कहानी नगा रानी मां की

‘अपनी जीर्ण देह को नमस्कार कर रानी मां (गाईदिनल्यू) भगवती के साथ आकाशमार्ग से चली गई। तिनवांग (परमेश्वर) के दरवाजे पर उसका स्वागत करने जादोनांग, रामगुनगांग और अन्य कई लोग एवं महात्मा खड़े थे।’’

बिस्तर पर पड़ी वृद्धा ने बहुत धीमे स्वर में पानी मांगा। उत्तर कछार एवं मणिपुर की सीमा पर स्थित नगा राज्य का एक गांव लंकऊ। उस गांव के एक छोटे से घर में बांस के पलंग पर एक काले-लाल से बिस्तर पर लेटी हुई वृद्धा। उसकी आवाज सुनकर एक सेविका दौड़ती हुई आई एवं उसने उसे दो चम्मच पानी पिलाया।

सेविका ने श्रध्दा एवं प्रेम भाव से पूछा कि रानी मां और कुछ चाहिए क्या? वह कुछ नहीं बोली।

रानी मां ने मनोमन उत्तर दिया। जीवन में जो कुछ हासिल होना था वह सब हो गया। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। अब मैं केवल भगवान के बुलावे का इंतजार कर रही हूं। वृद्धा ने आंखें बंद कर लीं। उसका पूरा जीवन उसके कल्पनाचक्षुओं के सामने फिल्म जैसा सरकने लगा।

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मुझे याद नहीं, मुझे देवी का दर्शन कब हुआ। मैं उस समय बहुत छोटी थी। मां की गोदी में बैठ कर पूनम का चांद देखते हुए उसे पाने की जिद कर रही थी। मां ने कहा – वह तो परमेश्वर का दीपक है, जो यहां से बहुत दूर है।

मुझे उस समय क्या दीख रहा था याद नहीं। पर मुझे लगता है कि आकाश से एक देवी दिव्य प्रकाश में से प्रकट हुई ‘‘यह ले चंद्रमा’’ ऐसा कहते हुए जैसे गेंद फेंकते हैं वैसा चंद्रमा मेरी ओर फेंका। वह चंद्रमा मेरे पास आकर अंत में मेरे शरीर में समाहित हो गया। वह अद्भुत अनुभव शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। एक प्रकार की दैवी प्रेरणा मेरे शरीर में संचरित है, ऐसा मुझे लगने लगा।

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‘‘राम अरे राम’’ चल हम बगीचे के फल तोड़ कर खाते हैं। उस अल्हड़ लड़की ने अपने भाई से कहा।

‘‘नहीं, अभी नहीं, आज मेरा मित्र ‘जादोनांग’ पुलईगांव से आने वाला हैं।’’

गाईदिनल्यू रूठ गई। आज इस जादोनांग के कारण मेरा भाई राम मेरे साथ फल चुराने नहीं आ रहा है। लेकड गांव में एक बड़ा बगीचा था। उसमें कई फलों के वृक्ष थे। फलों की चोरी न हो इसलिए झाड़ों के चारों ओर नोकदार बांस का जंगला बनाया हुआ था। उस बगीचे से फल तोड़ कर खाने में बच्चों को बहुत मजा आता था।

थोड़ी देर में जादोनांग आया। उसे देखकर गाईदिनल्यू का गुस्सा काफूर हो गया। सुंदर जादोनांग को देख कर सभी मोहित होतेे थे। उसकी आंखों में एक विशिष्ट चमक थी।

रात के समय जादोनांग गाईदिनल्यू के भाई रामगुनगांग एंव उसके साथियों को एकत्रित कर कुछ बता रहे थे। गाईदिनल्यू भी वह सब सुन रही थी।

वह कह रहा था, ‘‘यह गोरी चमड़ी के लोग अर्थात अंग्रेज बहुत दुष्ट हैं। ये हमारे देश में क्या करने आए हैं? ये हमारी मातृभूमि को गुलाम बनाने के लिए एवं हमें लूटने आए हैं। इनको हमारे देश में रहने नहीं देना चाहिए। इन्हें यहां से भगाकर मातृभूमि की रक्षा करनी होगी।’’

इस पर एकत्रित साथियों ने कहा कि यह तो ठीक है, पर हम कर भी क्या सकते हैं।

‘‘हम क्या नहीं कर सकते? हम अर्जुन के वंशज हैं, पर हमें सबसे पहले संगठित होना होगा। शस्त्र जमा करने होंगे। शस्त्र चलाने का अभ्यास करना होगा। मैं यह बात प्रत्येक गांव में बता रहा हूं। आप लोग भी लेकऊ में संगठित होइये। शस्त्र जमा करिए एवं चलाने का अभ्यास  करिए’’ जादोनांग का उत्तर था।

जादोनांग ने रात्रि में रामगुनगांग के यहां निवास किया एवं प्रातः उठ कर दूसरे गांव की ओर जाने के लिए निकला। निकलते समय उसने छोटी गाईदिनल्यू की ओर देखा। पूछा ‘‘यह कौन है?’’ रामगुनगांग ने बताया कि यह उसकी छोटी बहन है।

‘‘ऐसा है तो अब यह मेरी भी छोटी बहन हुई’’ ऐसा कह कर जादोनांग हंसते हुए निकल पड़ा। गाईदिनल्यू उसको दूर तक जाते हुए देखती रही।

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आखिर एक दिन गाईदिनल्यू के जीवन का सबसे दुःख भरा दिन आया। फल तोड़ते समय रामगुनगांग का पैर फिसला एवं वह नुकीली बासों पर गिर पड़ा। पेट से अत्यधिक रक्तस्राव के कारण उसकी मृत्यु हो गई।

सत्तर साल की गाईदिनल्यू की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी। सत्तर साल बाद भी यह नगा कन्या अपने भाई का प्रेम नहीं भूली थी।

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भाई की मृत्यु के बाद गाईदिनल्यू का जीवन बदल गया। अल्हड स्वभाव की वह अब गंभीर प्रवृत्ति की हो गई। दो-तीन घंटे रोज वह ध्यान लगाकर बैठती थी। उसका दुःख जानने के लिए माता भगवती को प्रकट होना पड़ा। माता भगवती के नामजप में गाईदिनल्यू दिन रात गुजारने लगी।

‘‘गाईदिनल्यू सुन रही हो क्या?’’ जंगल में एक बड़ा अजगर आया है। लोग घर से बाहर निकलने में भी डर रहे हैं।’’ कुछ लोगों ने गाईदिनल्यू से कहा।

‘‘उसमें इतना डरना क्या? वह परमेश्वर का दूत है, मुझसे मिलने आया है’’ गाईदिनल्यू का जबाब था। उसने बांस की एक बड़ी पेटी में पलाश के पत्ते बिछाए एवं गांव वालों से कहा कि इसे ले जाए। इसमें अजगर आकर बैठ जाएगा। फिर वह पेटी मेरे पास ले आइये। डरिए नहीं। वह किसी को कुछ नहीं करेगा। गाईदिनल्यू रोज उस अजगर की पूजा करती थी। नौ दिन वह अजगर गाईदिनल्यू के पास रहा एवं बाद में दूसरे दिन न जाने कहां चला गया।

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शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति दिनोंदिन गाईदिनल्यू बड़ी हो रही थी। उसकी तपस्या जारी थी। उसके कारण उसके चेहरे का तेज बढ़ रहा था। तपस्या करने के साथ साथ वह अपनी मां को घर के काम करने में सहायता करती थी। साधनारत रहने के दौरान कभी कभी उसे माता भगवती के दर्शन भी होते थे।

एक दिन माता भगवती ने उससे पूछा कि क्या वह उसका घर देखने आएगी। गाईदिनल्यू ने जवाब दिया कि तुम तो क्षण भर में दर्शन देकर चली जाती हो तो तुम्हारे घर कैसे आऊं। भगवती ने कहा कि ठीक है मैं एक दिन तुम्हें ले जाऊंगी। रास्ते में पेड़ के पत्ते तोड़कर डालते जाऊंगी एवं तुम उसी निशानदेही से मेरे पीछे आना। मैं अष्टारूप में रहूंगी। तुम अपने साथियों को भी साथ में लेकर आना।

भक्तिमार्ग में रत रहने के साथ साथ गाईदिनल्यू जादोनांग के अंग्रेजों के विरुध्द आंदोलन में भी शामिल हो गई। आंदोलन में सभी वर्गों के लोग शामिल थे। उसने लंकड गांव में क्रांतिकारी दल स्थापित किया। दल की नेता बनकर वह क्रांतिकारी कार्यों में सहयोग प्रदान करने लगी। पर्वतीय प्रदेश के अलग अलग गांवों से तरूण-तरूणियों को एकत्रित कर उसने एक बड़े संगठन का निर्माण किया। आंदोलन का दायरा बढ़ता गया। एक ओर से भाई जादोनांग व दूसरी ओर से बहन गाईदिनल्यू ने अंग्रेजों पर आक्रमण शुरू कर दिया। एक ओर भक्तिमार्ग का आकर्षण व दूसरी ओर स्वतंत्रता की तीव्र इच्छा के कारण गाईदिनल्यू का मन उद्वेलित हो रहा था। ये दोनों चीजें एकसाथ कैसे साध्य होंगी यह मन में प्रश्न निर्माण हो रहा था।

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एक दिन भगवती ने गाईदिनल्यू को दर्शन दिया एवं कहा कि आज मैं तुम्हे एवं तुम्हारे साथियों को अपने घर ले जाऊंगी। जैसा बताया है वेैसे आना।

दूसरे दिन गाईदिनल्यू अपने चार पुरुष साथीदारों एवं एक सहेली के साथ प्रवास पर निकली। देवी भगवती की सूचनानुसार वह चल रही थी। चलते चलते वे सभी एक बड़ी गुफा के सामने पहुंचे। वहां एक ऊंचापुरा द्वारपाल खड़ा था। उसने द्वार पर उन लोगों से कहा कि विष्णु की आज्ञा के वगैर मैं तुम लोगों को अंदर नहीं जाने दूंगा। अन्यथा मार डालूंगा। गाईदिनल्यू के साथी घबरा गए, परंतु गाईदिनल्यू निर्भयता से बोली कि हम लोग देवी भगवती की आज्ञा से यहां आए हैं। उसने देखा कि देवी भगवती द्वारपाल के पीछे खड़ी हंस रही है। देवी ने द्वारपाल को संकेत किया। गाईदिनल्यू ने द्वारपाल को नमन किया। द्वारपाल अलग हो गया एवं उसने अब सभी को गुफा में जाने दिया।

देवी भगवती ने गाईदिनल्यू से कहा कि यह गुफा तुम्हारे क्रांतिकार्य के मुख्य केंद्र हेतु अत्यंत योग्य है। तुम और जादोनांग इसका उपयोग क्रांतिकार्य के लिए कर सकते हो। जेलियोगरोंग के नगा लोगों में धर्मप्रचार करने के लिए तुम्हें इसी जगह धर्म की दीक्षा दी जाएगी। अब यहीं तुम्हारा जीवनकार्य है।

सन १९२८ से १९३१ तक गाईदिनल्यू ने सतत ४ वर्ष उस गुफा की यात्रा की। उसी गुफा में एक संन्यासी ने उसे धर्म की दीक्षा दी। उस संन्यासी मे गाईदिनल्यू व जादोनांग को कारक सांकेतिक लिपि भी सिखाई। ऐसा कहा जाता है, उस पर्वतीय गुफा में दीवारों पर आज भी उस लिपि के लेख लिखे हैं। परंतु आजतक वे लेख किसी को भी पढ़ते नहीं बने हैं। इसी पर्वतीय गुफा में गाईदिनल्यू को यह विश्वास हुआ कि भगवतीदेवी यह सर्वव्यापी ईश्वर (तिनवांग) है। देवी भगवती का संचार सर्वत्र है। परमेश्वर की उपासना याने ‘‘हेराका धर्म’’ है।

गाईदिनल्यू ने अपना धर्म (हेराका धर्म) सब ओर फैलाया। सभी नगा लोगों ने उसका धर्म स्वीकार किया। शुध्द अंतःकरण से परमेश्वर की प्रार्थना करने पर जोर दिया। बलि प्रथा बंद की गई। इसके बाद गाईदिनल्यू के जीवन में बहुत परिवर्तन हुआ। अंग्रेजों ने भाईसमान जादोनांग को विश्वासघात करके पकड़ लिया एवं २६ अगस्त १९३१ को फांसी पर चढ़ा दिया। मृत्यु पूर्व जादोनांग ने एक पत्र लिख कर क्रांतिकार्य की संपूर्ण जवाबदारीर गाईदिनल्यू को सौंप दी। गाईदिनल्यू अब क्रांतिकार्य का नेतृत्व करने लगी।

गाईदिनल्यू के नेतृत्व में क्रांतिकार्य व्यापक रूप से फैलाने लगा। मणिपुर राज्य के पश्चिमी जिले, दक्षिण नागभूमि और असम के उत्तर कछार इन जिलों में क्रांतिकार्य का विस्तार हुआ। अंग्रेजों को भागने की जगह नहीं मिल रही थी। गाईदिनल्यू को पकड़ने के लिए नगा पर्वतीय जिले के उपायुक्त ने मिस्टर जे.पी.मिल्स के नेतृत्व में एक व्यापक सेना अभियान चलाया। गाईदिनल्यू को पकड़ने के लिए नगा लोगों पर  अत्याचार किए। उनके गांव के गांव जला दिए गए। गाईदिनल्यू को पकड़ने के लिए पहले रु.२००/-(आज के रु.२००००/-) तथा बाद में रु.५००/- (आज के रु.५००००/-) का इनाम घोषित किया। परंतु गाईदिनल्यू अंग्रेजों के हाथ नहीं आई। वह उत्तर कछार में भूमिगत हो गई। एक भी व्यक्ति विश्वासघातकी नहीं निकला।

१६ फरवरी १९३२ को उत्तर कछार में नगा सैनिकों के साथ अंग्रेजों का बड़ा युध्द हुआ। मार्च माह में हांशुमगांव में नगाओं ने अंग्रेजों की छावनी पर अचानक हमला कर दिया। शुरुआत में अंग्रेजों को भारी नुकसान उठाना पड़ा, परंतु बाद में अंग्रेजों की बंदूकों के आगे नगाओं के धनुष्यबाण और भालों की ताकत कम पड़ने लगी। नगाओं की हार हुई। अंग्रेजों ने ‘वंपु’ यह गांव जला दिया। उसके बाद गाईदिनल्यू ने अपना मुकाम मणिपुर के पर्वतमय प्रांत में स्थानांतरित किया। उसके कारण मणिपुर में भी क्रांति की ज्वाला फैलने लगी।

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अक्टूबर १९३२ में गाईदिनल्यू पुलेमी गांव में गई। वह जानती थी कि यदि अंग्रेजों के साथ लड़ना है तो स्वसंरक्षण भी उतना ही महत्व का है। इसलिए उन्होंने ४००० सैनिक रह सके इतना बड़ा किला गुप्त रूप से बनाना प्रारंभ किया। परंतु अंग्रेजों के जासूसों ने इसका पता कर लिया। असम राइफल्स की एक बड़ी टुकडी पुलेमी गांव में रातोरात पहुंची एवं उसने गांव को घेर लिया। किला पूरा नहीं हुआ था। अचानक आक्रमण के कारण नगा सैनिक प्रतिकार नहीं कर सके। रानीमां गाईदिनल्यू को १७ अक्टूबर १९३२ को कैद कर लिया।

कोर्ट में न्यायदान का नाटक करने के बाद उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। अलग अलग जेलों में १४ साल की सजा काट कर देश स्वतंत्र होने पर रानी मां गाईदिनल्यू जेल से रिहा हुई। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें ‘‘नगारानी’’ की उपाधि से विभूषित किया।

देश स्वतंत्र होने के बाद रिहा हुई रानीमां ने घोषणा की कि वे अब ‘‘हेराका धर्म’’ के प्रचार प्रसार हेतु अपना समय लगाएंगी।

परंतु उनकी यह आशा अपूर्ण रही। फिजो के नेतृत्व में ईसाई समुदाय ने अलग नगा राज्य की मांग का आंदोलन प्रारंभ कर दिया। उनकी हिम्मत यहां तक बढ़ गई कि उन्होंने पं. जवाहरलाल जी, जो उस समय देश के प्रधानमंत्री थे, की सभा का बहिष्कार कर दिया एवं भारत की स्वतंत्रता का अपमान किया। रानी मां के देश की एकात्मता के विचारों का उग्रवादी नगाओं ने विरोध किया एवं उन पर प्राणघातक हमला किया। उस हमले में किसी तरह रानी मां बच गई।

अंग्रेजों का धर्मप्रचार हेराका धर्म के प्रचार में बाधा डालने लगा। गाईदिनल्यू फिर एक बार भूमिगत हो गई एवं धर्मरक्षक स्वतंत्र नगा सेना खड़ी की। ५०० रायफलधारी सैनिक एवं १००० सादे सैनिक इकट्ठा कर ईसाई उग्रवादियों का प्रतिकार किया। सन १९६० में स्वतंत्र ‘‘जेलियांगरोंग‘‘ राज्य की मांग की। अंत में भारत सरकार के मदद करने के आश्वासन पर रानी मां ज्ञात रूप से सन १९६६ से कोहिमा में रहने लगी।

नवनिर्मित नगालैंड राज्य की विधान सभा में अधिकांश सदस्य ईसाई समुदाय से थे। मंत्रिमंडल तो पूर्णतः ईसाइयों का था। उन्होंने हेराका धर्म प्रचार प्रसार में अड़चनें डालना शुरू किया। यह झूठी अफवाह भी फैलाई गई कि रानी मां ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है। परंतु रानी मां ने अपनी पहचान हिंदू के रूप में बनाई एवं हेराका धर्म को हिंदू धर्म की एक शाखा ही बताया।

जनता शासन-काल में उन्होंने प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई एवं राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से मिल कर ईसाई मिशनरियों द्वारा पूर्वोत्तर में किए जा रहे धर्म प्रसार, धर्म परिवर्तन एवं राष्ट्रविरोधी कार्यवाहियों की जानकारी दी।

१९६७ में रानी मां विश्व हिन्दू परिषद के संपर्क में आई। १९७० में जोरहाट में आयोजित विश्व हिन्दू परिषद के दूसरे अधिवेशन में उन्होंने स्वतः भाग लिया। परिषद के कार्य में रानी मां का सक्रिय योगदान रहा। सन १९७९ के प्रयाग के विश्व हिन्दू सम्मेलन में भी रानी मां उपस्थित थी। वहां संपन्न महिला सम्मेलन की अध्यक्षता भी उन्होंने की।

रानी मां गाईदिनल्यू द्वारा आरंभ नगा परंपरा एवं नगा संस्कृति के रक्षण का कार्य, सामाजिक सुधार, धार्मिक आंदोलन ‘‘हेराका धर्म’’ के नाम से प्रसिध्द है। वह कार्य आज भी प्रभावी रूप से चल रहा है। रानी मां की प्रेरणा से १९९२ में हेराका संप्रदाय का ‘‘तिंगवांग हिंडे’’ यह पवित्र धर्मग्रंथ प्रकाशित किया गया। उसी वर्ष उत्तरी कछार जिले में ‘‘इन चाईकांमराम’’ में हेराका संमेलन में इस धर्म ग्रंथ का वितरण किया गया। उस समय किए गए भाषण में रानी मां ने स्पष्ट रूप से कहा कि चाहे मूर्तिपूजक हो या निराकार ईश्वर की उपासना करने वाले हो, बलि चढ़ाने वाले हों, या बलि प्रथा का विरोध करने वाले हो, हम सब हिन्दू हैं क्यों कि हम ही परब्रह्म की शक्ति मानते हैं। हम सब कर्मफल एवं पुर्नजन्म पर विश्वास रखते हैं। हम भी इन सबको मानते हैं। हम परब्रह्म को तिंगवांग के रूप में मानते हैं इसलिए हम हिन्दू हैं।

इस प्रकार उपरोक्त पूरा जीवनचित्र उस वृद्धा रानी मां की आंखों के सामने से गुजरा एवं उसने देखा कि देवी भगवती उसके सामने साक्षात खड़ी है एवं कह रही है कि चलो मैं तुम्हें अपने साथ परमेश्वर (तिनवांग) के पास ले जाने आई हूं।

अपनी जीर्ण देह को नमस्कार कर रानी मां भगवती के साथ आकाशमार्ग से चली गई। तिनवांग (परमेश्वर) के दरवाजे पर उसका स्वागत करने जादोनांग, रामगुनगांग और अन्य कई लोग एवं महात्मा खड़े थे।

 

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