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हरल्ला चिन्तन

हरल्ला चिन्तन

by मुकेश जोशी
in अप्रैल -२०२२, सामाजिक, साहित्य
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जब-जब चुनाव होते हैं, तब एक पार्टी जीतती है। दूसरी तीसरी चौथी पांचवी हारती है। जो हारते हैं, वे मन ही मन जानते हैं कि हार कितनी बुरी होती है पर उसी मन को समझाते हैं कि चुनाव में हार जीत तो चलती ही रहती है क्योंकि विजेता तो एक ही होता है न। जो जीता वही सिकन्दर टाइप से। जीत के हजार बाप हो जाते हैं और हार बिचारी बेबाप सी, अनाथ लावारिस-सी किसी अंधेरे कोने में बिसूरते रहती है।

देश का सबसे बड़ा प्रदेश जो कभी मुलायम के ‘पुत्तर प्रदेस’ के नाम से जाना जाता था, वहां भी लक्ष्यकुंडी चुनाव यज्ञ सम्पन्न हुआ। पुत्तर जी ने इससे पहले एक प्रयोग किया और तत्कालीन युवा पप्पूजी का ‘हाथ’ थामा। तब पप्पूजी के बोझ से साइकिल पंचर हो गई। अगले प्रयोग में बुआजी का ‘हाथी’ थामा… पर हाथी और भारी पड़ गया। इस बार पुत्तर जी एकला चालो रे की नीति पर लाल टोपी धारण कर बाबाजी को निबटाने उतरे। हजारों करोड़ खर्च करके मीडिया-सोशल मीडिया को पटाया, फुसलाया। लेकिन ये लोग हजारों करोड़ खाकर भी रामभक्तों, आमभक्तों को पटा या फुसला नहीं सके। नतीजा बाबाजी वही बने रह गए जो वे थे, पर बाबाजी ने कइयों को नागा बाबा जी जरूर बनवा दिया कम से कम अगले 5 साल के लिए तक तो।

अब सारे हारे ‘हारे को हरिनाम’ जपते हुए ‘हरल्ला चिन्तन’ कर रहे हैं। पुत्तर जी की नमाजवादी पार्टी तो अभी अपनी सरकार चली जाने के सदमे से बाहर ही नहीं आ सकी है क्योंकि उनकी भीड़ भरी रैलियों में उनका व्यवहार एकदम राजाओं की ही तरह होता था। अर्रे तुर्रे हुर्रे से ही वे सबसे पेश आ रहे थे जैसे वे मुख्यमंत्री ही बन गए हों। तो अभी उनका चिन्तन शुरू ही नहीं हुआ है कि हार का ठीकरा किस पर और कहां फोड़ें? अलबत्ता जिस ईवीएम के सहारे दीदी जीतीं यूपी में हार के लिए उन्होंने उसी ईवीएम को जिम्मेदार ठहरा दिया।

सबसे पहला हरल्ला चिंतन देश की सबसे पुरानी पार्टी ने किया जो एक तरह से ओटले-नुक्कड़-चौराहे पर खड़े, बैठे निखट्टूओं के ‘निठल्ला चिन्तन’ के लेवल से ऊपर नहीं जा पाया। पिछले 8 साल में 45 चुनाव हारने, हारते रहने, हारते जाने और इस बार तो 399 में से 387 की जमानत जब्ती के बावजूद ‘लड़ सकने वाली लड़की’ की अपनी पार्टी की इतने जर्जर प्रदर्शन पर भी पार्टी के कर्णधारों के चेहरे पर शिकन तक न होना और अपने निखट्टू नाकारा नेताओं की लम्बी चौड़ी फौज के जयकारों में ही गुम रहना जिसमें खुद के द्वारा खुद को इस्तीफे की पेशकश और खुद ही इस्तीफे को खारिज कर देने की खुद ही को भारत रत्न दे डालने जैसी पुरानी नौटंकी शामिल है। कल तक कोई 23 की मण्डली गुलाम नाम के आजाद नेता के नेतृत्व में शाही परिवार के सामने सिर उठाने की जुर्रत कर रहे थे, पर एक तोतले ने ‘राग दरबारी’ गाकर ऐसा समां बांधा कि सारे हजूरी संगत करते हुए कोरस गाने लगे, ठेके देने लगे, ताल से ताल मिलाने लगे। 6 घण्टे के हरल्ला चिन्तन में चरखा पार्टी के विचारकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि उनकी पार्टी की इस शर्मनाक (हालांकि वे इसे शर्मनाक नहीं मानते, वे तो इसे हार मानने को भी तैयार नहीं) हार के लिए देश के प्रधानमंत्री और उनकी नीतियां जिम्मेदार हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे पंजाब में अकाली दल के पराजय मंथन में हार की वजह ‘आप की लहर’ को मान लिया गया।

उस हर बाजी हारने वाली पार्टी के आलाकमान पर कोई सवाल नहीं उठते। इस देश में मीडिया ही नहीं कोई सड़ा गला भी प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा कर उनसे सवाल पूछने का साहस कर लेता है लेकिन पवित्र परिवार की मां, बेटे, बेटी, दामाद से आज तक एक भी सवाल नहीं पूछा गया। जो इनसे टकराएगा चूर-चूर हो जाएगा। जनता प्रधानमंत्री न बनाए तो हम अपनी ‘पॉकेट पार्टी के प्रधान’ तो ठसक से बने रह ही सकते हैं। किसी शायर ने खूब कहा है-

मीलों तक चलता रहा, यूं ही मोहब्बत का कारवां,

ना लैला ऊंट से उतरी, ना मजनुओं ने पीछा छोड़ा!

 

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