चुनाव परिणामों के निहितार्थ

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम पर केवल उन्हीं लोगों को हैरत हो सकती है, जिन्होंने जमीनी स्थिति का सही आंकलन नहीं किया होगा। राजनीतिक पार्टियों और उनके समर्थकों को भले हैरत में डालने वाले हो लेकिन निष्पक्ष पर्यवेक्षकों के लिए नहीं। उत्तर प्रदेश की यात्रा करने वाले निष्पक्षता से बात करें तो स्वीकार करेंगे कि प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार और केंद्र की मोदी सरकार के विरुद्ध सामान्य जन में किसी तरह का व्यापक आक्रोश कहीं दिखाई नहीं देता था।

विश्लेषण से सच समझना कठिन

पांचों राज्यों के चुनाव परिणामों का इन सारे कारकों के आलोक में विश्लेषण करें तो सच समझना कठिन नहीं होगा। इसमें दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के ज्यादातर विधायकों के विरुद्ध मतदाताओं के साथ-साथ पार्टी के अंदर भी असंतोष और विरोध था। इससे भाजपा ज्यादातर जगह जूझ रही थी। दूसरी ओर ऐसे मतदाताओं की संख्या बहुत बड़ी थी जो कहते थे कि विधायक हमारा भले नकारा है लेकिन हम योगी और मोदी के नाम पर वोट देंगे। इस तरह स्थानीय विधायक के विरुद्ध सत्ता विरोधी रुझान के समानांतर प्रदेश और केंद्र सरकार के सत्ता के पक्ष में रुझान की एक बड़ी रेखा खड़ी थी।

दूसरे, मुख्य विपक्षी यानी सपा ने अपनी चुनाव रणनीति को मूलतः छोटे दलों से गठबंधन व सामाजिक समीकरणों तक सीमित रखा। पूर्व शासनकाल में यादव और मुसलमानों के विरुद्ध कायम असंतोष का ध्यान रखते हुए अखिलेश यादव ने इन्हें कम से कम टिकट दिया। यहां तक कि कई उम्मीदवार घोषित होने के बाद वापस ले लिए गए। इसकी जगह उन्होंने स्थानीय सामाजिक समीकरण का ध्यान रखते हुए ऐसी जाति को टिकट दिया जो मुसलमान एवं यादव के मूल आधार मत में वृद्धि कर सके। इसका असर भी हुआ। इसी से सपा के मतों और सीटों में इतनी भारी वृद्धि हुई है।

उत्तर प्रदेश में क्या हुआ?

महंगाई, बेरोजगारी, किसान विरोधी आधी बातें लगभग सभी चुनावों में किसी न किसी रूप में उछलती हैं और इनका जितना औसत असर होता है वही उत्तर प्रदेश में हो रहा था। दूसरी ओर मतदाताओं के बड़े समूह में यह भाव उत्पन्न हो रहा था कि सपा सत्ता में आई तो फिर से मुसलमानों और यादवों का आधिपत्य होगा एवं उनके लिए परेशानियां खड़ी होंगी। लोगों के जेहन में पूर्व शासन के अंदर अपराध, गुंडागर्दी, छीना झपटी, दादागिरी आदि की डरावनी स्मृतियां कायम थी। पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों के एक समूह ने रालोद से गठबंधन के कारण अवश्य मत दिया लेकिन साल 2013 दंगे के मनोवैज्ञानिक प्रभावों से निकलना कठिन था और सुरक्षा की दृष्टि से भाजपा उनकी गारंटी थी, जो भाजपा उम्मीदवार हारे वहां दूसरे समीकरणों ने भी काम किया है।

भाजपा के लिए हिंदुत्व और उस पर आधारित राष्ट्रीयता का मुद्दा एक प्रबल भाव होता है जिसके तहत अनेक विरोधी कारक कमजोर पड़ जाते हैं। हालांकि भाजपा नेताओं ने भले अपने भाषणों में हिंदुत्व के मुद्दे उठाए, व्यापक स्तर पर जनता के बीच इसके तहत किए गए कार्य जैसे काशी विश्वनाथ धाम का भव्य पुनर्निर्माण, अयोध्या का निर्माण, प्रयागराज में परिवर्तन, विंध्याचल पुनर्निर्माण की कल्पना, जनसंख्या नियंत्रण, धर्म परिवर्तन विरोधी कानून, गोहत्या निषेध आदि को प्रबल प्रचार सामग्री के रूप में जनता के दिलों में उतारने की लक्षित कोशिश नहीं थी।

योगी सरकार के विकास कार्य, अपराध के विरुद्ध उनकी प्रखरता तथा समाज के गरीब व वंचित तबकों तक पहुंचाई गई कल्याण योजनाओं के कारण भाजपा के पक्ष में मौन गोलबंदी थी। विपक्ष इन सबको भेदने में सफल नहीं हो सकता था। बसपा की आक्रामक उपस्थिति न होने के कारण उसके मतों का एक हिस्सा सपा की ओर अवश्य गया लेकिन यह भी उतना वोट नहीं जोड़ सका जिससे भाजपा के मजबूत आधार कमजोर हो सके।

केंद्र सरकार के कदम

केंद्र सरकार की कोरोना काल में मुफ्त राशन, आवास, बिजली आदि की योजनाओं ने हर चुनाव में भूमिका निभाई है। चूंकि पंजाब में भाजपा का अपना व्यापक जनाधार नहीं है इसलिए इस चुनाव में उसके अनुकूल परिणाम आने की संभावना थी नहीं। कांग्रेस से अलग होने के बाद कैप्टन अमरिंदर से कांग्रेस के विरुद्ध राज्यव्यापी तीखे अभियान की अपेक्षा थी लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ किया नहीं। अकाली दल भाजपा से अलग होने के बाद कई मायनों में कमजोर हो गई क्योंकि उसके पास केंद्र के किए गए कार्य भी दिखाने के लिए अपने नहीं रह गए।

बसपा के गठबंधन से दलित वोटों की आस कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों ने कमजोर कर दी। सच कहा जाए तो पंजाब जैसे संवेदनशील प्रदेश में सशक्त विश्वसनीय विकल्प का अभाव तथा राज्य स्तर पर कद्दावर नेताओं की अनुपस्थिति ने राजनीति को ऐसी विकल्पहीन अवस्था में ला दिया जहां उभरती हुई आम आदमी पार्टी ही लोगों के सामने विकल्प के रूप में था। चुनाव में लोगों की अरुचि का कारण वहां मतदान प्रतिशत में आई भारी गिरावट में देखा जा सकता है। प्रवासी पंजाबियों की मतदान से दूरी इसी का प्रमाण है। इसमें परिणाम ऐसा ही आ सकता था। डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों का थोड़ा असर मालवा में जरूर हुआ लेकिन जब भाजपा, लोक कांग्रेस और ढींढसा का अकाली दल शक्तिशाली विकल्प थी ही नहीं तो इन्हें उसका लाभ मिलना संभव नहीं था।

कांग्रेस में नहीं था आकर्षण

उत्तराखंड में भाजपा द्वारा नेतृत्व परिवर्तन के कारण समर्थकों में थोड़ी निराशा थी लेकिन कांग्रेस के प्रति उत्साह और आकर्षण नहीं था। दोनों पार्टियों में अंदरूनी कलह था, लेकिन कांग्रेस केन्द्र से राज्य तक नेतृत्वविहीन स्थिति में थी। भाजपा के पक्ष में केंद्र सरकार के कार्य तथा नरेंद्र मोदी के रूप में एक सक्षम नेतृत्व उपलब्ध था। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी युवा नेता होने के साथ-साथ साफ छवि वाले हैं। लंबे समय तक सत्ता में न रहने के कारण उनके विरुद्ध किसी तरह का असंतोष और आक्रोश संभव नहीं था। हालांकि हरीश रावत एक सुलझे हुए और परिपक्व नेता हैं लेकिन वह पूर्व शासन में अपनी पार्टी के अंदर के विद्रोह तक को नियंत्रित नहीं कर सके थे। उत्तराखंड में कभी दूसरी बार सरकार लगातार सत्ता में नहीं आई। उसने इतना बड़ा बहुमत मिलना असाधारण विजय है।

गोवा में पिछली बार भी भाजपा ने सरकार अवश्य बनाई लेकिन उसे केवल 14 स्थानों पर विजय मिली थी। तृणमूल कांग्रेस में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री तक चले गए थे, आम आदमी पार्टी भी सक्रिय थी लेकिन अंततः जनता ने वहां की दो मुख्य पार्टियों पर ही विश्वास जताया है। पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय मनोहर पर्रिकर के बेटे को टिकट से वंचित करने के कारण भाजपा के एक वर्ग के अंदर नाराजगी थी लेकिन इससे बहुत ज्यादा मत प्रभावित हुआ हो ऐसा नहीं लगता। उत्पल स्वयं चुनाव हार गए। इसका अर्थ क्या है? तो नई पार्टियों को थोड़ा बहुत समर्थन मिलेगा लेकिन गोवा के लोग नहीं मानते कि ये पार्टियां उनके राज्य की सत्ता उनके अनुकूल चला पाएगी। मणिपुर का चुनाव परिणाम स्पष्ट करता है कि भाजपा केवल वहां की नहीं पूर्वोत्तर की एक प्रमुख शक्ति बन गई है।

तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल के बाद सबसे ज्यादा फोकस पूर्वोत्तर में किया किंतु मणिपुर का परिणाम बताता है कि उसके लिए चुनौतियां अभी बहुत बड़ी है।

कुल मिलाकर इन चुनाव परिणामों का निष्कर्ष यही है कि अपने प्रभाव वाले राज्यों में भाजपा अभी भी सक्षम और प्रभावी शक्ति है। विपक्ष में अभी ऐसे नेता एवं पार्टियों का अभाव है जो भाजपा के प्रभाव वाले राज्यों में इसे व्यापक क्षति वाली चुनौती दे सके। वस्तुतः केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व संभालने के बाद भाजपा और पूरे संगठन परिवार ने अपने मुद्दों पर जिस तरह काम किया है और विकास एवं आम आदमी के कल्याण से जुड़े कार्यक्रमों को जमीन तक पहुंचाया है उससे राजनीति का मनोविज्ञान बदला हुआ है। अगर भाजपा नेतृत्व ने भविष्य में बड़ी गलतियां नहीं की तो जब तक उसकी तुलना में इन सभी स्तरों पर बेहतर प्रदर्शन का विश्वास दिलाने वाला नेतृत्व और दल खड़ा नहीं होगा इन स्थानों में उसे कमजोर करना संभव नहीं होगा।

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