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उत्तरांचल के योजनाकार कर्मयोगी डॉ. नित्यानन्द

उत्तरांचल के योजनाकार कर्मयोगी डॉ. नित्यानन्द

by श्रीमती विनोद उनियाल
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, विशेष, सामाजिक
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डॉ. नित्यानन्द एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय के सान्निध्य में संघ कार्य से जुड़े और संघ के तत्कालीन सह सरकार्यवाह स्व. भाऊराव देवरस की प्रेरणा से प्रचारक बने। उन्हें संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में कार्य करने कर भी सौभाग्य मिला। डॉ. साहब के विषय में कहा जाता था कि उन्हें देखकर पूरा संघ समझा जा सकता था।

यह तो सभी को ज्ञात है कि उत्तराखंड पहली नवंबर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश से अलग होकर अस्तित्व में आया, उस समय केंद्र के साथ उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। बहुत कम लोग जानते होंगे कि अपने पूर्ववर्ती जनसंघ के समय से ही भाजपा छोटे राज्यों के पक्ष में नहीं रही, किंतु उत्तरांचल की विशेष स्थिति को देखते हुए इस पार्टी को अपनी नीति बदलनी पड़ी और उत्तरांचल के साथ ही झारखंड एवं छत्तीसगढ़ का भी निर्माण हो गया। इसके पीछे जिस एक महापुरुष के अध्ययन ने खास भूमिका निभाई, उन्हें कम लोग ही जानते होंगे, वे थे डॉ. नित्यानन्द, जो प्रख्यात भूगोलविद् होने के साथ साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े अधिकारी भी थे। एक समय था कि उत्तराखंड के सीमावर्ती जिलों में ‘दिल्ली दूर और पीकिंग पास’ के नारे लग रहे थे और विकास के अभाव में जनता को देश के विरोध में लामबंद किया जाने लगा था। ऐसे में इस संपूर्ण क्षेत्र के प्रमुख कार्यकर्ताओं से चर्चा-वार्ता कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन क्षेत्र प्रचारक (उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल व पूर्वोत्तर क्षेत्र) स्व. भाऊराव देवरस जिनका उत्तराखण्ड से खास लगाव था, ने 1972 में ‘उत्तराखण्ड विकास संस्थान’ का गठन करवाया व पुन: अप्रैल 1988 में अलग प्रदेश की परिकल्पना के साथ हरिद्वार बैठक में ‘उत्तरांचल उत्थान परिषद’ नाम से अराजनैतिक संस्था के माध्यम से जनजागरण कर अलग प्रदेश के लिए वातावरण तैयार करने का निर्णय करवाया जिसका दायित्व डॉ. नित्यानन्द का सौंपा गया। उत्तराखंड पर डॉ. नित्यानंद का बहुत गहन अध्ययन था। भारतीय संस्कृति के साथ ही डॉ. नित्यानन्द भारतीय इतिहास के भी गहन अध्येता रहे हैं। भारत व चीन के बीच 1962 के युद्ध के बाद इस विषय पर आयोजित एक बडी सभा में डॉ. साहब लगातार पौने तीन घंटे तक बोले। यह इतना प्रभावोत्पादक था कि ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ ने अपने जनवरी 1963 अंक में इसके प्रमुख अंश विस्तारपूर्वक प्रकाशित किये थे।

डॉ. नित्यानन्द ने सभी जिलों का दौरा कर 1988 के रक्षाबन्धन पर अलग प्रदेश निर्माण के औचित्य पर ‘उत्तरांचल प्रदेश क्यों?’ नाम से एक पुस्तिका का प्रकाशन किया। इसी में से अलग राज्य के निर्माण के विचार को बल मिला और इस प्रकाशन के उपरान्त अक्टूबर 1988 में भा.ज.पा. की केन्द्रीय कार्यकारिणी द्वारा उत्तरांचल राज्य का प्रस्ताव स्वीकार कर स्वतंत्र राज्य इकाई मानते हुए इस क्षेत्र के लिए ‘उत्तरांचल प्रदेश संघर्ष समिति’ का गठन किया गया। इस समिति के माध्यम से भाजपा के साथ ही संघ कार्यकर्ताओं ने भी राज्य प्राप्ति के आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इसके बाद उत्तरांचल ‘ऐतिहासिक परिदृश्य एवं विकास के आयाम’ नाम से राज्य की पूरी परिकल्पना तथा रूपरेखा के साथ डॉ. नित्यानन्द की दूसरी पुस्तक भी सामने आ गई। उत्तर प्रदेश के साथ ही केन्द्र में भी भाजपा की सरकार होने के उपरान्त उत्तरांचल राज्य निर्माण का स्वप्न भी साकार हो पाया। स्व. भाऊ राव की सतत प्रेरणा और डॉ. नित्यानन्द के सक्रिय मार्गदर्शन ने इसमें महती भूमिका निभाई।

डॉ. नित्यानंद 1944 में मात्र 18 वर्ष की आयु में प्रचारक बन गये थे, इकलौते पुत्र होने के कारण माता को साथ रखने की बाध्यता से इसमें व्यवधान भले ही आया हो, किन्तु वे जीवनव्रती कार्यकर्ता बने रहे। वे अविवाहित रहे और माता के देहान्त के बाद संघ कार्यालय ही उनका आवास बन गया। उनका जीवन संघनिष्ठ ही नहीं, संघमय भी था जिसमें राष्ट्र व समाज के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर देने की इच्छा ही सर्वोपरि होती है। डॉ. साहब सिद्धांतों एवं अनुशासन को लेकर जितने कठोर थे, कार्यकर्ताओं के लिए उतने ही कोमल हृदय वाले थे। ऐसे छात्रों की सूचि काफी विस्तृत है, जिनका जीवन संवारने में डॉ. साहब ने महती भूमिका निभाई है। डॉ. साहब संघ में अविभाजित उत्तर प्रदेश के अनेक वर्षों तक प्रांत कार्यवाह रहे, संघ शिक्षा वर्गों में मुख्य शिक्षक के रूप में आज भी उनकी बड़ी ख्याति है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संघ द़ृष्टि से पृथक राज्य बनने पर डॉ. साहब इसके भी कार्यवाह रहे। एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय के सानिध्य में संघ कार्य से जुड़े और संघ के सह सरकार्यवाह रहे स्व. भाऊराव देवरस की प्रेरणा से प्रचारक बने डॉ. नित्यानन्द के जीवन पर उनका भी प्रभाव था। संघ मुख्यालय नागपुर में आयोजित होने वाले तृतीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग में भी डॉ. साहब शिक्षक रहे और उन्हें संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में कार्य करने कर भी सौभाग्य मिला। डॉ. साहब के विषय में कहा जाता था कि उन्हें देखकर पूरा संघ समझा जा सकता था।

मेरे पति संघ के प्रमुख कार्यकर्ता होने के साथ डॉ. नित्यानन्द के निकट सहयोगी भी रहे और उनसे मिलने प्राय: संघ कार्यालय पर जाते रहते थे, जो दूसरी मंजिल पर था। अस्सी-नव्बे के दशकों तक महिलाएं संघ कार्यालय नहीं जाती थीं। एक बार पति के डॉ. साहब से मिलने ऊपर संघ कार्यालय जाने पर मुझे नीचे सडक से सटे आंगन में प्रतिक्षा करनी पड़ी। पति को वहां कार्यालय में बातचीत में काफी समय लग गया और वे भूल गये कि मैं नीचे खड़ी हूं। डॉ. साहब को जैसे ही इस बात का पता चला, तो पति को डांट पिलाने के साथ वे स्वयं नीचे चले आये और मुझे ऊपर ले गये, जहां मैंने जीवन में पहली बार संघ कार्यालय देखा। डॉ. साहब बाहर से जितने कठोर थे, भीतर से उतने ही सहृदय और सुकोमल थे, इसका अनुभव भी मुझे उस दिन हुआ।

विभिन्न महाविद्यालयों में अध्यापन कार्य करते हुए डॉ. नित्यानन्द 1965 में देहरादून आने के उपरान्त स्थानीय डी.बी.एस. कॉलिज में 20 वर्षों तक भूगोल के रीडर व विभागाध्यक्ष रहे। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में डॉ. साहब के अनेकों शोधपत्र प्रकाशित हुए। उत्तरकाशी में 1991 में आये विनाशकारी भूकम्प के बाद डॉ. नित्यानन्द के जीवन में बड़ा मोड़ आया जब जन-धन को हुई भारी हानि से उनका मन द्रवित हो उठा। दुखी एवं पीड़ितों की व्यवस्था एवं पुनर्वास की चिन्ता में उन्होंने स्वयं को सेवा कार्यों के लिए अर्पित कर दिया। उसके उपरान्त वहीं ‘मनेरी आश्रम’ कुटिया में रहते हुए उन्होंने भटवाड़ी ब्लॉक के छात्र-छात्राओं के लिए विद्यालय व छात्रावास के साथ ही स्थानीय जनता के लिए चिकित्सालय तथा रोजगार व स्वावलम्बन के प्रकल्पों की भी स्थापना की।

डॉ. नित्यानन्द के निकट सहयोगी कार्यकर्ताओं द्वारा उनके नब्बे वर्ष पूरे होने के अवसर पर 7 फरवरी 2016 को उनके अभिनन्दन के लिए एक भव्य कार्यक्रम आयोजित करने का निश्चय किया गया था, जिसमें उन पर पुस्तक प्रकाशित करने की योजना भी थी किन्तु नियति को यह स्वीकार नहीं था और 8 जनवरी 2016 को ही उन्होंने इस संसार से विदाई ले ली। एक वर्ष के बाद उन पर पुस्तक के प्रकाशन के साथ एक बड़ा कार्यक्रम भी आयोजित हो गया किन्तु यह अभिनन्दन का न होकर श्रद्धांजलि का बन गया था। डॉ. नित्यानन्द का व्यक्तित्व कार्यकर्ताओं के लिए सदैव प्रेरक रहा उनके लिए सभी के मन में एक विषेष स्थान है।

 

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