आज इस संस्था में 17 हजार विद्यार्थी और 24 प्रकार के पाठ्यक्रम चलते हैं। झमटमल वाधवाणी करीब 45 वर्ष इस संस्था के अध्यक्ष रहे।
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवाणी के साथ झमटमल वाधवाणी के घरेलू संबंध थे। संघ परिवार के सभी अधिकारियों के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे।

सिंधी समाज रक्षक

1979 में भारतीय सिंधु सभा की स्थापना की गई और आरंभ से ही वे इसके अध्यक्ष रहे। उन्होंने इस सभा का व्यापक विस्तार किया। वर्तमान में इसकी 200 से अधिक शाखाएं एवं हजारों कार्यक़र्ता हैं।

संघ और संघ परिवार ने जो भी सत्याग्रह किए उनमें झमटमल वाधवाणी का सहयोग था।
अधिकार व वरीयता होते हुए भी केंद्र में भाजपा की सत्ता आने पर झमटमल वाधवाणी को किसी भी पद की अपेक्षा नहीं थी। लालकृष्ण अडवाणी तो उनके मित्र ही थे, परंतु समय निर्धारित किए बिना झमटमल वाधवाणी कभी कोई काम लेकर उनके पास नहीं गए। विवेकानंद शिक्षण संस्था से संबंधित कार्य तो सामाजिक ही था फिर भी झमटमल वाधवाणी ने उसके लिए किसी के पास भी दुराग्रह का प्रयत्न नहीं किया। उन्हें बार बार दिल्ली आना न पड़े, इसलिए जब कोई कहता कि अन्य सहकारियों को वे याद दिला देंगे तो वाधवाणी कहा करते, ‘भई मैं आऊंगा, काम मेरा है।’ हम जब भी कोई अच्छा काम करते तो, वे फोन पर हमारी प्रशंसा किया करते, दूसरों को भी बताया करते। मुंबई में महिलाओं के लिए विशेष लोकल चलाने का विषय हो या वैश्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण सूडान से किया गया तेल का अंश पूंजी (शेअर कैपिटल) करार हो, झमटमल वाधवाणी सदैव अग्रसर रहे। अन्यों को कार्य-प्रवृत्त करने वाला, नई पीढ़ी की ओर सकारात्मक दृष्टि से देखने वाला यह महान व्यक्ति कालवश हो गया। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि संघ संस्कारों तथा संघ के कार्य के कारण ही मेरा जीवन सार्थक हुआ है। हम उन्हीं के संस्कारों में पले-बढ़े हैं इसलिए शोकमग्न न रहकर हमारा कार्य गति से करते रहें यही उनकी प्रेरणा थी। फिर भी, ‘क्योें राजा! कैसे हो?’ की प्रेम पूर्वक पुकार अब सुनाई नहीं देने की चुभन सदैव मन में रहेगी।
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