चंद्रशेखर आजाद के साथी डॉ. भगवानदास माहौर

देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व दाँव पर लगाने वाले डा. भगवानदास माहौर का जन्म 27 फरवरी, 1909 को ग्राम बडौनी (दतिया, मध्य प्रदेश) में हआ था। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में पूरी कर ये झाँसी आ गये। यहाँ चन्द्रशेखर आजाद के सम्पर्क में आकर 17 वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने क्रान्तिपथ स्वीकार कर लिया।

भगवानदास की परीक्षा लेने के लिए आजाद और शचीन्द्रनाथ बख्शी ने एक नाटक किया। ये दोनों कुछ नये साथियों को पिस्तौल भरना सिखा रहे थे। उसकी नली भगवानदास की ओर थी। बख्शी जी ने कहा – देखो गोली ऐसे चलाते हैं। 

तभी आजाद ने बख्शी जी का हाथ ऊपर उठा दिया। गोली छत पर जा लगी। बख्शी जी ने घबराहट का अभिनय किया। आजाद ने तब भगवानदास के दिल की धड़कन देखी। वह बिल्कुल सामान्य थी। आजाद समझ गये कि दल के लिए ऐसा ही साहसी व्यक्ति चाहिए।

कक्षा 12 की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने आजाद की सलाह पर ग्वालियर के विक्टोरिया काॅलेज में प्रवेश ले लिया और छात्रावास में रहने लगे; पर जब वहाँ आने वाले क्रान्तिकारियों की संख्या बहुत बढ़ने लगी, तो उन्होंने ‘चन्द्रबदनी का नाका’ मोहल्ले में एक कमरा किराये पर ले लिया।

जब लाहौर में सांडर्स को मारने का निर्णय हो गया, तो आजाद ने उन्हें भी वहाँ बुला लिया। उन और विजय कुमार सिन्हा पर यह जिम्मेदारी थी कि यदि सांडर्स भगतसिंह आदि के हाथ से बच जाए, तो ये दोनों उसे निबटा देंगे।

एक बार आजाद ने भगवानदास और सदाशिव मलकापुरकर के हाथ एक पेटी हथियार राजगुरु के पास अकोला भेजे। भुसावल पर उन्हें गाड़ी बदलनी थी। वहाँ आबकारी अधिकारी ने वह पेटी खुलवा ली। इस पर दोनों वहाँ से भागे; पर पकड़ लिये गये। जेल में डालकर जलगाँव में उन पर मुकदमा चलने लगा।

21 फरवरी को उनके विरुद्ध गवाही देने के लिए मुखबिर जयगोपाल और फणीन्द्र घोष आने वाले थे। इन्होंने सोचा कि इन दोनों को यदि वहाँ गोली मार दें, तो फिर कोई मुखबिरी नहीं करेगा। इन्होंने अपने वकील द्वारा चन्द्रशेखर आजाद को सन्देश भेजा। आजाद ने सदाशिव के बड़े भाई शंकरराव के हाथ 20 फरवरी की शाम को भात के कटोरे में एक भरी हुई पिस्तौल भेज दी। यह बड़े खतरे का काम था। 21 फरवरी को उन्हें न्यायालय में गोली चलाने का अवसर नहीं मिला; पर जब भोजनावकाश में दोनों मुखबिर खाना खा रहे थे, तो भगवानदास ने गोली चला दी।

पहली गोली पुलिस अधिकारी नानकशाह को लगी। दोनों मुखबिर डर कर मेज के नीचे छिप गये। इस कारण वे अगली दो गोलियों से घायल तो हुए; पर मरे नहीं। इधर तीन गोली चलाने के बाद पिस्तौल जाम हो गयी। इस मुकदमे में उन्हें आजीवन कारावास दिया गया। 1938 में जब कांग्रेसी मन्त्रिमंडलों की स्थापना हुई, तो आठ साल की सजा के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। इसके बाद भी वे कई आन्दोलनों में जेल गये। उन्होंने अपनी पढ़ाई भी प्रारम्भ कर दी। ‘1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव’ विषय पर उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच-डी. की।

इसके बाद ये प्राध्यापक हो गये। बुन्देलखण्ड के साहित्य पर शोध के लिए झाँसी विश्वविद्यालय ने इन्हें डी.लिट. की उपाधि दी। डा. भगवानदास की इच्छा गीत गाते हुए फाँसी का फन्दा चूमने की थी; पर यह पूरी नहीं हो पायी। 12 मार्च, 1979 को लखनऊ में उनका देहान्त हुआ।
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