अन्य मंत्रालयों की तरह रक्षा मंत्रालय और इसके तीन मुख्य अंग – थल सेना, नौसेना और वायु सेना को भी इस 75 साल की समीक्षा करनी होगी। निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से आईने में देखना होगा क्योंकि इससे ही भविष्य का ’एक्शन प्लान’ तैयार होगा। रक्षा मामलों में पुन: विचार विमर्श करने, जांच करने, मूल्यांकन करने, परिष्कृत करने और लक्ष्य निर्धारित करने का ये सुनहरा अवसर है।
सभी भारतीयों के लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतिम अवशेषों से छुटकारा पाने, स्वाधीन भाव, गर्व एवं आत्म निर्भर अंदाज से आगे बढ़ने के मार्ग का चयन करने का भी सही समय है।
अन्य मंत्रालयों की तरह रक्षा मंत्रालय और इसके तीन मुख्य अंग – थल सेना, नौसेना और वायु सेना को भी इस 75 साल की समीक्षा करनी होगी। निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से आईने में देखना होगा; क्योंकि इससे ही भविष्य का ’एक्शन प्लान’ तैयार होगा। रक्षा मामलों में पुन: विचार विमर्श करने, जांच करने, मूल्यांकन करने, परिष्कृत करने और लक्ष्य निर्धारित करने का ये सुनहरा अवसर है।
व्यापक दुनिया में कुछ छोटे आक्रमणों को छोड़कर और संयुक्त राष्ट्र के शांति-रक्षा अभियानों में हमारे योगदान को छोड़कर, हमारी सैन्य धारणा आज तक देश तक ही सीमित द्वीपीय मानसिकता पर आधारित है। इस बीच, रक्षा मामले ’स्थानीय’ से ’वैश्विक’ तक विकसित हो चुके है क्योंकि भारत हर क्षेत्र में साहसपूर्वक और प्रबलता से आगे बढ़ रहा है। चाहे वो अंतरिक्ष, प्रौद्योगिकी, अर्थशास्त्र, विनिर्माण, कूटनीति या ‘सॉफ्ट पावर’ का प्रयास हो लेकिन अकेले सॉफ्ट पावर से हमें वह सारी ताकत नहीं मिलेगी जिसकी हमें जरूरत है। हार्ड पावर को भी पुनरुत्थान की धूरी पर चलना चाहिए क्योंकि एक विस्तारित, वैश्विक पदचिह्न के लिए इसे विरोधी ताकतों से बचाने की क्षमता की आवश्यकता होती है।
हमें अपने भीतर झांक के देखना होगा क्या हमारा सैन्य विचार, सिद्धांत, अवधारणा, रणनीति, प्रौद्योगिकी, उत्पादन, परिचालन योजना और निष्पादन अन्य क्षेत्रों में हमारी प्रगति के साथ तालमेल रखते हैं या नहीं? क्या यह अंतरिक्ष और आईटी में हमारी प्रगति के अनुरूप है, या यह अभी भी हमारी पिछली मानसिकता की विरासत में समाया हुआ है? उत्तर स्पष्ट है, हमारे सैन्य सिद्धांतों और विश्व स्तर पर पुनरुत्थान वाले भारत की वैध मांगों के बीच एक बड़ा अंतर है। इस खाई को पाटने का यह सही समय है, क्योंकि बेलगाम सुस्ती केवल हमारी आकांक्षाओं और हमारी क्षमताओं के बीच बढ़ते अलगाव को बढ़ाएगी।
इंटरनेट से जुड़ी और सिकुड़ती दुनिया में भारतीय रक्षा सेनाओं को अब एक राष्ट्रीय से एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में तेजी से स्नातक होने की जरूरत है क्योंकि विकास ’हर जगह’ हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। भारतीय सेना के विचार को अब अनिवार्य रूप से अपने उपमहाद्वीप के दृष्टिकोण से आगे निकल जाना चाहिए और नई आंखों से विश्व स्तर पर नए सिरे से देखना चाहिए। दूसरा आवश्यक कार्य संस्कृति – ’वृद्धिवाद और परंपरावाद’ से ’नवाचार और परिवर्तन’ तक। पिछले दो दशकों में भारत ने पहले ही डिजिटल संचार, हवाई-यात्रा, अंतरिक्ष अन्वेषण आदि जैसे क्षेत्रों में आमूलचूल परिवर्तन देखा है और अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के व्यापक उपयोग की दहलीज पर है। अफसोस की बात है कि ’रक्षा और सुरक्षा’ का प्रतिमान काफी हद तक परिवर्तनकारी कायापलट के इस दायरे से बाहर रहा है। कुछ कार्यालय-कार्यों में सुधार के लिए आईटी के सीमित उपयोग को छोड़ कर अथवा मिलिट्री हार्डवेयर के कुछ टुकड़ों के आयात के अलावा, हमारे अधिकांश उत्पाद, प्रक्रियाएं और प्रथाएं अभी भी काफी हद तक पुरातन हैं। धीमी, सुस्त परंपरावाद और छोटे, वृद्धिशील परिवर्तन के पारंपरिक दलदल में अभी भी फंसी हुई हैं। जबकि दम घुटने वाली नौकरशाही को इस स्थिति के लिए पूरी तरह से दोष लेना चाहिए। यह भी उतना ही सच है कि वर्दीधारी ताकतों ने सरकार को धक्का नहीं दिया है, और खुद को पुरानी औपनिवेशिक कार्य संस्कृति से छुटकारा पाने के लिए पर्याप्त प्रयत्न नहीं किया है। लालफीताशाही, पावर-ब्रोकिंग और जी हुज़ूरी से दुर्बल हुई हमारी सैन्य संस्थान वृद्धिशील परिवर्तन से वंचित रह गई है। नतीजतन जहां तक समयबद्धता, चपलता, तत्परता और दक्षता का संबंध है, हम कई छोटे देशों से पीछे रह गए हैं।
इसे तेजी से बदलने की जरूरत है। ’वृद्धिवाद’ की संस्कृति, जो अक्षमता को जन्म देती है, को त्याग कर परिवर्तनकारी क्षमताओं के साथ बदलने की जरूरत है। यह तभी हो सकता है जब हम अपनी नियोजन प्रक्रियाओं, कार्य प्रक्रियाओं, डेटा (आंकड़े) प्रबंधन, निर्णय लेने और मिशन निष्पादन को साहस, दूरदर्शिता, प्रौद्योगिकी और व्यावहारिकता के साथ एक ’विश्व स्तरीय’ सेना के रूप में, त्वरित समय में आवश्यकता अनुसार बदल डाले। इस तरह की कार्य संस्कृति को अनिवार्य रूप से नवीन विचार, इनोवेशन और क्रिएटिविटी पर आधारित करना होगा। हमारी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ का एक सच्चा उत्सव होगा यदि हम अपनी कार्य संस्कृति में इस परिवर्तनकारी बदलाव को सार्थक रूप से ला सके और यह सुनिश्चित करें कि यह स्थायी रहे।तीसरा आवश्यक ’सैन्य क्षमता विकास’ को उत्प्रेरित करना। यह स्तब्ध करने वाला, यहां तक कि चौंकाने वाला भी है कि हमारी जैसी बड़ी पेशेवर सेना के लिए, ’सैन्य क्षमता विकास’ के महत्वपूर्ण विषय का न तो औपचारिक रूप से अध्ययन किया जाता है और न ही कुशलता से अभ्यास किया जाता है। नतीजतन इस अत्यधिक जटिल अनुशासन (जिसमें युद्ध से लेकर रसद तक, वित्त से लेकर प्रौद्योगिकी तक, स्वदेशीकरण से लेकर रक्षा भागीदारी आदि तक के 23 विविध विषय शामिल है) का ज्ञान बहुत कम है, इसमें महारत की तो बात ही छोड़िए। जबकि अधिकांश प्रशिक्षण और शैक्षणिक संस्थान इस विषय को नज़रंदाज़ कर देते है। इस को औपचारिक रूप से पढ़ने-सीखने के लिए कोई अन्य संस्थागत व्यवस्था भी नहीं है। यह विश्व की सभी उन्नत सेनाओं के बिल्कुल विपरीत है। जिन सिविल व सैन्य अधिकारियों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है, वे इसके बारे में बहुत कम जानते हैं।
यह देखते हुए कि स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी हम दुनिया के सबसे बड़े हथियारों के इंपोर्टर देशो में से एक हैं – अपने आप में शर्म की बात है। इस महत्वपूर्ण विषय की ओर ध्यान देना अनिवार्य है जो हमारे देश के लगभग 50,000 करोड़ रुपये हर साल निगल जाता है। इस गंभीर मुद्दे को अवैज्ञानिक और अक्षम्य प्रबंधन से बचा कर हमें इसे कुशल संचालन में बदलने की सख्त जरूरत है।
सबसे पहले, इस अनुशासन को ’सैन्य विज्ञान’ के क्षेत्र में सभी अध्ययनों के एक अनिवार्य घटक के रूप में पेश करने की आवश्यकता है। इस शिक्षा को प्रदान करने के लिए अधिकांश सैन्य और नागरिक संस्थानों द्वारा स्नातक, स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट स्तर पर औपचारिक रूप से पढ़ाया जाना जरूरी है। दूसरे, केवल इस विषय में औपचारिक रूप से योग्य कर्मियों (सैन्य और नागरिक दोनों) को सेवा मुख्यालय, आईडीएस के साथ-साथ ‘एमओडी’ में इस विशेष कार्य को निष्पादित करने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। यहां तदर्थवाद के लिए कोई जगह नहीं है। तीसरा, हमें रक्षा मंत्रालय और निचले स्तरों पर इस प्रमुख पोर्टफोलियो को संभालने की वर्तमान खराब प्रणाली को पूरी तरह से सुधारने और ओवरहाल करने की आवश्यकता है। ’समिति पर समिति’ की ब्रिटिश विरासत, जो कि वर्तमान गैर-प्रणाली है, को बिना किसी औपचारिकता के फेंक दिया जाना चाहिए, और इसके स्थान पर एक ’कार्य-बल और टीम आधारित मॉडल’ को अपनाया जाना चाहिए, जिसमें प्रत्येक निर्दिष्ट क्षमता की प्राप्ति, अति-त्वरित में समय, प्रत्येक टीम के प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन और मृत्यु का मामला बन जाए। चौथा, वर्तमान ’फाइल-आधारित’ प्रणाली, जो कार्यालय-कार्य करने के वेस्टमिंस्टर मॉडल पर आधारित है, को डिजिटल रूप से सशक्त, वैज्ञानिक, उपकरण-आधारित मॉडल के पक्ष में रद्दी करने की आवश्यकता है। ग्राफ़, चार्ट और एल्गोरिदम का उपयोग अनिवार्य है, जिसके द्वारा समय, बजट और सैन्य क्षमता की तुलना को लगातार ट्रैक और प्लॉट करा जा सके। जब तक यह तर्कसंगत, वैज्ञानिक और पारदर्शी प्रणाली नहीं अपनाई जाती, हमारी सैन्य क्षमता सच्चे आधुनिकता से वंचित रहेगी। इस का सीधा-सीधा असर सैन्य विकास के सभी घटक – जैसे लंबी, मध्यम और लघु अवधि के परिप्रेक्ष्य योजना, बल संरचना, पूंजी अधिग्रहण, रक्षा खरीद, ऑफसेट, स्वदेशी उत्पादन, इत्यादि पर पढ़ता है जो वर्तमान में निष्क्रिय अराजकता से बीमार है।
अंत में, इतिहास हमें एक ’पूर्व उपनिवेश’ से एक ’विश्वसनीय महाशक्ति’ के रूप में खुद को परिवर्तित करने की क्षमता के आधार पर आंकेगा; ये उत्थान हासिल करने का हमारे पास सुनहरा मौका है। जैसा कि शेक्सपियर ने कहा था मनुष्यों के मामलों में एक ज्वार होता है, जो बाढ़ में लिया लिया जाए तो उज्ज्वल भविष्य की ओर ले जाता है इसे गंवा दिया तो शेष जीवन को दुखों में डूबो देता है। अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर आज भारत ऐसे ही एक महत्वपूर्ण अवसर के शिखर पर खड़ा है। ‘मेरा देश सर्वश्रेष्ठ‘ के हमारे सपने को साकार करने का यही उचित समय है।
जय हिन्द ! जय हिंद की सेना!
मे. ज. अमरदीप भरद्वाज (सेवानिवृत्त)