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क्रांतिकारी उत्तरयोगी श्री अरविंद

क्रांतिकारी उत्तरयोगी श्री अरविंद

by अलोक भट्टाचार्य
in दिसंबर -२०१४, व्यक्तित्व
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योगी अरविंद के कुछ विचार तो इतने ज्यादा बौद्धिक हैं कि चमत्कृत तो करते ही हैं, नई राह भी दिखाते हैं। इसीलिए विश्व के प्रसिद्ध दार्शनिकों में उनका नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है। विश्व के बड़े शिक्षविदों में भी उनका प्रमुख स्थान है। योगी के तौर पर तो उन्हें अभिनव महत्व हासिल है- उन्हें ‘उत्तरयोगी’ कहा जाता है, यानी योग के बल पर ही जो योग से आगे निकल चुका है।’ 5 दिसम्बर उनका स्मृति दिवस है।

हर दृष्टि से वह क्रांतिकारी थे। बंगाल में चल रहे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जिस ‘अनुशीलन समिति’ ने अपने अत्यंत साहसिक अभियानों से तीव्र गति तो दी ही, गोरों के मन में आतंक पैदा किया, उनके मन में यह बात गहराई तक पैठा दी कि आज नहीं तो कल, शीघ्र ही, उन्हें भारत छोड़कर जाना ही होगा, उस ‘अनुशीलन समिति’ की स्थापना में युवा अरविंद की प्रमुख भूमिका रही। शिक्षाविद् के तौर पर भी वह क्रांतिकारी रहे। उन्होंने पहली बार कहा कि ‘शिक्षक मात्र प्रशिक्षक भर ही नहीं होता। वह सहायक, पिता और बड़े भाई की तरह स्नेही और गुरु की तरह मार्गदर्शक भी होता है।’ उन्होंने कहा कि साधारण नित्य-नैमित्तिक कार्यों (रटना, एक ही पाठ को बार-बार लिखना, पहाड़-सा गृहकार्य निपटाना आदि) में डलझाकर छात्रों की नैसर्गिक प्रतिभा का दमन करना सर्वथा अनुचित है, बल्कि अपराध है।

इसी प्रकार दार्शनिक के तौर पर भी वह तब क्रांतिकारी प्रमाणित होते हैं, जब कहते हैं कि अत्यंत साधारण मनुष्य भी भौतिकता का साधारण जीवन जीते हुए सिर्फ समाज-सेवा के माध्यम से अपने मानस को ‘अति मानस’ (र्डीशिीाळपव) और खुद को ‘अतिमानव’ (र्डीशिीारप) के स्तर तक पहुंचा सकता है।

एक योगी के स्तर पर भी श्री अरविंद क्रांतिकारी सिद्ध होते हैं जब वह कहते हैं, ‘योग का अर्थ जीवन को त्यागना नहीं, बल्कि जीवन से अधिकाधिक जुड़ना होता है। योग शब्द का अर्थ ही युक्त होना होता है।‘ श्री अरविंद योगी के रूप में तब वाकई क्रांतिकारी दिखाई देते हैं, जब वह कहते हैं कि सिर्फ बीहड़ आसन और कठिन प्राणायाम का अभ्यास करना ही योग नहीं, योग तो वह ‘मानसिक शिक्षा’ है, जिसके द्वारा भौतिक संसार में रहते हुए हम पराभौतिक उपलब्धियां हासिल कर सकते हैं। स्वयं को ईश्वरीय चेतना से जोड़ सकते हैं। जीवन को अधिक उपयोगी और आनंदपूर्ण बना सकते हैं।

उनके कुछ विचार तो इतने ज्यादा बौद्धिक हैं कि चमत्कृत तो करते ही हैं, नई राह भी दिखाते हैं। इसीलिए विश्व के प्रसिद्ध दार्शनिकों में उनका नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है। विश्व के बड़े शिक्षविदों में भी उनका प्रमुख स्थान है। और योगी के तौर पर तो उन्हें अभिनव महत्व हासिल है- उन्हें ‘उत्तरयोगी’ कहा जाता है, यानी योग के बल पर ही जो योग से आगे निकल चुका है।’ चमत्कृत करने वाली और आगे के नए चिंतन के लिए प्रेरित करने वाली उनकी एक उक्ति को ही लें- ‘सूचनात्मक ज्ञान कुशाग्र बुद्धि का आधार या परिचायक नहीं हो सकता।’

1908 में जब ‘अलीपुर षड़यंत्र केस’ और ‘अलीपुर बम कांड’ के योजनाकार होने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल की सज़ा सुनाई गई, तब उनके मन में कोई विकार, पश्चताप या भय या क्रोध की भावना पैदा नहीं हुई। वह लगभग स्थितप्रज्ञता की स्थिति में चले गए। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। अदालत में उनका मामला प्रख्यात न्यायविद देशबंधु चित्तरंजन दास ने लड़ा, लेकिन अरविंद इस सब से लगभग निर्लिप्त ही रहे। अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक और इटालियन सहित कुल सात भाषाओं के जानकार इस प्रकांड विद्वान की रुचि दर्शन, अध्यात्म और योग में ही रही। कारावास के दौरान उन्होंने इन्हीं विषयों पर ध्यान केंद्रित किया और साधना के दौरान उन्हें एक नई ही बात की प्रतीति हुई कि मात्र राजनीतिक आज़ादी से साधारण भारतीय स्वतंत्रता का वास्तविक स्वाद नहीं पा सकता। स्वतंत्रता का संपूर्ण आनंद लेने के लिए जिस मानसिक चेतना की आवश्यकता होती है, आम भारतीय जन में उसका नितांत अभाव है। वह शत-प्रतिशत आश्वस्त थे कि पूरे देश में राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए जो आंदोलन चल रहे हैं- अहिंसक या सशक्त-उनका सुपरिणाम देश को बहुत ही शीघ्र मिलने ही वाला है। देश निकट भविष्य में अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त होने ही वाला है। लेकिन जब आज़ादी आएगी, तब उस आज़ादी का संपूर्ण उपभोग वह भारतीय कर नहीं पाएगा, मानसिक चेतना, बौद्धिक जागृति और आध्यात्मिक-दार्शनिक दृष्टि के अभाव में जिसके व्यक्तित्व का समग्र विकास अब तक हुआ नहीं है।

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श्री अरविंद घोष को योग की प्राथमिक जानकारी एक मराठी सिद्धयोगी श्री विष्णु भास्कर लेले से मिली थी। अरविंद जब बड़ौदा नरेश के निजी सचिव पद पर थे, तब सिद्धयोगी लेले भी वहीं थे। अरविंद के भाई महान क्रांतिकारी बारींद्रनाथ घोष ने भी क्रांति की प्रेरणा इन्हीं योगी से प्राप्त की थी।

(ज्ञातव्य है कि आज़ादी के एक साल पहले, जब आज़ाद होना सुनिश्चित हो चुका था, तब श्वेतांबर जैन तेरापंथी संप्रदाय के आचार्य श्री तुलसी के मन में भी यही विचार आए थे, और उन्होंने जनता के व्यक्तित्व विकास के लिए अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया था।)
अरविंद देश की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए बहुत कुछ कर ही चुके थे। बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को तीव्र और परिणामदायी बनाने में अपनी प्रमुख भूमिका के ही कारण उन्हें कारावास भोगना पड़ रहा था। फिर उनके शेष तीनों भाई भी सशस्त्र क्रांति के अक्लांत योद्धा थे। उनमें से वारींद्रनाथ घोष (वारीन घोष या बारीन घोष) तो देश के प्रमुख क्रांतिकारियों में गिने जाने लगे थे। अत: जेल में ही अरविंद ने अपनी मानी योजना तय कर ली कि लोगों में मानसिक चेतना, बौद्धिक जागृति और आध्यात्मिक-दार्शनिक दृष्टि का विकास कर उनके समग्र उन्नत व्यक्तित्व का निर्माण करना, ताकि वे देश की आजादी का संपूर्ण उपभोग कर पाए।

कुछ लोगों ने उन्हें भगोड़ा कहा, भीरु कहा, लेकिन जेल से बाहर आकर अरविंद ने तमिलनाडु (तत्कालीन मद्रास) से जुड़े पांडिचेरी में अपना आश्रम बनाया। पांडिचेरी इसलिए कि तब वह भारत के ब्रिटिश शासन से अलग फ्रेंच शासित प्रदेश था और उन्हें वहां अंग्रेजों द्वारा सताए जाने की आशंका नहीं थी। आज पांडिचेरी ‘पुडुचेरी’ (2006 से) के नाम से जाना जाता है और भारत में केंद्रशासित राज्यों में से एक है। यहां का अरविंद आश्रम आज एक विश्वप्रसिद्ध पर्यटन केंद्र है। यह आश्रम ‘श्री ऑरोबिंदो आश्रम’ के नाम से जाना जाता है। यहीं रहकर अरविंद ने अनेक योगसिद्धियां प्राप्त कीं’। यहीं साधना करते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया कि समग्र जीवन-दृष्टि के माध्यम से ही ‘उदात्त सत्य के ज्ञान’ को प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने सिद्ध किया कि संसार में प्रचलित समस्त विज्ञानों से परे भी एक पराभौतिक विज्ञान है, जो विश्व की प्राकृतिक-भौतिक गतिविधियों का संचालन करता है। हम सभी जानते हैं कि आज भी विश्व के तमाम वैज्ञानिक उसी पराभौतिक विज्ञान की खोज में लगे हुए हैं।

पांडिचेरी में ही उन्हें एक फ्रेंच महिला मीरा अलफास्सा का सान्निध्य मिला, जो अरविंद की साधना-सहयोगिनी बनीं और ‘श्रीमां’ के तौर पर विख्यात हुईं। अरविंद ने अपना दर्शनशास्त्र बीस खंडों में ‘द मदर’ नाम से ही लिखा। इसी आश्रम में रहते हुए 5 दिसंबर 1950 को उन्होंने देह त्यागी।

शिक्षा को मात्र ‘शास्त्र’ नहीं, एक संपूर्ण विज्ञान बताने वाले महान शिक्षाविद्, जिन्होंने शिक्षकों के लिए मनोविज्ञान की जानकारी को अनिवार्य बताया, वरना वे छात्रों की मानसिकता समझ ही नहीं पाएंगे; एक महान दार्शनिक, जिन्होंने बताया कि मनुष्य की मस्तिष्क की धारणा की परिणति ‘अतिमानस’ की कल्पना और असी के अस्तित्व में है; एक महान योगी, जिन्होंने बताया कि आत्मज्ञान, सर्जनात्मकता और बुद्धिमत्ता के विकास के माध्यम से ‘जीवन से जुड़ना’ ही योग है; और एक महान क्रांतिकारी, जिसने सशस्त्र क्रांति की राह अपनाकर और सैकड़ों युवाओं को क्रांतिकारी स्वतंत्रता-योद्धा बनाकर देश की स्वतंत्रता को संभव बनाया-ऐसे महान साधक-योद्धा-चिंतक का अवदान इतना बड़ा है कि उसका आकलन कष्टसाध्य ही है। आज पूरा विश्व श्री अरविंद के अवदानों के आगे नतमस्तक है। मात्र 7 वर्ष की उम्र से ही इंग्लैंड में पढ़ाई के लिए भेज दिए गए अरविंद घोष ने अपनी अद्भुत मेधा, प्रतिभा, शिक्षा, ज्ञान और अनुभवों का पूरा निचोड़ देश को समर्पित कर दिया, जब कि उनकी चमत्कारिक प्रतिमा से प्रभावित होकर गुजरात के बड़ौदा नरेश ने उन्हें अपनी रियासत के शिक्षाशास्त्री और स्वयं अपने निजी सचिव पदों पर ऊंची तनख्वाह में नियुक्त किया था। कुछ समय तक सफलतापूर्व वहां काम करने के बाद सब कुछ छोड़-छाड़ कर संघर्ष और साधना का कंटकाकीर्ण मार्ग उन्होंने अपनाया, तभी तो ‘महर्षि’ कहलाए। सैकड़ों रुपयों की और तमाम विलासबहुल सुविधाओं वाली बडौदा नरेश की नौकरी छोड़कर वह मात्र 150 रुपये के मामूली वेतन पर कोलकाता के नवनिर्मित राष्ट्रीय महाविद्यालय के प्रिन्सिपल पद पर सिर्फ इसलिए चले आए कि वहां राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में लगे हुए विद्यार्थियों को शैक्षणिक सुविधाएं दी जानी थीं।
ऐसे साहसी, ऐसे त्यागी और ऐसे ज्ञानी महर्षि के स्मरण को शत-शत प्रणाम।
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