शिक्षाप्रेमी जयगोपाल गाडोदिया

अभाव और कठिनाइयों में अपने जीवन का प्रारम्भ करने वाले जयगोपाल गाडोदिया का जन्म 31 मार्च, 1931 को सुजानगढ़ (जिला चुरू, राजस्थान) में हुआ था। गरीबी के कारण उन्हें विद्यालय में पढ़ने का अवसर नहीं मिला। इतना ही नहीं, तो प्रायः उन्हें दोनों समय पेट भर भोजन भी नहीं मिलता था। 

इन अभावों से उनके मन में समाज के निर्धन वर्ग के प्रति संवेदना का जन्म हुआ। स्वामी विवेकानंद के विचारों का उनके मन पर बहुत प्रभाव था। आगे चलकर जब अपने परिश्रम और प्रभु की कृपा से उन्होंने धन कमाया, तो उसे इन अभावग्रस्त बच्चों की शिक्षा में ही लगा दिया।

दस साल की अवस्था में वे पैसा कमाने के लिए कोलकाता आ गये। यहां काम करते हुए उन्होंने कुछ लिखना व पढ़ना सीखा। काम के लिए देश भर में घूमने से उन्हें निर्धन और निर्बल वर्ग की जमीनी सच्चाइयों का पता लगा। अतः उन्होंने ‘जयगोपाल गाडोदिया फाउंडेशन’ की स्थापना की तथा उसके माध्यम से चेन्नई में रहकर अनेक सामाजिक गतिविधियों का संचालन करने लगे।

उनका विचार था कि बच्चा चाहे निर्धन हो या धनवान, उसमें कुछ प्रतिभा अवश्य होती है, जिसे उचित प्रशिक्षण से संवारा और बढ़ाया जा सकता है। अतः उन्होंने कॉमर्स, अर्थशास्त्र, गणित, खेल, युवा वैज्ञानिक, संस्कृति, संगीत, खगोल विज्ञान, फोटो पत्रकारिता, शतरंज जैसे विषयों के लिए अकादमियों की स्थापना की। इनमें बच्चों को उनकी रुचि के अनुसार प्रशिक्षण दिया जाता था।

1973 में उन्होंने ‘जयगोपाल गाडोदिया विवेकानंद विद्यालय न्यास’ की स्थापना कर चेन्नई, बंगलौर तथा मैसूर के आसपास 23 विद्यालय प्रारम्भ किये। इनमें 60,000 छात्रों को निःशुल्क शिक्षा व पुस्तकें दी जाती हैं। प्रतिवर्ष वे 18 लाख रु. की छात्रवृत्ति भी वितरित करते थे। अतः उनके सम्पर्क में आये किसी छात्र को धनाभाव के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की नौबत नहीं आती थी। लड़कियों की शिक्षा पर भी उनका विशेष ध्यान रहता था।

श्री गाडोदिया का प्रत्येक विद्यालय आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण रहता है। उन्होंने संस्थान के प्रत्येक छात्र के लिए एक निजी कम्प्यूटर की व्यवस्था की। हर विद्यालय में एक ‘बुक बैंक’ रहता है, जिससे किसी छात्र को पुस्तक का अभाव न हो। इस बैंक से 35,000 छात्र लाभ उठाते हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सफल योजनाओं को देखकर तमिलनाडु सरकार ने अपने कुछ विद्यालयों की दशा सुधारने के लिए उन्हें आमन्त्रित किया। श्री गाडोदिया ने इसे सहर्ष स्वीकार कर 11 विद्यालयों का कायाकल्प किया। विशेष बात यह भी थी कि ये सब विद्यालय बालिकाओं के थे।

श्री गाडोदिया ने बालिका शिक्षा के साथ ही विधवा व बेसहारा महिलाओं के उत्थान के भी अनेक प्रकल्प प्रारम्भ किये। उनके कुछ केन्द्रों पर गूंगे, बहरे तथा शारीरिक रूप से अशक्त युवाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता था। सैनिकों के प्रति आदरभाव के कारण उन्होंने करगिल युद्ध के समय प्रधानमंत्री द्वारा गठित सहायता कोष में भरपूर योगदान दिया।

उनके उल्लेखनीय काम के लिए उन्हें अनेक मान-सम्मानों से अलंकृत किया गया। वे शिक्षा के दान को सबसे बड़ा दान मानते थे। अतः उन्होंने अपने परिश्रम और योग्यता से अर्जित धन को इसी क्षेत्र में खर्च किया। इसके साथ ही वे अपने धनी मित्रों को भी इसके लिए प्रेरित करते रहते थे।

श्री गाडोदिया निःसंतान थे। 1986 में अपनी पत्नी श्रीमती सीतादेवी के देहांत के बाद उन्होंने सम्पूर्ण सम्पत्ति अपने न्यास को सौंप दी, जिससे उनके देहांत के बाद भी इन योजनाओं को धन की कमी न हो। ऐसे समाजसेवी व शिक्षाप्रेमी का दो अपै्रल, 2010 को चेन्नई में ही निधन हुआ।

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