हिमाचल का गौरवशाली इतिहास

महर्षि पाणिनि ने पश्चिम हिमालय क्षेत्र के जनपदों का ‘उदीच्य’ नाम से उल्लेख किया है। प्रथम समूह में त्रिगर्त, गब्दिका, युगन्धर, कालकूट, भरद्वाज, कुलूत और कुनिन्द तथा दूसरे समूह में अन्य गणराज्यों के साथ औदुम्बर गणराज्य का उल्लेख है। मुख्यत: ये आयुद्धजीवी गणराज्य रहे हैं। इन सभी गणराज्यों के संदर्भ में वेद, रामायण, महाभारत, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, पाणिनि की अष्टाध्यायी और बृहत्संहिता में मिले हैं।

हिमाचल पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में अवस्थित है। पर्वतराज हिमालय अपनी आयु में अन्य पर्वतों से छोटा माना जाता है जबकि ऊंचाई में बड़ा है। जिस समय पृथ्वी के विभिन्न द्वीप दैनिक भू-भ्रम एवं वार्षिक भू-भ्रम के कारण पूर्वोतर दिशा में खिसकने लगे, उस समय सागरीय हलचल के साथ हिमालय का निर्माण हुआ। भारतीय कालक्रम के अनुसार यह बात चाक्षुक मन्वन्तर के अन्तिम समय की है। वैवस्वत मन्वन्तर में मनु की नाव मनाली में लगी, फिर नई सृष्टि का निर्माण हुआ। यह विचार हिमालय क्षेत्र में सर्वव्यापक है।

मानवीय सभ्यता की खोज नृशास्त्रियों का अनवरत कार्य है। हिमाचल की शिवालिक की पहाड़ियों, शिवालिक की रोपड़घाटी, हरितल्यांगर (बिलासपुर), सुकेती (सिरमौर), नालागढ़, व्यास, बाणगंगा की तलहटियां, शिमला पब्बर नदी घाटी, सिरसा-सतलुज आदि नदी-घाटियों में पुरातात्त्विक कालक्रमिक ऐतिहासिक प्रमाण विद्यमान हैं। पूर्व पाषाणकालीन, मध्य पाषाणकालीन और नव पाषाणकालीन (25 लाख वर्ष पूर्व से लेकर 12000 ई.पू.) एवं कांस्य युग की कालावधि में प्रस्तर हथियारों, बर्तनों तथा जीवनयापन में उपयोगी उपकरणों के जीवन्त प्रमाण यहां उपलब्ध हैं। ये सब पुरातात्त्विक अवशेष सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के विकासात्मक चरणों के ऐतिहासिक पुरातात्त्विक साक्ष्य पश्चिम हिमालय क्षेत्र की बसावट और ऐतिहासिकता को प्रमाणित करते हैं।

वेदों में ‘दाशराज’ युद्ध का विवरण प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने आर्यजनपदों को संगठित कर सुदास के विरुद्ध एक सैन्य संघ तैयार किया। यह युद्ध रावी नदी घाटी में दाशराज और तृस्तुओं के मध्य हुआ, जिसका वर्णन ॠग्वेद कीॠचाओं में वर्णित है। वैदिक तृस्तुओंं का मूल क्षेत्र आज का हिमाचल प्रदेश है। यही क्षेत्र साहित्य एवं इतिहास में त्रिगर्त के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तृस्तु और त्रिगर्त का शाब्दिक एवं व्युत्पत्तिलभ्यार्थ भाव एक ही है। तृस्तु वैदिक काल  के बाद बदली हुई परिस्थिति में त्रिगर्त नाम से प्रसिद्ध हुए। सतलुज, व्यास और रावी नदी के कारण भी इसे त्रिगर्त कहा जाता है। इसकी सीमाएं हिमाचल प्रदेश के पूर्व सतलुज नदी से पश्चिम में रावी नदी तक और दक्षिण में जालन्धर दोआब से मुलतान तक थी। इस क्षेत्र में कटोच राजवंश प्राचीनतम राजवंश है जिसका संस्थापक भ्ाूमिचन्द्र था। भ्ाूमिचन्द्र से लेकर महान प्रतापी महाराज संसारचन्द व उसके परवर्ती कालखण्ड तक त्रिगर्त का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है।

वैदिक युग के उत्तर पूर्वी कालखण्ड में जनपदों का निर्माण हुआ। इन्हीं जनपदों में पश्चिम हिमालय क्षेत्र में राजनैतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों ने आदि से वर्तमान तक मानव सभ्यता में अपना विशेष योगदान समाहित किया है।

ब्रिटिश सत्ता के अधीन हिमाचल प्रदेश

ब्रिटिश सत्ता के अधीन हिमाचल प्रदेश दो भागों में विभक्त होकर 1815 की आंग्ल-गोरखा संधि के कारण शिमला पहाड़ी रियासतें अस्तित्व में आईं और 1846 की आंग्ल-सिख लाहौर संधि के कारण कांगड़ा की पहाड़ी रियासत अंग्रेजों के अधीन आई। हिमाचल के विषय में यह खास बात है कि शिमला हिल स्टेट गोरखों से तंग था और कांगड़ा की पहाड़ी रियासतें सिक्खों से परेशान थीं। अंग्रेजी अत्याचार उससे भी अत्यन्त भयानक थे। नूरपुर रियासत के वजीर रामसिंह पठानिया ने नूरपुर रियासत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए 1846 से 1849 तक सशस्त्र सेना के साथ युद्ध किया और विदेशी दासता की मुक्ति के लिए 1857 की क्रान्ति से 11 वर्ष पूर्व अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए शहीद हो गए।

महर्षि पाणिनि ने पश्चिम हिमालय क्षेत्र के जनपदों का ‘उदीच्य’ नाम से उल्लेख किया है। प्रथम समूह में त्रिगर्त, गब्दिका, युगन्धर, कालकूट, भरद्वाज, कुलूत और कुनिन्द तथा दूसरे समूह में अन्य गणराज्यों के साथ औदुम्बर गणराज्य का उल्लेख है। मुख्यत: ये आयुद्धजीवी गणराज्य रहे हैं। इन सभी गणराज्यों के संदर्भ में वेद, रामायण, महाभारत, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, पाणिनि की अष्टाध्यायी और बृहत्संहिता में मिले हैं। गुप्तकाल में राजनैतिक और सांस्कृतिक द़ृष्टि से अनेक परिवर्तन हुए और शासन व्यवस्था का गणतन्त्र से राजतन्त्र की ओर परिवर्तन हुआ।

आठवीं से बारहवीं शताब्दी और बारहवीं से उत्तरवर्ती शताब्दियों में राजपूत काल में हिमाचल के भ्ाू-भाग में दो प्रकार के राज्य अस्तित्व में आए। त्रिगर्त, कुलूत, चम्बा और बुशहर पूर्व से ही स्थापित थे। राजपूत शासकों की स्थापना की होड़ में गुर्जर प्रतिहार वंश, चंदेल, कलचूरी, परमार, तोमर, चौहान एवं चालुक्यवंश आदि राजवंशों की स्थापना हुई। तत्पश्चात अरब, तुर्क, मुगल, मंगोलों के आक्रमण जो 1009 में मुहम्मद गजनवी से प्रारम्भ होते हैं उसमें यहां की धन संपदा की लूट, धर्मभ्रष्ट करने और अपना अधिपत्य स्थापित करने के लिए असंख्य आक्रमण हुए जिसमें जहांगीर कुछ काल के लिए कांगड़ा किला को अपने अधीन करने में सफल हुआ था। परन्तु कटोच राजवंश अपने राज्य को पुन: प्राप्त करने में सफल हुए।

स्वराज संघर्ष में हिमाचल प्रदेश का योगदान

पहाड़ी क्षेत्र हिमाचल प्रदेश में अंग्रेजों की शोषणकारी नीति, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप, भारतीयों के प्रति हीनद़ृष्टि रखना, धार्मिक आस्थाओं और मान्यताओं में हस्तक्षेप ने किसानों, मजदूरों, सन्त-फकीरों, साधु-सन्तों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों को उद्वेलित कर दिया। 1857 के स्वतन्त्रता आन्दोलन की पहली चिंगारी हिमाचल प्रदेश में 30 अप्रैल, 1857 को कसौली की छावनी में भड़क उठी।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में सामाजिक जन-जागरण में आर्य समाज का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आर्य समाज ने शिक्षा अन्तर्जातीय विवाह और विधवा विवाह से एक जनक्रान्ति पैदा कर दी।  हिमाचल प्रदेश में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण निर्माण करने में किसान आन्दोलनों की भी विशेष भ्ाूमिका रही है। ये किसान आन्दोलन अलग-अलग नामों जैसे दूम्म आन्दोलन, झुग्गा आन्दोलन, मण्डी किसान आन्दोलन, सुकेत आन्दोलन और पझौता आन्दोलनों से जाने जाते हैं।

क्रान्तिकारी गतिविधियों में स्वामी कृष्णानन्द (हरदेव), हिरदा राम, इन्द्रपाल (मंगतू), रानी खैरगढ़ी, यशपाल का नाम प्रमुखता से इतिहास में दर्ज है, इन सब क्रान्तिकारियों के पीछे आर्य समाज की शिक्षा और स्वराज प्राप्ति के लिए बलिदान होने की भावना नजर आती है। आर्य समाज के प्रभाव से अमेरिकी सैमुअल इवांस स्टोक्स जो ईसाईकरण के लिए भारत में आए थे वे आर्य समाज पद्धति से शिक्षित होकर हिन्दू धर्म ग्रहण करते हैं और भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में जेल तक जाते हैं।  आज़ादी के समय 1944 से 1947 तक जब देश की आज़ादी और विभाजन दोनों हो रहे थे, उस समय पाकिस्तान से भारत आने वालों की रक्षा और सुरक्षा का दायित्व समझकर विशेष योगदान देते हैं।

1947 में देश की आज़ादी के साथ 2 मार्च, 1948 को भारत सरकार के राज्य मंत्रालय (मिनीस्ट्री ऑफ स्टेट) ने दिल्ली में शिमला एवं पंजाब पहाड़ी रियासतों की बैठक बुलाई। इस बैठक में मंत्रालय के सचिव सी.सी. देसाई ने देशी शासकों से बिना शर्त ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर करने को कहा। 2 मार्च, 1948 को शिमला की पहाड़ी रियासतों के राजाओं के विलयपत्र पर हस्ताक्षर हुए। इस प्रकार 15 अप्रैल, 1948 को 30 छोटी-बड़ी शिमला की ठाकुराइयों को मिलाकर ‘हिमाचल प्रदेश’ की स्थापना हुई। 24 मार्च, 1953 को डॉ. यशवन्त सिंह परमार हिमाचल प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने। 25 जनवरी, 1971 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने शिमला के रिज मैदान पर प्रदेशवासियों को 18वें राज्य के रूप में हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्यत्व का दर्जा प्रदान किया।

– डॉ. चेतराम गर्ग                                                                                                                

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