देश को पहाड़-सा सुरक्षा कवच

कहते हैं पहाड़ पर चढ़ना हो तो झुकना पड़ता है। अकड़ के चलोगे तो गिर जाओगे। पहाड़ का पानी भी वैज्ञानिक भाषा में कठोर होता है। वहां चूल्हे पर पकने वाली दाल भी आसानी से नहीं गलती। ऐसे परिवेश में जन्मा व्यक्ति जन्म से सैनिक होता है। कुदरत की कठोरता उसे फौलादी बनाती है। उत्तराखंड वीर सैनिकों की खान कहलाता है तो कह सकते हैं इन वीर सैनिकों को कुदरत ने ही गढ़ा है।

पहली नजर में पहाड़ उपभोक्तावादी संस्कृति के रसिकों को महज सैर-सपाटे के स्थल लगते हैं, लेकिन सही मायनो में पहाड़ देश की जीवन-धारा के नियामक हैं। मौसम व ऋतु चक्र के संवर्धक हैं। मानसूनी बयार के नीति-नियंता हैं। वे पूरे देश को प्राणवायु देते हैं। वे दिल्ली का मौसम भी बदलते हैं। कुछ दिन पहाड़ पर गुजारना सैर-सपाटे व मौज मस्ती का पर्याय लगता हो, लेकिन जो पहाड़ पर जीवनयापन करता है, उसे पहाड़ का प्रेम व रौद्र दोनों देखने को मिलते हैं। सही मायनो में जीवन का हर-दिन एक नई चुनौती और हर दिन परीक्षा। लेकिन एक बात तय है कि प्रकृति का सान्निध्य व्यक्ति को मानवीय मूल्यों व संवेदनाओं से परिपूर्ण कर देता है। वीरता व साहस बोनस में मिलता है। कहते हैं पहाड़ पर चढ़ना हो तो झुकना पड़ता है। अकड़ के चलोगे तो गिर जाओगे। पहाड़ का पानी भी वैज्ञानिक भाषा में कठोर होता है। वहां चूल्हे पर पकने वाली दाल भी आसानी से नहीं गलती। ऐसे परिवेश में जन्मा व्यक्ति जन्म से सैनिक होता है। कुदरत की कठोरता उसे फौलादी बनाती है। उसे पहाड़ जैसा आत्मस्वाभिमानी और धीर-गंभीर बनाती है। ऐसे ही वातावरण में यदि उत्तराखंड वीर सैनिकों की खान कहलाता है तो कह सकते हैं इन वीर सैनिकों को कुदरत ने ही गढ़ा है। आर्थिक विषमता और रोजगार का संकट इसका यथार्थ है। यही कारण है कि जनसंख्या के अनुपात में उत्तराखंड ने देश को सबसे ज्यादा वीर सैनिक दिये हैं। जिसकी बानगी दोनों विश्वयुद्ध से लेकर अनेक अंतर्राष्ट्रीय युद्धों व आजादी के बाद देश की सीमाओं पर लड़े गये युद्धों में उत्तराखंड के वीर सैनिकों की वीरता के किस्सों में नजर आती है। ये वीरता थल सेना अध्यक्ष बिपिन चंद जोशी के रूप में नजर आती है। जब देश को पहला चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ मिला तो वह जनरल बिपिन रावत के रूप में उत्तराखंड से ही मिला है।

उत्तराखंड को यूं ही वीरों की भूमि नहीं कहा जाता। देश की सरहद की रक्षा में उत्तराखंड के जवानों का कोई सानी नहीं है। जब भी देश कभी मुश्किल में आया, उत्तराखंड के वीर जवानों ने जांबाजी की मिसाल पेश की। पहले ब्रिटिश सेना में तो आजादी के बाद उन्होंने देश की सेना में वीरता का लोहा मनवाया। आजादी से पहले मिले तीन विक्टोरिया क्रॉस जैसे बड़े सम्मान समेत कुल 364 पदक उत्तराखंड के सैनिकों की वीरता की कहानी बताते हैं। आजादी के बाद अदम्य साहस और वीरता के लिये साढ़े तेरह सौ पदक उत्तराखंड के सैनिकों की वीरता की गवाही देते हैं। महत्वपूर्ण यह भी कि भारतीय सेना में वीरता का पहला सर्वश्रेष्ठ सम्मान परमवीर चक्र कुमाऊं रेजिमेंट को ही मिला।

यूं तो उत्तराखंड के राजा-महाराजाओं की सेनाओं में उत्तराखंड के वीर सैनिकों के किस्से वीरगाथाओं व लोकगीतों में दर्ज है। यहां तक कि मुगल सेना भी उत्तराखंड के वीर सैनिकों के छापामार युद्ध से खौफ खाती रही है। विदेशी शासकों के दौर में भौगोलिक जटिलताओं वाले पहाड़ उत्तराखंड की सेनाओं को सुरक्षा कवच देते रहे हैं। टिहरी नरेश के सेनापति पुरिया दत्त नैथानी के औरगंजैब के दरबार में मृत्युदंड पाने और फिर वाकपटुता से उसे मोहित करके गढ़वाल का जजिया कर माफ करवाने तथा पुरस्कार पाने का उल्लेख इतिहास की किताबों में मिलता है। बावन सैन्य गढ़ों के आधार पर गढ़वाल नाम पाने वाले इलाके सैनिकों की वीरता की कहानी बयां करते हैं।

सैन्य धाम कहे जाने वाले उत्तराखंड के सैनिकों की अनेक वीर गाथाएं सेनाओं के इतिहास में दर्ज हैं। बताते हैं कि देश की सेना में हर सौंवा जवान उत्तराखंड से आता है। हर साल करीब नौ हजार युवा सेना में शामिल होते हैं। करीब पौने दो लाख पूर्व सैनिकों वाले उत्तराखंड के करीब पौने लाख जवान सेना में सेवारत हैं। यहां के जवानों की एक बड़ी संख्या अर्द्धसैनिक बलों व पैरा मिलिट्री फोर्सेज में भी है। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध से लेकर अब तक 2285 से अधिक उत्तराखंड के सैनिक देश के लिये हुतात्मा हुए हैं। वीरता का आलम यह है कि पुलवामा आतंकी हमले में मारे गए विभूति शंकर ढौंडियाल की शहादत के बाद मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली उनकी पत्नी ने नौकरी छोड़कर सेना में कमीशन लेकर वीरांगनाओं के शौर्य की नई इबारत लिखी। वीरगति का यह सिलसिला 1947 के भारत-पाक युद्ध से शुरू हो गया था, जिसमें बड़ी संख्या में कुमाऊं रेजिमेंट के जवानों व अधिकारियों ने देश की रक्षा के लिये अपने प्राण न्यौछावर किए।

गौरवशाली अतीत वाली कुमाऊं रेजिमेंट की स्थापना ब्रिटिशकाल में 1788 में हुई, जिसका मुख्यालय कुमाऊं मंडल के रानीखेत नामक रमणीक स्थान में स्थित है। वहीं दूसरी ओर गढ़वाल रेजिमेंट की स्थापना 1887 में हुई। इसकी स्थापना में 1879 के कंधार युद्ध में अदम्य साहस व वीरता का परिचय देने वाले ऑर्डर ऑफ मैरिट और ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया आदि सम्मान पाने वाले बलभद्र सिंह नेगी की बड़ी भूमिका रही। इसकी स्थापना गढ़वाल के कालौडांडा में हुई, जिसका नाम बाद में तत्कालीन वायसराय लार्ड लैन्सडाउन के नाम पर लैन्सडाउन कर दिया गया, जो आज भी गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर है। विश्वयुद्ध में अदम्य साहस के चलते जर्मन सेना को धूल चटाने वाले गब्बर सिंह नेगी व दरबान सिंह नेगी को सर्वोच्च पुरस्कार विक्टोरिया क्रॉस से अलंकृत किया गया। दूसरी ओर उत्तराखंड में रुड़की स्थित बंगाल इंजीनियर में भी बड़ी संख्या में उत्तराखंड के सैनिक व अधिकारी अपना योगदान दे रहे हैं।

इन सैनिकों के राष्ट्रवाद व लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता की ऐतिहासिक घटना तब सामने आई जब वीर नायक चंद्रसिंह के नेतृत्व में 23 अप्रैल 1930 को गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों के पेशावर में निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने के आदेश को ठुकरा दिया। बाद में महात्मा वीर नायक चंद्र सिंह को गढ़वाली उपनाम दिया। इस साहसिक व राष्ट्रवादी कदम पर इन सैनिकों को सख्त सजाएं दी गई। इस घटना से प्रेरित होकर कालांतर में हजारों सैनिक आजाद हिंद फौज में भर्ती होने गये। नौसेना विद्रोह को भी इस घटना से प्रेरित बताया जाता है।

आजादी के बाद भी उत्तराखंड के सैनिकों की वीरगाथाओं से इतिहास भरा हुआ है। वर्ष 1971 के बंगलादेश मुक्ति संग्राम में सबसे ज्यादा सैनिक उत्तराखंड से ही हुतात्मा बताये जाते हैं। इसके अलावा शांतिकाल में विकास कार्यों तथा पर्यावरण चेतना में भी भूतपूर्व सैन्य अधिकारियों का योगदान रहा। उत्तराखंड आंदोलन में भी पूर्व सैन्य अधिकारियों व जवानों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। रामपुर तिराहा कांड में आंदोलनकारियों की वीरगति के बाद रुड़की में लेफ्टीनेंट जनरल जे.एस.रावत को ने भूतपूर्व सैनिकों का नेतृत्व किया। राज्य बनने के बाद सेवानिवृत्त अधिकारी व जवान उत्तराखंड को संवारने में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं। इन वीरों के बिना उत्तराखंड की कल्पना करना कठिन है।

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