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भारतीय चिंतन में पर्यावरण

भारतीय चिंतन में पर्यावरण

by प्रवीण गुगनानी
in पर्यावरण, पर्यावरण विशेषांक -२०१७, सामाजिक
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प्रदूषण वर्तमान समय का एक विकराल समस्याकारी शब्द है| विश्व की संभवतः यह एकमात्र ऐसी समस्या है जिसका किसी क्षेत्र, जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि से सम्बंध नहीं है| यह समस्या आज समूचे विश्व को जैसे लील लेने को उद्युक्त दिखती है| आजकल समूचे विश्व में पर्यावरण की चर्चा करना एक नया फैशन बन गया है| भारत एक ऐसा देश है जहां पर्यावरण या प्रदूषण की चर्चा किसी फैशन के कारण नहीं अपितु उसके अपने मूल स्वभाव के कारण होती है| हमारे वेदों, पुराणों, उपनिषदों, ग्रंथों, आख्यानों के साथ साथ हमारे धर्म में सदा सदा से यह प्रमुख विषय रहा है| हम भारतीयों की जीवन शैली पर्यावरण संवेदी ही नहीं अपितु पर्यावरण आधारित भी रही है|

वर्तमान समय में हो रहे पर्यावरणीय ह्रास ने इस स्थिति को बड़ी तेजी से निर्मित किया है| पर्यावरण प्रदूषण की चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब चंहुओर होने लगी है| अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण की अवधारणा भले ही भले ही नई लगती हो, किन्तु भारतीय दृष्टि ने इसकी पहचान प्राचीन समय में ही कर ली थी| विश्व में पहले पहल प्रदूषण को भारतीय दृष्टि ने ही पहचाना और विश्व को बताया कि प्रदूषण तो प्रकृति के प्रारंभ से ही विद्यमान रहा है, क्योंकि मानव द्वारा श्वास और मल-मूत्र तथा पसीना त्यागने के साथ प्रदूषण आरंभ हो गया था|

महर्षि यास्क ने निरुक्त में पर्यावरण की जो व्याख्या की है उसमें वे कहते हैं कि कोई वस्तु तभी अपनी सत्ता बनाए रख सकती है, जब वह स्वयं को धारण करने में समर्थ हो| जब उसमें बाहरी हस्तक्षेप अधिक होता है अथवा उसकी नैसर्गिक संरचना विकृत होती है तो उसकी आत्मधारणा शक्ति नष्ट हो जाती है, यही उसका प्रदूषण है| वस्तु के निर्माण का अनुपात भंग हुआ और वस्तु का स्वास्थ्य नष्ट हो गया| वस्तु के स्वास्थ्य का विनष्ट होना ही प्रदूषण है|

प्रकृति में एक का उच्छिष्ट दूसरे के लिए उपभोग्य बन जाता है| प्रकृति की संतुलन प्रक्रिया सृष्टि के आदिकाल से अनवरत एवं अविछिन्न रूप से चली आ रही है| यदि किसी कारण से इसमें कभी कोई व्यवधान पड़ता है तब संतुलन के परिवेश में प्रतिकूल स्थितियां दृष्टिगत होने लगती हैं| वस्तुतः प्रकृति में उत्पन्न होने वाली यही प्रतिकूलता प्रदूषण है| उस काल में जब विश्व के किसी भी कोने में प्रदूषण कोई बड़ी समस्या नहीं थी तब हमारे वैदिक ऋषि मुनियों ने पर्यावरण जैसे सकारात्मक शब्द की रचना कर ली थी और पर्यावरण की अवधारणा पर एक सम्पूर्ण साहित्यिक रचना संसार रच दिया था| हमारे वैदिक ऋषियों ने पर्यावरण के समस्त उपकारक तत्वों को देव कह कर उनके महत्व को प्रतिपादित किया, साथ ही मनुष्य के जीवन में उनके पर्यावरणीय महत्व को भी भली-भांति स्वीकार किया है| शास्त्रीय कल्पनाओं ने मनुष्य को पितृऋण, ऋषिऋण, देवऋण के साथ साथ भूमि ऋण या प्रकृति ऋण से भी उन्मुक्त होने की ओर संकेत किया है| हमारे ऋषियों द्वारा पर्यावरण को संतुलित रखने के लिए देवताओं की महत्वपूर्ण भूमिका व्यक्त की गई है|  मत्स्य पुराण में कहा गया है कि-

 दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः|

 दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः|

अर्थात दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है|

वेदों में सर्वप्रथम भूमि संस्कारवान बनाने के लिए कहा गया है| भूमि और अन्न को प्रदूषणरहित रखने के लिए मलिन अथवा विषयुक्त खाद डाल कर उसे बिगाड़ने के प्रति निषेध किया गया है| यजुर्वेद में हल बैलों द्वारा खेतों को जोत कर, उत्तम अन्नों के बीज बोने का निर्देश दिया गया है| खेतों में गोबर-खाद डालें और विष्ठा आदि मलिन पदार्थ न डालने के लिए कहा गया है| बीजों को सुगंध आदि से उपचारित करके बोएं ताकि अन्न भी रोगरहित होकर मनुष्य की बुद्धि को बढ़ाए| वेदों में कहा गया है कि खेतों को घी, मिष्ठान्न, जल आदि से संस्कारित करें|

वर्तमान समय में यदि भारत सहित सम्पूर्ण विश्व भारतीय दृष्टि से प्रकृति व पर्यावरण के सरंक्षण की चिंता करें तो पर्यावरण सम्बंधित सभी समस्याएं आधी हो जाएं| आज आवश्यकता भी इसी बात की है कि समूचा विश्व अपने नस्ल, जाति, धर्म , सम्प्रदाय व क्षेत्रीयता के मतभेदों को विस्मृत कर विशुद्ध भारतीय दृष्टि से प्रकृति व पर्यावरण की साधना करें| पर्यावरण को साधने से ही आने वाली पीढ़ियां इस विश्व को अपनी दृष्टि से देख पाएगी अन्यथा तो इस पृथ्वी पर से किसी भी दिन मानव नाम की सभ्यता का लोप ही हो जाएगा|

 

Tags: biodivercityecofriendlyforestgogreenhindi vivekhindi vivek magazinehomesaveearthtraveltravelblogtravelblogger

प्रवीण गुगनानी

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