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संत परम्परा

संत परम्परा

by निशिथ जोशी
in अध्यात्म, उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, विशेष, व्यक्तित्व
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यहां की कंदराओं और हिम से ढके पर्वतों में ऐसे तपस्वी साधनारत हैं जिनकी आयु 5 हजार वर्ष से अधिक है। यहां ऐसे महामानव अनंत काल से साधनरत हैं जिनमें पलक झपकते ही संपूर्ण पृथ्वी का क्रम बदल देने की शक्ति निहित है। यह सामान्य मानव की कल्पना से परे है। स्वर्ग कोई कल्पना नहीं ध्रुव सत्य है।

हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड की संत परंपरा उतनी ही पुरानी है जितना कि इस क्षेत्र में भगवान शिव का निवास। उत्तराखंड आदिकाल से ही त्रिकालदर्शी  योगियों, ऋषियों, मुनियों, महामानवों, तपस्वी साधकों और संतों का प्रिय निवास स्थल रहा है। प्रकृति ने इस क्षेत्र को वह सब कुछ उपहार में दिया है जो इसे आध्यात्मिक स्पंदनों की ऊर्जा से परिपूर्ण करता रहता है। एक काल वह भी था, जब कैलाश मानसरोवर में तप करने वाले भगवान शिव से मिलने के लिए इसी मार्ग से ऋषि, मुनि और तपस्वी आते जाते थे।

भारत, नेपाल और तिब्बत के योगी संन्यासियों की साधना का केंद्र भी यही क्षेत्र रहा है। महाभारत युद्ध के बाद भगवान श्री कृष्ण ने उद्धव को उस क्षेत्र में तपस्या करने भेजा था, जहां आज बद्रीनाथ धाम है। इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि केरल के कालड़ी ग्राम में जन्मे नंबूदरीपाद ब्राह्मण आदिगुरु शंकराचार्य ने हिमालय क्षेत्र का भ्रमण किया था। उस समय बौद्धों ने सनातन धर्म और संस्कृति को नष्ट कर डाला था। साथ ही चीनी लुटेरों के साथ मिल कर सभी सनातन मंदिरों से मूर्तियां लुप्त कर दी थीं। शंकराचार्य ने सबसे पहले ऋषिकेश में भगवान विष्णु की मूर्ति प्रतिष्ठापित की। फिर वे बद्रीनाथ पहुंचे। नारदकुण्ड से भगवान विष्णु की मूर्ति निकाल कर मुख्य मंदिर में स्थापना की। बदरीनाथ धाम से 30 किलोमीटर पहले जोशीमठ में ज्योतिर्मठ की स्थापना की। व्यासगुफा में चार वर्ष रह कर साधना की। ब्रह्मसूत्र, श्रीमद भगवद्गीता तथा प्रधान उपनिषदों पर विविध भाष्य लिखे। इसके बाद वे केदारनाथ गए। उत्तरकाशी में उनको महर्षी व्यास के दर्शन हुए। गंगा का अवतरण भी इसी क्षेत्र में हुआ। आकाश मार्ग से उतरी गंगा को शिव ने जहां अपनी जटाओं में धारण कर मुक्त किया था वह गंगोत्री क्षेत्र है। यमुनोत्री धाम भी यहीं है। इन सभी क्षेत्रों की कंदराएं तपस्वियों का निवास स्थान रही हैं और आज भी हैं। भारत के कई सिद्ध योगियों ने बताया है कि लगभग पांच हजार वर्षों से हिमालय के इसी क्षेत्र में महावतार बाबाजी अपनी देह में विराजमान हैं। बहुत से संतों ने महावतार बाबाजी से मिलने, उनके द्वारा मार्गदर्शन की बात भी कही है। काशी के महान संत श्यामा चरण लाहिड़ी महाशय भी उनमें एक रहे हैं। श्यामा चरण लाहिड़ी की डायरियों के आधार पर लिखी पुस्तक पुराण पुरुष लाहिड़ी महाशय में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। विश्व में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली संत की आत्मकथा, योगी कथामृत में परमहंस योगानंद ने भी महावतार बाबाजी के संबंध में कई घटनाओं का उल्लेख किया है। लाहिड़ी महाशय को कुमाऊं के द्रोणगिरी पर्वत पर 1861 में महावतार बाबाजी ने क्रिया योग की दीक्षा दी थी। इसी क्रिया योग को परमहंस योगानंद ने अपने गुरु स्वामी युक्तेश्वर गिरी के निर्देश पर अमेरिका से पूरे यूरोप, भारत और विश्व में प्रसारित किया। लाहिड़ी महाशय ने कहा था कि क्रिया योग वही विज्ञान है जो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया था।

इसी क्षेत्र में 1890 में नैनीताल जिले के छगाता परगना के नौकुचियाताल के निकट हैड़ाखान (वनस्पति हरड़ का क्षेत्र) में हैड़ाखान बाबा ने लंबे समय तक वास किया। हैड़ाखान बाबा के संबंध में महान साहित्यकार इला चंद्र जोशी के बड़े भाई और हिंदी के विद्वान हेम चन्द्र जोशी ने मेरे भगवान हैड़ाखान नाम की पुस्तक में विस्तार से जानकारी दी है। हैड़ाखान बाबा की देह पर कई घाव दिखाई देते थे। उन्होंने कुछ भक्तों को बताया था कि उन्होंने महाभारत युद्ध में भाग लिया था। हैड़ाखान बाबा के संबंध में बाबा हरिदास ने कैलिफोर्निया के रामा फाउंडेशन से 1975 में प्रकाशित पुस्तक हैड़ाखान बाबा : नोन अन-नोन में बहुत सी जानकारियां दी हैं। हरिदास बाबा का जन्म अल्मोड़ा जिले में हुआ था। हनुमान गढ़ी के पास एक गुफा में साधना करते थे। उन्होंने लिखा है कि एक रात साधना करते समय उनको नींद आ गई। वे सामने जल रही धूनी में गिरने ही वाले थे कि हैड़ाखान बाबा प्रगट हुए। उनको बचाया और कुछ निर्देश देकर अंर्तध्यान हो गए।

अल्मोड़ा के तालुका गांव के ज्ञानानंद पुरी अर्थात केवल बाबा ने आजादी के पूर्व लाहौर, 1936 में मेरठ उत्तर प्रदेश आदि में साधना और मानव धर्म प्रचार किया। विश्व प्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर के पूर्व महंत अवैद्यनाथ की जन्म स्थली भी पौड़ी गढ़वाल की उदयपुर पट्टी का कांडी ग्राम है। उनका जन्म 1919 में हुआ था। उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का जन्म भी इसी जिले में हुआ। वे गुरु गोरक्षनाथ मंदिर के महंत और गुरु गोरखनाथ मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष भी हैं।

1831 में पंजाब के जलालपुर तहसील के कोंकना गांव (गुजरांवाला) अबके पाकिस्तान में जन्में काली कमली वाले बाबा श्री 1008 स्वामी विशुद्धानंद के नाम से प्रसिद्ध हैं। भिल्लागण संप्रदाय के महान शैव संत ने हरिद्वार आ कर स्वामी शंकरानंद से दीक्षा ली थी। उत्तराखंड के चारों धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में तपस्या की। साधु संतों के भोजन, निवास और चिकित्सा के लिए बहुत कार्य किया। कई पुल बनवाए। उनके लिए महान संत स्वामी रामतीर्थ ने कहा था कि इस अकेले के नाम से करोड़ों मूल्यवान कर्म स्वतः हो रहे हैं।

अल्मोड़ा जनपद के तल्ला सालम के ग्राम भाबू के त्रिलोचन भट्ट ने उदासीन संप्रदाय के संत शिरोमणि दास से दीक्षा लेकर बाबा कल्याण दास के नाम से दीन हीन वर्ग के बीच सेवा कार्य करते रहे। अपनी साधना और तपस्या के साथ ही वनवासी, आदिवासी, दलित और पिछड़ों में ही उन्होंने ईश्वर के दर्शन किए। पिथौरागढ़ जिले के बेरी नाग के ढनौली में जन्म लेकर गुजरात में साबरमती नदी के तट पर संन्यास आश्रम की स्थापना करने वाले स्वामी जयेंद्र पुरी ने ईश्वर से साक्षात्कार करने के लिए युवा अवस्था में ही घर परिवार को त्याग दिया था। केरल के नीलकंटन को बचपन में ही रूमएटिसम और पक्षाघात हो गया था। 1879 में जन्में इस बालक को 1916 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी नीमलानंद महाराज के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। कुछ समय बाद ही उन्होंने स्वामी ब्रह्मानंद से मंत्र दीक्षा लेकर संन्यास मार्ग अपना लिया। नाम मिला स्वामी पुरुषोत्तमानंद गिरी। वे 1920 में ऋषिकेश आ गए। बद्रीनाथ मार्ग पर गंगा नदी के किनारे स्थित वशिष्ठ गुफा में साधनालीन हो गए। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत काम किया। के.एम. मुंशी ने अपनी पुस्तक ‘टू बदरीनाथ’ में स्वामी पुरुषोत्तमानंद का उल्लेख किया है। उत्तराखंड की विभूतियां नामक पुस्तक के लेखक एस. पी. सकलानी ने इसका विस्तार से वर्णन किया है।

केरल के ही कुप्पू स्वामी ने 1924 में ऋषिकेश में परमहंस स्वामी विश्वानंद जी से सन्यास की दीक्षा ली थी। इसके पहले वे मलाया और सिंगापुर में चिकित्सक रहे। कुप्पू स्वामी से स्वामी शिवानंद सरस्वती बनने के बाद केदारनाथ, बद्रीनाथ, तुंगनाथ, त्रियुगीनारायण की यात्राएं की। स्वामी शिवानंद सरस्वती को आध्यात्म के जगत में अग्रणी श्रेणी के संतो में गिना जाता है। उन्होंने मुनि की रेती में दिव्य जीवन संघ आश्रम की स्थापना की। आश्रम की एक योग वेदांत अरण्य अकादमी भी है, जिसमें आध्यात्मिक साधकों को योग और वेदांत दर्शन का प्रशिक्षण दिया जाता है। स्वामी शिवानंद सरस्वती ने योग और आध्यात्म पर 200 से अधिक पुस्तकें भी लिखीं। 3 अप्रैल 1953 को स्वामी शिवानंद आश्रम में विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ था। इसमें पूरी दुनिया के विद्वान शामिल हुए थे।

आंध्र प्रदेश के कनक दंडी वेंकट सिमायाजुलू संन्यास के बाद स्वामी प्रणवानंद कहलाए। 42 वर्ष की आयु में रेलवे की नौकरी, फिर स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन और राजनीति को भी त्याग कर अल्मोड़ा जिले में स्थित नारायण आश्रम आ गए थे। वैज्ञानिक रहे स्वामी ज्ञानानंद से दीक्षा ली। उन्होंने कैलाश और मानसरोवर की कई यात्राएं कीं। 1946 में हिमालय क्षेत्र में 18,400 फीट की ऊंचाई पर स्थित रूपकुंड में रबर की नौका चलाई। इसी कुंड से सोने चांदी के कंगन युक्त मानव कंकाल भी उनको मिले। पृथ्वी पर यह समुद्र तल से सबसे ऊंची झील थी। मानसरोवर झील में नौका चलाना, झील की गहराई का पता लगाने का असंभव सा दिखने वाला काम भी उन्होंने किया। 1942 में स्वामी प्रणवानंद ने मानसरोवर झील से 7 किलोमीटर पश्चिम में स्थित राक्षस ताल जो रावण सरोवर भी कहलाता है से 19 करोड़ वर्ष पुराना समुद्री जीव का जीवाश्म प्राप्त किया था। सभी जीवाश्म जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में संरक्षित हैं। 1954 में ही स्वामी प्रणवानंद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को तिब्बत पर चीन के हमले की संभावना की सूचना दे दी थी। सतलज, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी के उद्गम स्थल को भी उन्होंने खोज निकाला था। स्वामी जी ने ब्रह्मलीन होने तक अपना जीवन अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जनपदों में बिताया। ध्यान साधना के साथ ही हिमालय की सेवा करते रहे।

उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जनपद के गांव नीम करौरी (नीब करौरी) में शुरुआती दिनों में साधना करने वाले बाबा नीम करौरी को पूरा विश्व जानता है। उनका वैरागी नाम बाबा लक्ष्मण दास था। वे 1930 दशक में उत्तराखंड आ गए थे। राम भक्त हनुमान के परम भक्त नीम करौरी बाबा को कई बार उनके आराध्य हनुमान जी ने दर्शन दिए थे। उनको भक्त हनुमान का रूप ही मानते थे। भावली में स्थित  कैंची धाम मंदिर उनका विश्व विख्यात आश्रम है। जहां दुनिया भर के श्रद्धालु दर्शन करने आते रहते हैं। बाबा नीब करौरी ने दुनिया भर में हनुमान मंदिरों का निर्माण करवाया। ऐपल के संस्थापक स्टीव जॉब्स को यहीं से मार्गदर्शन मिला था। इसका जिक्र उन्होंने अपनी किताब में किया है। फेसबुक के सी. ई. ओ. मार्क जुकरबर्ग भी स्टीव जॉब्स की सलाह पर नीब करौरी मंदिर में दर्शन करने आए थे। हॉलीवुड अभिनेत्री जूलिया रॉबर्ट्स ने भी इसी मंदिर में आने के बाद अपना पूरा जीवन हिंदू धर्म में बिताने का निर्णय लिया था। अमेरिका से बाबा नीब करौरी के मंदिर के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं।

नारायण स्वामी ने 1936 में पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील के सोसा ग्राम में नारायण आश्रम का निर्माण करवाया था। समुद्र तल से लगभग 9 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित यह स्थान 1962 में हुए चीन के हमले के पहले तक कैलाश मानसरोवर यात्रा का अहम पड़ाव बन गया था। नारायण स्वामी का जन्म कर्नाटक में हुआ था। युवा अवस्था में वैराग्य उत्पन्न हुआ तो मानसरोवर यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने इस क्षेत्र के आध्यात्मिक, शैक्षिक और समाजिक उत्थान के लिए बहुत से कार्य किए। सुदूर जन जातीय लोगों के लिए अलग अलग स्थानों पर स्कूल स्थापित करवाए और उनको शिक्षा से जोड़ा। उस काल में इस क्षेत्र में धर्म परिवर्तन के लिए ईसाई मिशनरियों ने एक पादरी को नियुक्त कर रखा था। उससे समाज को बचाने में भी नारायण स्वामी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है।

लाहौर के निकट 1873 में जन्में मदन मोहन ने 1901 में गंगा तट पर संन्यास ग्रहण किया था, जो स्वामी रामतीर्थ के नाम से विश्व विख्यात हुए। टिहरी के राजा कीर्ति शाह से 1902 में उनकी भेंट हो गई। कीर्ति शाह ने स्वामी राम तीर्थ को उनके एक शिष्य नारायण स्वामी के साथ विश्व स्तरीय धर्म सम्मेलन में भाग लेने के जापान भेजा था। वहां से स्वामी रामतीर्थ अमेरिका भी गए और दो वर्ष रहे। वहां से लौटने पर राजा कीर्ति शाह ने भिलंगना नदी के किनारे सिमलासू में उनके लिए आवास बनवा दिया था। 1906 में 17 अगस्त को नदी में ही उन्होंने एक भंवर में फंस कर शरीर त्याग दिया।

किसी एक लेख या ग्रंथ में उत्तराखंड की संत परंपरा और संतों के बारे जानकारी देना सूर्य को दीपक दिखाने का सा प्रयास होगा। इसलिए कुछ संतों के बारे में ही थोड़ी सी जानकारी दी जा सकी है। उत्तराखंड के बारे में स्वामी राम तीर्थ ने लिखा है कि यहां उन्होंने जीते जी स्वर्ग देखा है। यहां की कंदराओं और हिम से ढके पर्वतों में ऐसे तपस्वी साधनारत हैं जिनकी आयु 5 हजार वर्ष से अधिक है। यहां ऐसे महामानव अनंत काल से साधनरत हैं जिनमें पलक झपकते ही संपूर्ण पृथ्वी का क्रम बदल देने की शक्ति निहित है। यह सामान्य मानव की कल्पना से परे है। स्वर्ग कोई कल्पना नहीं ध्रुव सत्य है।

इस क्षेत्र की संत परंपरा के कुछ और साधकों के नाम लिखने का साहस जुटा रहा हूं। अल्मोड़ा के काकड़ी घाट और पदमपुरी को साधना स्थल बनाने वाले सोमवारी बाबा, वहीं कोसी नदी के किनारे वाले गुदड़ बाबा, सूरी बाबा, नैनीताल के भावली में औघड़ बाबा, उत्तरकाशी में सुंदरानंद स्वामी, डेनमार्क से आकर अल्मोड़ा के कसार देवी में तपस्या करने वाले सोरिन बाबा, गढ़वाल में जन्मे हंस महाराज, गोरख बाबा, स्वामी कच्चहारी, दिव्यानंद सरस्वती, तपोवन स्वामी, प्रेम चैतन्य ब्रह्मचारी,  प्रेमसानंद गिरी, शशिधर स्वामी, श्री राम शर्मा आचार्य, महात्मा स्वरूप दास जैसे हजारों हजार नाम हैं।

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