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नोटबंदी से आया नया युग

नोटबंदी से आया नया युग

by ॠषभ कृष्ण सक्सेना
in पर्यावरण, पर्यावरण विशेषांक -२०१७
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जब नोट गिने बगैर ही खरीदारी की जा सकती है, सारा काम पूरा हो सकता है तो गड्डियां साथ में लेकर क्यों चलना और आफत को न्योता क्यों देना? जब इतनी सहूलियत मिल रही है तो इसका फायदा नहीं उठाना बचपना ही कहा जाएगा। वैसे भी समय के साथ चलने में ही समझदारी होती है।

नोटबंदी के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के ऐलान के बाद पिछले करीब ढाई महीने में काले धन पर मार पड़ी हो या न पड़ी हो, एक बदलाव तो साफ नजर आया है। जो बदला है, वह है हमारा खर्च और खर्च करने का तरीका। आप सवेरे घर से बाहर निकलते हैं, पड़ोस की दुकान से दूध और ब्रेड खरीदते हैं, घर लौट आते हैं। ऑफिस के लिए निकलते हैं तो गाड़ी में पेट्रोल भरवाते हैं या ऑटो में बैठ जाते हैं। दोपहर को किसी रेस्तरां में खाना खा लेते हैं। रात को सब्जी खरीदते हैं। बिजली, फोन, गैस का बिल भी भरते हैं। लेकिन इसके लिए आपको बटुआ निकालने की जरूरत बहुत कम पड़ती है। दूध लेना हो या ब्रेड, सब्जी, राशन का सामान लेना हो; आपके पास क्रेडिट कार्ड या फिर पेटीएम जैसे मोबाइल वॉलेट से कीमत अदा करने का विकल्प मौजूद है। ऑटो का किराया भी पेटीएम से जा रहा है और पेट्रोल पंप पर तो कार्ड चल ही रहे हैं।

नकदी नदारद

वक्त बदल रहा है, कारोबार का तरीका बदल रहा है, बटुए के भीतर का नजारा भी बदल रहा है। नकदी कम नजर आ रही है, कार्ड ज्यादा नजर आ रहे हैं। कुछ अरसा पहले आप इस नजारे की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। लेकिन अब पटरी बाजार और हाट पर 2 रुपये की सब्जी भी आप पेटीएम की मदद से खरीद सकते हैं। दिलचस्प है कि यह केवल दिल्ली या मुंबई जैसे बड़े शहरों की कहानी नहीं है। पिछले दिनों मैं वृंदावन गया तो वहां कमोबेश हर दूसरी दुकान के बाहर पेटीएम का स्टिकर चिपका था और धड़ल्ले से उसका इस्तेमाल किया जा रहा था। दिल्ली में सरोजिनी नगर जैसे बाजार में कई दुकानदारों ने मिल कर एक कार्ड स्वाइप मशीन लगा ली है और सब उसका इस्तेमाल कर रहे हैं।

यह सब 8 नवंबर को रात 8 बजे के बाद ही हुआ है, जब प्रधान मंत्री ने 500 रुपये के पुराने नोट और 1000 रुपये के नोट बंद करने की घोषणा की थी। बेशक उन्होंने काले धन और भ्रष्टाचार पर चोट करने के लिए वह कदम उठाया था। लेकिन उसका सब से बड़ा फायदा यह हुआ कि नकदी पर हमारी निर्भरता मजबूरी में ही सही एक झटके में कम हो गई।

पहले थी नकदी ही नकदी

अभी तक नकदी का कितना बोलबाला था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि करीब 90 फीसदी सौदे और लेनदेन नकद में होते थे। इसीलिए 90 फीसदी दुकानदारों के पास न तो क्रेडिट कार्ड स्वाइप मशीनें थीं और न ही मोबाइल वॉलेट जैसा कोई इलेक्ट्रॉनिक साधन था। 80 फीसदी कामगारों को उनकी मजदूरी या वेतन भी नकदी में ही मिलते थे। जब प्रधान मंत्री के ऐलान के बाद 8 फीसदी मुद्रा गायब हो गई और नए नोटों की आवक धीमी रही तो खाली जेब बाजार में घूम रहे लोगों को घरों में रखे डेबिट कार्ड की याद आई, जिसका इस्तेमाल या तो एटीएम से रकम निकालने के लिए किया जाता था या गांव में बैंक खाते खुलवाने वाले उन्हें घरों के भीतर संदूक में रख कर भूल गए थे। मजबूरी में ही सही, जब उन्हें निकाला गया तो खरीदारी और कारोबार का तरीका ही बदल गया।

अब वॉलेट का बोलबाला

अब आपको ऑटो, टैक्सी, सब्जी, लॉण्ड्री, दूध, किराना जैसा सब कुछ नकद के बगैर ही मिल रहा है। यही वजह है कि ऑनलाइन भुगतान में जबरदस्त तेजी देखी गई है। पेटीएम ने तो नवंबर महीने में ही 14 करोड़ नए ग्राहक जुड़ने की बात कही थी और ऑक्सीजन वॉलेट का रोज इस्तेमाल करने वालों में नोटबंदी के बाद से औसतन 17 फीसदी इजाफा दर्ज किया गया है। बैंकों के मोबाइल वॉलेट और एप्लिकेशन भी खूब पसंद की जा रही हैं।

पेटीएम हो, मोबिक्विक हो, फ्रीचार्ज हो, ऑक्सीजन हो या कोई और मोबाइल वॉलेट हो, देश के करीब हर कोने में लोगों की जबान पर इनके नाम चढ़ गए हैं और इनका जम कर इस्तेमाल भी हो रहा है। व्यापार संगठन एसोचैम ने भी पिछले दिनों अपने एक अध्ययन में बताया कि नोटबंदी से पहले ऑनलाइन भुगतान में मोबाइल फोन की हिस्सेदारी 2 फीसदी थी, जो अगले पांच साल में 5 फीसदी तक पहुंच सकती है। पांच साल बाद मोबाइल वॉलेट के जरिये औसतन 20 अरब रुपये सालाना का भुगतान होने की उम्मीद संगठन ने जताई है।

हालांकि इस बदलाव की आलोचना करने वाले कम नहीं हैं और इसके लिए महंगे स्मार्टफोन से लेकर सुरक्षा की कमी तक तमाम बातें कही जा रही हैं। लेकिन हम सभी जानते हैं कि बदलाव के साथ बुनियादी ढांचा तैयार होने में वक्त लगता है। बेशक बैंकों को नहीं पता था कि कार्ड स्वाइप मशीनों की इतनी ज्यादा मांग हो जाएगी, इसलिए उनके पास दुकानदारों को देने के लिए अभी पर्याप्त मशीनें नहीं हैं। इसी तरह मोबाइल वॉलेट कंपनियों के पास भी इस भीड़ को संभालने के लिए कर्मचारियों की कमी थी। लेकिन बैंक भी तेजी से काम कर रहे हैं और वॉलेट कंपनियां भी जम कर भर्तियां कर रही हैं। इसके अलावा सरकार भी मोर्चे पर लगी हुई है।

फोन बगैर भी ई-

फिलहाल सरकार तीन तरह की सहूलतें मुहैया करा रही हैं। सब से पहले पिछले महीने लाई गई एप्लिकेशन भीम है, जो स्मार्टफोन पर चलती है। इसमें एप को डाउनलोड करना है, पंजीकरण कराना है और बैंक खाते से लेनदेन शुरू कर देना है। सामान्य फोन वालों के लिए यूएसएसडी है, जिसमें *9 डायल करना है और फोन इस्तेमाल करने वाले को भीम की ही तरह लेनदेन के तमाम विकल्प मिल जाएंगे। जिनके पास किसी तरह का फोन नहीं है, उन्हें आधार के जरिये भुगतान की सुविधा मिल रही है। आधार के साथ बैंक खाता खोलिए, दुकानदार को आधार क्रमांक बताइए, मशीन पर हाथ लगाइए और रकम आपके खाते से उसके खाते में पहुंच जाएगी। इस तरह देखा जाए तो कमोबेश हरेक के पास नकदी के बगैर भुगतान करने का मौका है। बस, उसका फायदा उठाने की जरूरत है।

सहूलियत बड़ी

डिजिटल लेनदेन सहूलियत भरा है, इसका अंदाजा तो छोटी-दुकानों पर लगे पेटीएम के स्टिकरों से ही मिल जाता है। जो पहले ही ऑनलाइन लेनदेन को तरजीह देते रहे हैं, आप उन्हीं से पूछिए कि कितनी सुविधा है। आप अपने फोन का एक बटन दबा कर या माउस के एक ही क्लिक से बिजली का बिल, फोन का बिल, क्रेडिट कार्ड का बिल, स्कूल की फीस, रसोई गैस सिलिंडर की कीमत, रेलवे टिकट की कीमत आदि अदा कर सकते हैं। अब सहूलियत बढ़ गई है क्योंकि किराना दुकानदार को महीने भर के राशन का बिल आप मोबाइल वॉलेट के जरिये अदा कर सकते हैं। 5 रुपये की सब्जी लीजिए, ऑटो से जाइए और भुगतान के लिए बटुआ छूने की जरूरत ही नहीं है। मोबाइल वॉलेट है न, चुटकियों में रकम आपके खाते से निकल कर दूसरे के खाते में चली जाती है।

किसानों की अनूठी जुगत
तेलंगाना में किसान बाजारों ने नोटबंदी के बाद नए किस्म का प्रयोग किया। उन्होंने अपना ही ऑनलाइन भुगतान तंत्र तैयार कर दिया। इसमें आधार से जुड़े बैंक खाते वाले ग्राहक डेबिट कार्ड के जरिये भुगतान कर टोकन दे दिए जाते हैं। उन टोकनों का निश्चित मूल्य होता है, जिसका इस्तेमाल कर वे सामान खरीद सकते हैं।

आधार की कुंजी
आधार के जरिये भुगतान बेहद आसान है। आपको दुकानदार के पास जाना है, अपना आधार क्रमांक बताना है और आपकी अंगुली मशीन में लगवा कर भुगतान पूरा हो जाएगा। आपको न तो डेबिट कार्ड की जरूरत है और न ही क्रेडिट कार्ड की।

अलादीन का चिराग है भीम
भीम एप्लिकेशन मोबाइल फोन में बेहद कम जगह घेरती है और यूपीआई तथा बैंक खातों से जुड़ी होती है। बैंकों में पंजीकृत मोबाइल नंबर से ही लेनदेन हो सकता है, जिसके लिए चार अंकों के पिन की जरूरत भी पड़ती है। जिसको रकम भेजनी है, उसका पंजीकृत मोबाइल नंबर डालिए और उसका नाम कन्फर्म कर दीजिए। बस, रकम पहुंच जाएगी। यह काम क्यूआर कोड के जरिये भी हो सकता है, जो ऐप खुद तैयार करती है और दुकानदार के पास भेज देती है।

अगर इसे व्यापक स्तर पर अपनाया जाता है तो न तो आपको बैंक में कतार में लगना पड़ेगा और न ही एटीएम के आगे खड़े होना पड़ेगा। तमाम यूटिलिटी बिल चुकाने के लिए भी उनके दफ्तरों में इंतजार क्यों किया जाए? इसके अलावा न जेब कटने का डर और न ही छीनाझपटी का। जब आपके बटुए में पैसा ही नहीं होगा और आपके बैग में नाम मात्र की नकदी होगी तो कोई जेब क्यों काटेगा और बैग क्यों झपटेगा? दिलचस्प है कि कार्ड से भुगतान में तो कुछ शुल्क लग सकता है, लेकिन वॉलेट के इस्तेमाल में अलग से कुछ भी आपके खाते से नहीं कटता। फिर नकदी के फेर में पड़ने का क्या फायदा?

मगर नकदी भी जरूरी

हालांकि अगर कोई सोचता है कि पूरी तरह नकदी के बगैर काम चल जाएगा तो यह यूटोपिया वाली बात है। ऐसा कहीं नहीं होता। बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर नजर डालें तो फ्रांस में सबसे अधिक 9 फीसदी लोग नकदरहित भुगतान करते हैं। ब्रिटेन और स्वीडन में ऐसे लोगों की संख्या 8 फीसदी है और अमेरिका जैसी विकसित अर्थव्यवस्था में 8 फीसदी लोग नकदरहित भुगतान करते हैं। जर्मनी में आंकड़ा 7 फीसदी है और दक्षिण कोरिया में 7 फीसदी। स्पष्ट है कि किसी भी देश में पूरी तरह नकदरहित अर्थव्यवस्था नहीं है। लेकिन भारत में तो आंकड़ा बहुत ही कम है। यहां निजी उपभोग के लिए केवल 5 फीसदी भुगतान ऑनलाइन होता है, केवल 25 करोड़ क्रेडिट कार्ड हैं और 7 करोड़ डेबिट कार्ड में से ज्यादातर का इस्तेमाल केवल एटीएम से रकम निकालने के लिए होता है। अगर इन सभी का प्रयोग बाजारों में भी किया जाए तो न तो नोटबंदी आपको परेशान करेगी और न ही चोरी चकारी का डर रहेगा।

बेजा खर्च पर अंकुश

इसका एक फायदा यह भी नजर आया है कि लोग खर्च करने में बहुत सावधानी बरतने लगे हैं। पहले जिस तरह से अनाप-शनाप खर्च किए जाते थे, उन पर कुछ हद तक अंकुश लगा है। नोटबंदी के बाद शुरुआती दिनों में तो दुकानों पर सन्नाटा ही था। हालांकि अब स्थिति बदली है, लेकिन लोगों को पैसे की कीमत और सही तथा बेजा खर्च का अंतर अच्छी तरह समझ आ गया है। यह बहुत अच्छा संकेत है, जिससे परिवारों की आर्थिक स्थिति भी मजबूत होगी और अर्थव्यवस्था को भी ठोस आधार मिलेगा।

इन सब पहलुओं पर नजर डाली जाए तो नकदी से मोह करने की कोई तुक ही नजर नहीं आती। जब नोट गिने बगैर ही खरीदारी की जा सकती है, सारा काम पूरा हो सकता है तो गड्डियां साथ में लेकर क्यों चलना और आफत को न्योता क्यों देना? जब इतनी सहूलियत मिल रही है तो इसका फायदा नहीं उठाना बचपना ही कहा जाएगा। वैसे भी समय के साथ चलने में ही समझदारी होती है।

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