यूरोप में उभरा शांति का यह संकट यदि जल्दी नहीं सुलझाया गया तो यह युद्ध यूरोप से बाहर निकल कर अन्य क्षेत्रों में भी फैल सकता है। कुछ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों का यहां तक मानना है कि चीन द्वारा ताइवान पर हमला करने की योजना भी बन रही है। ऐसे में यूरोप और एशिया में एक साथ युद्ध की भूमिका का निर्माण हो सकता है।
वर्तमान में यूक्रेन और रूस के बीच जारी संघर्ष वैश्विक शांति के लिए संकट बनता जा रहा है। अमेरिका के नेतृत्व में नाटो (North Atlantic Treaty Organisation) समूह तथा दूसरी तरफ रूस और उसके मित्र देशों द्वारा संघर्ष विराम के तरफ ना बढ़ना ‘तीसरे विश्व युद्ध’ की तरफ विश्व व्यवस्था को ले जा रहा है। पिछले कुछ हफ़्तों में यूक्रेन की सीमा के निकट रूस ने अपने सेना की एक बड़ी संख्या तैनात कर दी है तथा बेलारूस के साथ रूस के सैन्य अभ्यास ने इस क्षेत्र में तनाव बढ़ा दिया है। रूस का दावा है कि यूक्रेन ने अपनी आधी सेना यानी लगभग सवा लाख सैनिकों को यूक्रेन के रूसी समर्थक अलगाववादी वाले पूर्वी हिस्से में लगा दिया है।
हालांकि ऐतिहासिक रूप से देखे तो यूक्रेन और रूस सैकड़ों वर्षों के सांस्कृतिक, भाषाई और पारिवारिक संबंध साझा करते हैं। सोवियत संघ के हिस्से के रूप में, यूक्रेन रूस के बाद दूसरा सबसे शक्तिशाली सोवियत गणराज्य था और रणनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से काफी महत्त्वपूर्ण भी था। सोवियत संघ का हिस्सा होने की वजह से यूक्रेन के रूस के साथ गहरे राजनीतिक संबंध हमेशा रहे हैं जिसमें जातीयता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यूक्रेन की राजधानी कीव को ’रूसी शहरो की मां’ कहा जाता है। रूस और यूक्रेन में कई समूहों के लिए देशों की साझा विरासत एक भावनात्मक मुद्दा है। रूसी राष्ट्रपति लगातार रूसियों और यूक्रेनियों को ’एक ही लोग’ कहते आए हैं और वो दावा करते हैं कि सोवियत समय में यूक्रेन को ग़लत तरी़के से ऐतिहासिक रूसी ज़मीन मिल गई थी।
रूस और यूक्रेन के बीच काफी समय से विवाद चला आ रहा है। 24 अगस्त 1991 को सोवियत संघ से यूक्रेन अलग हुआ, सोवियत संघ से अलग होने के बाद यूक्रेन को पश्चिमी देशों का साथ मिला, नाटो के पूर्वोत्तर विस्तार की नीति ने सोवियत संघ से अलग हुए देशों को अपने समूह में शामिल करना प्रारंभ किया, जिससे रूस असहज हुआ और नाटो की इस नीति के कारण पड़ोसियों के प्रति रूस की सुरक्षा नीति प्रभावित हुई और भू-राजनीति ने नया स्वरुप ले लिया।
रूस और यूक्रेन के बीच संघर्ष का कारण
यूक्रेन और रूस के बीच क्रीमिया एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। क्रीमिया में सबसे ज़्यादा जनसंख्या रूसियों की है इसके अलावा वहां यूक्रेनी, तातार, आर्मेनियाई, पॉलिश और मोल्दावियाई समूह के लोग भी रहते हैं। क्रीमिया पर कभी क्रीमियाई तातार बहुसंख्या में थे लेकिन उन्हें जोसेफ़ स्टालिन के दौरान मध्य एशिया भेज दिया गया था। 1954 में सोवियत संघ के तात्कालिक शासक निकिता ख्रुश्चेव ने क्रीमिया को यूक्रेनी-रूसी मैत्री और सहयोग के एक तोह़फे के तौर पर इसे यूक्रेन को सौंप दिया था।
1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद यूक्रेन रूस की छत्रछाया से निकलने की कोशिशें करने लगा और पश्चिमी देशों के गुट के साथ अपने संबंधों को विस्तार देने लगा। समस्या तब प्रारंभ हुई जब 2003 की संधि के मुताबिक रूस और यूक्रेन के बीच कर्च जलमार्ग और अज़ोव सागर के बीच बंटी हुई जल सीमाओं पर रूस द्वारा अतिक्रमण होना प्रारंभ हुआ। अज़ोव सागर ज़मीन से घिरा हुआ है और काला सागर से कर्च के तंग रास्ते से होकर ही इसमें प्रवेश किया जा सकता है परन्तु दोनों देशों में पारस्परिक अविश्वास के कारण यह जलमार्ग संघर्ष का क्षेत्र बन गया। रूस का मानना था कि इस समुद्री रास्तों से यूक्रेन रूस विरोधी समूहों को हथियारों की आपूर्ति कर रहा है।
वर्ष 2010 में यूक्रेन के राष्ट्रपति विक्टर यानूकोविच ने रूस से अपने संबंध बेहतर किए तथा उन्होंने यूरोपीय संघ में शामिल होने के समझौते को ख़ारिज कर दिया। इस निर्णय के खिलाफ यूक्रेन में भारी विरोध प्रदर्शन हुआ जिसके परिणाम स्वरुप वर्ष 2014 में उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। इसके बाद रूस ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ आक्रामकता दिखाई और वहां के अलगाववादियों की मदद की जिसके परिणामस्वरूप 2014 में रूस ने क्रीमिया प्रायद्वीप का पुन:विलय कर लिया, इससे पहले तक क्रीमिया यूक्रेन का हिस्सा हुआ करता था।
रूस और यूक्रेन: वर्तमान संकट
ऐतिहासिक रूप से देखें तो मौजूदा तनाव तात्कालिक नहीं है बल्कि यह लंबे समय से चल रहा एक संकट है जो विकराल रूप धारण कर सकता है। रूस और यूक्रेन के सम्बन्ध लगातार खटास भरे रहे है, वर्तमान तनाव के बीज 1999 में बोए गए थे। यूक्रेन एवं रूस के बीच पुनः प्रारंभ हुए विवाद का प्रमुख कारण यूक्रेन द्वारा नाटो समूह में शामिल होने की कवायद है। यूक्रेन ने पश्चिमी देशों से नज़दीकियां बढ़ानी शुरू कर दी हैं। उसने ऐसा फैसला तब लिया, जब उसके पूर्वी हिस्से की एक लंबी सीमा रूस से लगती है (यूक्रेन के दो भाग है, वेस्टर्न यूक्रेन और ईस्टर्न यूक्रेन, ईस्टर्न यूक्रेन में काफी मात्रा में रूस के समर्थक हैं)।
यह भी उल्लेखनीय है कि रूस द्वारा क्रीमिया प्रायद्वीप को यूक्रेन से अलग कर देना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में ऐसे पहली घटना थी। रूस का मानना है कि यूरोपीय सुरक्षा संरचना में रूस के हितों की लगातार अनदेखी हो रही है और नाटो के पूर्वोत्तर विस्तार की नीति रूस के ‘वैश्विक शक्ति’ की छवि को सीमित कर रहा है। वर्तमान का सारा संकट यूक्रेन को लेकर नहीं है बल्कि रूस के हितों को ध्यान में रखते हुए यूरोप में मौजूदा व्यवस्थाओं को लेकर है।
वर्तमान संकट की स्थिति में यूक्रेन खुद को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी वाले हालत में नहीं देखना चाहेगा जहां दो महाशक्तियों के बीच सुलह में जर्मनी दो भागों में बंट गया था।
यूक्रेन – रूस संघर्ष में अमेरिका यूक्रेन की खुलकर मदद कर रहा है क्योंकि पिछले दो दशकों से राजनीतिक और रणनीतिक संबंध काफी मजबूत हुए हैं। यूक्रेन अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो का पूर्णकालिक सदस्य बनना चाहता है। वर्तमान में यूक्रेन नाटो का अस्थायी सदस्य है।
रूस – यूक्रेन संघर्ष और भारत
रूस और यूक्रेन संघर्ष में पश्चिमी देशों की तरफ से अमेरिका द्वारा यूक्रेन को समर्थन दिया जा रहा है ऐसे में भारत के लिए इस संघर्ष में किसी एक पक्ष का खुलकर समर्थन करना कूटनीतिक दुविधा की स्थिति उत्पन्न करता है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में रूस के खिलाफ अमेरिकी प्रस्ताव पर भारत ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। भारत ने दोनों पक्षों को शांतिपूर्ण वार्ता द्वारा कूटनीतिक हल निकालने की अपील की। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमुर्ति ने अपने अधिकारिक बयान में कहा कि भारत का हित ऐसा समाधान खोजने में है, जो सभी देशों के सुरक्षा हितों को ध्यान में रखते हुए तनाव को तत्काल कम कर सके और दीर्घकालिक शांति और स्थिरता हासिल करें। भारत के लिए अमेरिका और रूस दोनों महाशक्तियां महत्वपूर्ण हैं और भारत किसी भी एक देश का पक्ष लेकर दूसरे मित्र राष्ट्र को नहीं खोना चाहेगा।
यूरोप में उभरा शांति का यह संकट यदि जल्दी नहीं सुलझाया गया तो यह युद्ध का रूप ले सकता है तथा यूरोप से बाहर निकल कर अन्य क्षेत्रों में भी फैल सकता है। कुछ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों का यहां तक मानना है कि चीन द्वारा ताइवान पर हमला करने की योजना भी बन रही है। ऐसे में यूरोप और एशिया में एक साथ युद्ध की भूमिका का निर्माण हो सकता है। यूक्रेन तथा रूस को तत्काल अपने सैनिकों को सीमा से वापस बुलाकर कूटनीतिक वार्ता के माध्यम से शांति स्थापित करने की ओर अग्रसर होना चाहिए। यूरोपीय देशों विशेषकर फ़्रांस और जर्मनी को मध्यस्थता करनी चाहिए। बड़े देशों द्वारा अपने छोटे पड़ोसी राष्ट्रों की संप्रभुता पर हमला करना तीसरे विश्व युद्ध की शुरुवात का संकेत है।
– डॉ. अभिषेक श्रीवास्तव