सिख पन्थ के दूसरे गुरु अंगददेव का असली नाम ‘लहणा’ था। उनकी वाणी में जीवों पर दया, अहंकार का त्याग, मनुष्य मात्र से प्रेम, रोटी की चिन्ता छोड़कर परमात्मा की सुध लेने की बात कही गयी है। वे उन सब परीक्षाओं में सफल रहे, जिनमें गुरु नानक के पुत्र और अन्य दावेदार विफल रह गये थे।
गुरु नानक ने उनकी पहली परीक्षा कीचड़ से लथपथ घास की गठरी सिर पर रखवा कर ली। फिर गुरु जी ने उन्हें धर्मशाला से मरी हुई चुहिया उठाकर बाहर फेंकने को कहा। उस समय इस प्रकार का काम शूद्रों का माना जाता था। तीसरी बार मैले के ढेर में से कटोरा निकालने को कहा। गुरु नानक के दोनों पुत्र इस कार्य को करने के लिए तैयार नहीं हुए।
इसी तरह गुरु जी ने लहणा को सर्दी की रात में धर्मशाला की टूटी दीवार बनाने को कहा। वर्षा और तेज हवा के बावजूद उन्होंने दीवार बना दी। गुरु जी ने एक बार उन्हें रात को कपड़े धोने को कहा, तो घोर सर्दी में रावी नदी पर जाकर उन्होंने कपड़े धो डाले। एक बार उन्हें शमशान में मुर्दा खाने को कहा, तो वे तैयार हो गये। इस पर गुरु जी ने उन्हें गले लगा कर कहा – आज से तुम मेरे अंग हुए। तभी से उनका नाम अंगददेव हो गया।
गुरु अंगददेव का जन्म मुक्तसर, पंजाब में ‘मत्ते दी सराँ’ नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम फेरुमल और माता का दयाकौरि था। फेरुमल फारसी और बही खातों के विद्वान थे। कुछ वर्ष फिरोजपुर के हाकिम के पास नौकरी के बाद उन्होंने अपना व्यवसाय प्रारम्भ किया।
15 वर्ष की अवस्था में लहणा का विवाह संघर (खडूर) के साहूकार देवीचन्द की पुत्री बीबी खीबी से हुआ। उनके परिवार में दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। बाबा फेरुमल हर वर्ष जत्था लेकर वैष्णो देवी जाते थे। कई बार लहणा भी उनके साथ गये।
सन् 1526 में पिता की मृत्यु के बाद दुकान का भार पूरी तरह लहणा पर आ गया। अध्यात्म के प्रति रुचि होने के कारण एक दिन लहणा ने भाई जोधा के मुख से गुरु नानक की वाणी सुनी। वे इससे बहुत प्रभावित हुए। उनके मन में गुरु नानक के दर्शन की प्यास जाग गयी। वे करतारपुर जाकर गुरु जी से मिले। इस भेंट से उनका जीवन बदल गया।
सात वर्ष तक गुरु नानक के साथ रहने के बाद उन्होंने गुरु गद्दी सँभाली। वे इस पर सितम्बर, 1539 से मार्च, 1552 तक आसीन रहे। उन्होंने खडूर साहिब क¨ धर्म प्रचार का केन्द्र बनाया। सिख पन्थ के इतिहास में गुरु अंगददेव का विशिष्ट स्थान है। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती गुरु नानक की वाणी और उनकी जीवनी को लिखा।
उन दिनों हिन्दुओं में ऊँच-नीच, छुआछूत और जाति-पाँति के भेद अत्यधिक थे। गुरु अंगददेव ने लंगर की प्रथा चलाई, जिसमें सब एक साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। पश्चिम से होने वाले मुस्लिम आक्रमणों का पहला वार पंजाब को ही झेलना पड़ता था। इनसे टक्कर लेने के लिए गुरु अंगददेव ने गाँव-गाँव में अखाड़े खोलकर युवकों की टोलियाँ तैयार कीं। उन्होंने गुरुमुखी लिपि का निर्माण कर पंजाबी भाषा को समृद्ध किया।
बाबा अमरदास को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी बनाया, जिन्होंने उनकी वाणी को भी श्री गुरु ग्रन्थ साहब के लिए लिपिबद्ध किया। सेवा और समर्पण के अनुपम साधक गुरु अंगददेव 29 मार्च, 1552 को इस दुनिया से प्रयाण कर गये।