चटगांव बंगाल हिंदू एनक्लेव : एक संभावना

 

एक आकलन के मुताबिक 2013 के बाद से बांग्ला देश में अब तक हिंदुओं पर 3600 हमले किये जाने का रिकार्ड उपलब्ध हैं और कितने ही तो रोज होते हैं जो अनरिपोर्टेड रहते हैंं। मात्र मानवीय आधार पर ही देखें तो इसकी गंभीरता अत्यंत चिंताजनक है। जिस बंगाल की सरकार व मुख्यमंत्री को बंगाली हिंदुओं संस्कृति और भाषा के हित में सीमापार के ये मुद्दे मजबूती से उठाने चाहिए थे वे तो भारत के बंगाल में उसी बांगला देशी जेहादी साम्प्रदायिक मशीन के बेशर्म हिस्से बन चुके हैं।

यह कोई सामान्य विचार नहीं है। नया इतिहास लिखना, समाजों का भाग्य बदलना यथास्थितिवादी सत्ता आकांक्षियों के बस का नहीं होता। बात यहां बंगाल के असहाय हिंदुओं की है जिन्हें हमारी आजादी के कथित नायकों ने 1947 में जेहादी भेड़ियों का ग्रास बनने के लिए लावारिस छोड़ दिया था। यह विचार जो अंतिम पैरे में है, 1947-48 में कश्मीर युद्ध के समय भी हमारी बुद्धि में आ सकता था। लेकिन नहीं हमारे नेहरू जैसे नेता तो स्वयं ही पाकिस्तान के विचार के सबसे बड़े संरक्षक थे। 1950 के ढाका के भीषण दंगों के बाद जिसमें न्यूनतम 10,000 हिंदुओं की हत्या हुई थी, सरदार पटेल ने उद्वेलित होकर कहा था कि यही हाल रहा तो हमें शरणार्थियों के लिए जमीन पाकिस्तान से लेनी पड़ेगी। जिसपर नेहरू ने घबरा कर बड़ी सफाई दी कि सरकार का ऐसा कोई विचार नहीं है। बल्कि नेहरू ने लियाकत अली के साथ मिलकर एक निकृष्ट सोच का ऐसा समझौता कर लिया जो पाकिस्तान के हिंदुओं को पाकिस्तान में ही रहने को बाध्य करता था।

विश्व इतिहास में नेहरू से अधिक नीच व हिंदूद्रोही चरित्र खोजना मुश्किल है। चटगांव हिंदू एनक्लेव स्थापित करने का कार्य सन् 1965 के युद्ध के समय भी हो सकता था। लेकिन तब तक तो न रणनीति, न कूटनीति, न राष्ट्रहित की कोई समझ ही विकसित हो सकी थी। हम उन तुरंत आजाद किये गये गुलामों की तरह थे जिनकी गुलामी की आदतें गहरे पैंठी हुई थीं। गुलामी के मानस से आजाद हो जाना, शक्ति की भाषा बोलने लगना आसान न था। अंग्रेजों की गुलामी से छूटे तो नेहरू की बदौलत वामपंथ की वैचारिक गुलामी का दौर आ गया था।

एक आकलन के मुताबिक 2013 के बाद से बांग्ला देश में अब तक हिंदुओं पर 3600 हमले किये जाने का रिकार्ड उपलब्ध हैं और कितने ही तो रोज होते हैं जो अनरिपोर्टेड रहते हैंं। मात्र मानवीय आधार पर ही देखें तो इसकी गंभीरता अत्यंत चिंताजनक है। जिस बंगाल की सरकार व मुख्यमंत्री को बंगाली हिंदुओं संस्कृति और भाषा के हित में सीमापार के ये मुद्दे मजबूती से उठाने चाहिए थे वे तो भारत के बंगाल में उसी बांगला देशी जेहादी साम्प्रदायिक मशीन के बेशर्म हिस्से बन चुके हैं। वे भी अपने मजहबी एजेंटों के माध्यम से हिंदू समाज पर अत्याचार करने में कहीं से पीछे नहीं हैं। यह एक अलग विमर्श है कि ये सरकार अभिजात भद्रलोक हिंदू व दलित नमोशूद्र हिंदुओं में भेद करते हुए दलित हिंदू समाज की जेहादी प्रताड़ना से आंखें बंद रखती है। चूंकि मामला दलित बंगाली हिंदूओं का है इसलिए मीडिया वगैरह का शोर भी एक सीमा से आगे नहीं बढ़ा। ये लोकतंत्र के सबक हैं।

बंगाल में संभवतः एक छोटे से वर्ग को छोड़ कर सब ने इसे अपनी नियति मान लिया है कि राजनैतिक हित साधने वाले इस प्रायोजित जेहादी विस्तार व वर्चस्व को रोक सकना संभव नहीं है। बांग्ला देश की कुल 17 करोड़ आबादी में हिंदू लगभग 1।5 करोड़ के आसपास हैं। अभी हमने दुर्गा पूजा पंडालों पर हुए जेहादी आक्रमणों को देखा है जिसमें इस्कॉन के पुजारियों समेत दर्जन भर हिंदुओं की वीभत्स हत्या हुई। संभवतः यह पहली बार है कि बांगलादेश का साम्प्रदायिक मुद्दा विश्व स्तर पर उठाया गया और दुनिया ने इनका जेहादी चेहरा देखा। नान रेजिडेंट बंगाली-बांग्ला देशी हिंदुओं में इसके प्रति चिंताएं देखी गयीं कि यह सब आखिर कब तक चलेगा।

बांग्ला देश, बताते हैं कि भारत की बदौलत आजाद हुआ है। इतिहास में तो यही लिखा है। हमारी अपनी फौजी रेजिमेंट भी 1971 में ढाका की लड़ाई में थी लेकिन अब भरोसा नहीं होता। हमारी बदौलत आजाद हुए इस देश की साम्प्रदायिकता  जेहादियों की सहयोगी बनी हुई हिंदुओं से शत्रुता में किसी से पीछे नहीं है। हमारा दिमाग ही नहीं चलता कि आखिर हमारे देश की भूमिका, हमारा दायित्व और भविष्य की दिशा क्या है। क्या सिर्फ बच्चे पालना, मुफ्तखोरी करना, जब मौका लगे तो जाकर किसी को वोट दे देना ही हमारे भाग्य में है ? मरने के करीब पहुंचे लोगों ने संविधान रच दिया अब वह देश के मरने तक क्या ऐसे ही चलेगा ? जेहादी समाज तो इस देश के मरने के इंतजार में हैं। जेहादी ही नहीं, जातिवादी, भाषावादी, क्षेत्रीय क्षत्रप, मिशनरी, माओवादी, खालिस्तानी और भी बहुत से देश के मरने की प्रतीक्षा में हैं। आपने झंडे पर लिटा कर जेहादियों द्वारा काटी जा रही गाय का तड़पता वीडियो देखा होगा। वह एक सिंबल है कि समाज को काटने वाले सशक्त बेधड़क हो रहे हैं। वे भारत का यही हस्र देखना चाहते हैं।

यहां सवाल वैचारिक विमर्शों से बाहर आकर कार्ययोजना पर चलने का है। खालिस सोचना, सिर्फ आलोचक बने रहना, कोई समाधान नहीं है। मैंने खोजने का प्रयास किया कि क्या बांग्ला देश के प्रताड़ित हिंदू समाज ने इस अत्याचारों का प्रतिवाद करने के लिए व अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कोई ऐसा सशक्त संगठन बनाया है जो आवश्यकता पड़ने पर सशस्त्र प्रतिवाद से भी पीछे न हटे। अभी तक ऐसा कोई दिखा नहीं है। बंगाली हिंदू एनआरआई वर्ग इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। 1।5 करोड़ एक सशक्त आबादी है। चटगांव क्षेत्र में हिंदू आबादी 15 लाख के लगभग है। सशक्त राजनैतिक प्रतिक्रियाओं के मद्देनजर अन्य क्षेत्रों से चटगांव की ओर हिंदुओं के माइग्रेशन से यह आबादी बढ़ती जाएगी। इतिहास की गलतियों को सुधारने के ऐसे कई उदाहरण अभी के इतिहास में मौजूद हैं। अभी अभी यूक्रेन के पूर्वी रूसी आबादी बहुल इलाके डोनबास के दो राज्यों को रूस ने अलग मान्यता दी है। इससे पहले यूगोस्लाविया के टूटने से नाटो द्वारा बनाया गया कोसोवो एक अलग मुस्लिम बहुल योरोपीय देश अस्तित्व में आया है। तो बांग्ला देशी हिंदुओं के लिए चटगांव हिंदू राष्ट्र या ‘बंगभूमि’ नामक देश क्यों नहीं बन सकता।

राजस्थान के अरावली की पहाड़ियों की तरह चकमा हिल्स, चटगांव की पहाड़ियां हैं जो क्रांतिकारियों को शरण देकर हिंदू बंगाल की आधारशिला बन सकती हैं। सशक्त प्रयास होगा तो चटगांव हिंदू बहुल भी हो सकता है। सम्बंधित मानचित्र को ध्यान से देखें, गहन अध्ययन करें। चटगांव के पूर्व में भारत, पश्चिम में समुद्र, दक्षिण में म्यांमार और उत्तर में त्रिपुरा का भारतीय क्षेत्र है इसके पश्चिम से होकर फेनी इलाके की एक छोटी जमीनी पट्टी से बांग्ला देश मुख्यभूमि से यह चटगांव प्रायद्वीप जुड़ता है। यहां का भूगोल एक सशस्त्र क्रांति के लिए आदर्श है। बंगाल ने पहले भी देश को रास्ता दिखाया है। अधिक नहीं यदि जमीन से जुड़े मात्र एक लाख बंगाली युवक ही यह प्रतिज्ञा कर लें तो सहयोगी शक्तियां अपने आप साथ आने लगेगी। अगले दस वर्षों से पहले ही चंटगांव प्रायद्वीप में हिंदू राष्ट्र बंगाल का स्वप्न साकार हो सकता है।

यदि ऐसा हो सका तो यह हमारे मानस को आमूल बदल देने वाली एक हिंदू क्रांति का सूत्रपात होगा …!

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