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वैश्विक-संकट और भारत की बढ़ती भूमिका

वैश्विक-संकट और भारत की बढ़ती भूमिका

by प्रमोद जोशी
in ट्रेंडींग, फरवरी २०२२ हिमाचल प्रदेश विशेषांक, राजनीति, विशेष
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दुनिया के सामने एक तरफ महामारी का खतरा है, वहीं आर्थिक-प्रगति और शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है। कोरोना के अलावा दुनिया में शीतयुद्ध का संक्रमण भी हुआ है। खासतौर से अमेरिका की चीन और रूस के साथ रिश्तों में तल्खी बढ़ती जा रही है। यूरोप में यूक्रेन की सीमा पर युद्ध के हालात बने हुए हैं। हालांकि भारत ने सावधानी के साथ खुद को इस होड़ से अलग रखा है, पर हमें चीन और पाकिस्तान की साठगांठ का सामना करना पड़ेगा।

क्कीसवीं सदी के बाईसवें साल की शुरूआत भी महामारी के लपेटे में है। उम्मीद है कि यह महामारी के उतार का साल साबित होगा। यह भी सच है कि इसके नए वेरिएंट ओमिक्रॉन का प्रसार सारी दुनिया में हो गया है, जो संक्रमण के मामले में बहुत तेज है, पर घातक नहीं है। लगता है कि इसके बाद महामारी का प्रभाव कम होगा और जनजीवन सामान्य होने लगेगा। ओमिक्रॉन का असर यूरोप और अमेरिका के साथ-साथ भारत पर भी है।

भारतीय राजनय के लिए यह वर्ष काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। पिछले वर्ष की शुरुआत सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता से हुई थी। इस दौरान ऐसे महत्वपूर्ण मौके पर भारत सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष भी रहा, जब गज़ा पट्टी पर इसरायल-हमस संघर्ष चल रहा था और दूसरी तरफ अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा हो रहा था। अब इस साल के अंत में भारत को जी-20 की अध्यक्षता मिलेगी।

दुनिया के सामने एक तरफ महामारी का खतरा है, वहीं आर्थिक-प्रगति और शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी भी है। कोरोना के अलावा दुनिया में शीतयुद्ध का संक्रमण भी हुआ है। खासतौर से अमेरिका की चीन और रूस के साथ रिश्तों में तल्खी बढ़ती जा रही है। यूरोप में यूक्रेन की सीमा पर युद्ध के हालात बने हुए हैं। हालांकि भारत ने सावधानी के साथ खुद को इस होड़ से अलग रखा है, पर हमें चीन और पाकिस्तान की साठगांठ का सामना करना पड़ेगा। पिछले दो वर्ष से चीन के साथ पूर्वी लद्दाख की घुसपैठ को लेकर गतिरोध बना हुआ है, जो 12 जनवरी को हुई चौदहवें दौर की बातचीत के बाद भी टूटा नहीं है।

लद्दाख का गतिरोध

चीन के साथ चौदहवें दौर की बातचीत के दौरान भारत ने खासतौर से पूर्वी लद्दाख के हॉट स्प्रिंग्स क्षेत्र में अपनी स्थिति को दृढ़ता से रखा और चीन से कहा कि उसे इस क्षेत्र से पीछे हटना होगा। दूसरी तरफ चीन अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति बहाल करने को तैयार नहीं है। यानी हॉट स्प्रिंग्स, देपसांग बल्ज और चार्डिंग नाला या देमचोक क्षेत्र में पीछे हटने को तैयार नहीं है। उधर चीन की संसद ने पिछले साल 23 अक्तूबर को 14 देशों के साथ लगी अपनी 22,100 किलोमीटर लम्बी ज़मीनी सीमा की पहरेदारी को लेकर एक कानून पास किया है, जिसका लब्बो-लुवाब है कि किसी भी प्रकार के अतिक्रमण का चीनी सेना तगड़ा जवाब देगी। यह आक्रामक रणनीति है।

भारत के अलावा चीन के ताइवान के साथ रिश्तों में भी ऐतिहासिक गिरावट देखने को मिली है। चीन ताइवान को अपना प्रांत बताता है जबकि ताइवान ख़ुद को संप्रभु देश मानता है। दक्षिणी चीन सागर को लेकर भी चीन का अपने कई पड़ोसी देशों के साथ विवाद जारी है। वहीं, पूर्वी चीन सागर में चीन का जापान के साथ विवाद है। हांगकांग में चीन-विरोधी आंदोलन जारी हैं। हालांकि वहां के स्थानीय चुनावों में चीन को सफलता मिली है, पर इस सफलता के पीछे चुनाव कानूनों में किए गए कुछ बदलाव हैं, जिनके कारण स्वतंत्रता-समर्थक चुनाव से बाहर कर दिए गए।

12 जनवरी की भारत-चीन वार्ता के ठीक पहले अमेरिका ने कहा है कि पड़ोसी देशों को ’धमकी देने’ की चीनी कोशिशें चिंताजनक हैं। हम अपने ’मित्र देशों के साथ खड़े रहेंगे।’ चीन विस्तारवादी आक्रामक रणनीति पर चल रहा है, दूसरी तरफ वह घिरता भी जा रहा है, क्योंकि उसके मित्रों की संख्या सीमित है। तीन-चार दशक की तेज आर्थिक प्रगति के कारण उसके पास अच्छी पूंजी है, पर अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी है। वास्तविक-युद्ध से वह घबराता भी है।

हाल में कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनसे चीन की भारत से जुड़ी रणनीति पर रोशनी पड़ती है। अरुणाचल प्रदेश की 15 जगहों के चीन ने नए नामों की घोषणा की है। दूसरे नए साल पर चीनी सेना का एक ध्वजारोहण, जिसके बारे में दावा किया गया है कि वह गलवान घाटी में किया गया था। तीसरे पैंगोंग त्सो पर चीनी सेना ने एक पुल बनाना शुरू किया है, जिसके बन जाने पर आवागमन में आसानी होगी।

हिंद महासागर में चीन अपनी उपस्थिति लगातार बनाने की कोशिश कर रहा है। साल की शुरुआत में चीन के विदेशमंत्री श्रीलंका और मालदीव की यात्रा करके गए हैं। श्रीलंका और मालदीव दोनों ने ही अतीत में चीन से भारी कर्ज ले रखे हैं। संकट में फं से श्रीलंका ने चीन से कर्ज-वापसी की नई शर्तें तैयार करने का अनुरोध किया है। इस क्षेत्र में भारतीय राजनय की परीक्षा है।

स्वतंत्र विदेश-नीति

भले ही भारत के रिश्ते अमेरिका के साथ बहुत अच्छे हैं, पर हमने रूस के साथ भी संपर्क बनाकर रखा है, क्योंकि हमारे सामरिक और आर्थिक हित रूस के साथ भी जुड़े हुए हैं। इस दृष्टि से दिसंबर के पहले सप्ताह में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत-यात्रा महत्वपूर्ण रही। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच 28 समझौतों पर मुहर लगी। दोनों देशों के शासनाध्यक्षों के बीच शिखर वार्ता के साथ ही दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों की ‘टू प्लस टू’ बातचीत का भी दौर हुआ।

भारत के सामने दूसरी चुनौती अफगानिस्तान में बदली परिस्थितियों को लेकर है, जिसमें पाकिस्तान की भूमिका भी है। गत वर्ष 15 अगस्त को तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा तो कर लिया, पर नए शासन को अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली है। मानवाधिकार, स्त्रियों के प्रति बर्ताव और गैर-पश्तून क्षेत्रों को शासन में प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाने के कारण विश्व-जनमत तालिबान को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

अफगानिस्तान के नागरिकों के सामने भोजन और जीवन-यापन का संकट खड़ा हो गया है। भारत ने अफगानिस्तान को 50 हजार टन गेहूं देने की पेशकश की है, पर उसे अफगानिस्तान तक भेजने का रास्ता तय नहीं हो पाया है। सबसे आसान तरीका है, सड़क के रास्ते से भेजना। उसके लिए पाकिस्तान ने कई तरह की शर्तें लगा दी हैं। अब ईरान ने पेशकश की है कि हम गेहूं को अफगानिस्तान तक पहुंचाने में मदद कर सकते हैं।

पाकिस्तान का संकट

पिछले साल जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी रुकने के बाद उम्मीद थी कि भारत-पाकिस्तान रिश्तों की बर्फ पिघलेगी, पर ऐसा हो नहीं पाया। भारत के प्रति नफरत की रणनीति से पाकिस्तान बाहर निकल नहीं पाया है। इस नफरत के कारण ही वह आर्थिक-संकट से घिरा है, क्योंकि उसका सारा ध्यान युद्ध और आतंकवाद में है।

इमरान ख़ान सरकार गंभीर आर्थिक संकट में घिरी हुई है। बजट घाटे और लगातार घटते विदेशी मुद्रा भंडार के कारण पिछले पांच महीनों में उसे 4.6 अरब डॉलर का क़र्ज़ लेना पड़ा है। ये कर्जे सऊदी अरब और चीन से लेने पड़े हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) से भी उसे कर्ज मिला है, पर और कर्ज लेने के लिए उसे अपनी आंतरिक व्यवस्था में बड़े बदलाव करने होंगे, जो सरकार को अलोकप्रिय बनाएंगे।

आईएमएफ की शर्तों को मानने के लिए सरकार ने ’स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान संशोधन बिल’ पेश किया है और भारी टैक्सों की पेशकश की है। विरोधी दलों के नेता मुद्राकोष के कर्ज को आत्म समर्पण और संप्रभुता पर हमला बता रहे हैं। उनका कहना है कि देश का केंद्रीय बैंक पाकिस्तानी संसद के प्रति जवाबदेह नहीं होगा, वह मुद्राकोष के कब्ज़े में चला जाएगा। दूसरी तरफ बिजली से लेकर पेट्रोल तक सब महंगा हो जाएगा।

पश्चिम एशिया में बदलाव

गत 19 दिसंबर को इस्लामाबाद में हुए इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के विदेशमंत्रियों के शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के नाम पर अपनी साख बनाने की कोशिश की, पर हुआ कुछ नहीं। इस दौरान पश्चिम एशिया में बड़े राजनीतिक बदलाव देखने को मिल रहे हैं। सऊदी अरब और यूएई के नेतृत्व में एक नया दृष्टिकोण विकसित हो रहा है, जिसमें इसरायल के साथ रिश्ते सुधारने और सीरिया में टकराव खत्म करने के प्रयास शामिल हैं। दिसंबर के महीने में इसरायली प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट ने यूएई की यात्रा की, जिसका ऐतिहासिक महत्व है।

खाड़ी देशों के लिए इसरायल अब ’अछूत’ नहीं है। सऊदी अरब ने भी उसके साथ रिश्ते कायम करने की इच्छा प्रकट की है। वैश्विक शक्तियां ईरान के साथ परमाणु समझौते को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही हैं। दोनों बातें इस क्षेत्र में गुणात्मक बदलाव की ओर इशारा कर रही हैं। अगस्त 2020 में हुए ’अब्राहम समझौते’ के बाद से बहरीन, सूडान और मोरक्को के बाद संयुक्त अरब अमीरात ने इसरायल के साथ राजनयिक संबंध बना लिए हैं। पिछले साल ग़ाजा पट्टी में हुए युद्ध के बाद अब संभावनाएं बन रही हैं कि फलस्तीन समस्या के समाधान की ओर बढ़ा जाए।

पश्चिम एशिया में शांति-स्थापना भारत के लिए शुभ समाचार है, क्योंकि ईरान, फलस्तीन, सीरिया, सऊदी अरब, ईरान और यूएई सभी के साथ भारत के रिश्ते अच्छे हैं। सीरिया संकट के दौरान दुनिया के चुनिंदा देश ही दमिश्क में राजनयिक तौर पर सक्रिय रहे। भारत उनमें से एक था। कोविड-19 महामारी के दौरान सीरिया में पैदा हुए संकट के मद्देनज़र भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के मार्गदर्शन में सीरिया को वैक्सीन दिलाने की पहल की थी। वहीं सीरिया ने ख़ासतौर से मुस्लिम दुनिया में कश्मीर मसले पर भारत के राजनय का समर्थन किया है।

यूक्रेन का संकट

यूरोप में रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की स्थिति बनी हुई है। पश्चिमी देशों को चिंता है कि तनाव बढ़कर युद्ध में तब्दील हुआ, तो इसकी आग पूरे यूरोप में फैल सकती है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में इतने ख़राब हालात पहली बार तैयार हुए हैं। पश्चिमी देशों की ख़ुफ़िया संस्थाओं का अनुमान है कि यूक्रेन की सीमा पर टैंकों और तोपों के साथ रूस के एक लाख सैनिक तैनात थे, जिनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। जनवरी के अंत तक यह संख्या पौने दो लाख तक पहुँच गई है।

अमेरिका और उसके नेटो सहयोगी पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि यूक्रेन पर रूस के किसी भी हमले के ’गंभीर आर्थिक परिणाम’ होंगे। विश्लेषकों का मानना है कि रूस चाहता है कि यूक्रेन को पश्चिमी देशों के सुरक्षा संगठन नेटो में जगह नहीं मिले। नेटो में जगह मिलने के बाद यूक्रेन की सुरक्षा नेटो की जिम्मेदारी हो जाएगी। यूक्रेन रूसी साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था, पर 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद वह स्वतंत्र देश बन गया। इसके बाद उसने पश्चिमी देशों से निकटता बढ़ाने की कोशिश शुरू की। यूक्रेन के भीतर भी कई प्रकार की ताकतें हैं। एक तबका अलगाववादी है, जिसे रूस का समर्थन प्राप्त है। रूस पर आरोप है कि वह यूक्रेन के अलगाववादियों को पैसे और हथियारों से मदद करता है।

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