सुन्दर पर्वतमालाओं से घिरे मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 45 कि.मी दक्षिण में लोकताक झील के किनारे मोइरांग नामक छोटा सा नगर बसा है। भारतीय स्वाधीनता समर में इसका विशेष महत्व है। यहीं पर 14 अप्रैल, 1944 को आजाद हिन्द फौज के संस्थापक नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने सर्वप्रथम तिरंगा झण्डा फहराया था। उन्होंने मोइरांग पर कब्जा कर यहाँ के डाक बंगले को आजाद हिन्द फौज का मुख्यालय बना लिया था।
इस घटना की स्मृति में मोइरांग में ‘आई.एन.ए. युद्ध संग्रहालय’ बनाया गया है। इसमें प्रवेश करते ही बायीं ओर सैन्य वेश में नेता जी भव्य मूर्ति स्थापित है। इसे देखकर लगता है कि वे स्वाधीनता संघर्ष के मुख्य सेनापति थे। यह बात दूसरी है कि गांधी जी व प्रधानमन्त्री नेहरु से वैचारिक मतभेद होने के कारण भारतीय इतिहास में उन्हें समुचित स्थान नहीं मिल सका।
संग्रहालय में दायीं ओर संगमरमर पत्थर से निर्मित एक चबूतरा है। उस पर अंग्रेजी में लिखा है – वह स्थल, जहाँ सुभाषचन्द्र बोस ने सर्वप्रथम तिरंगा फहराया था। उससे कुछ दूरी पर संगमरमर से ही बना एक स्मृति स्तम्भ और है, जिस पर आजाद हिन्द फौज के तीन आदर्श – अवसर, विश्वास और बलिदान उत्कीर्ण हैं। यह उस स्तम्भ की प्रतिकृति है, जिसे नेताजी ने 8 जुलाई, 1945 को आजाद हिन्द सरकार की स्मृति में सिंगापुर में बनाया था।
सिंगापुर जब फिर से अंग्रेजों के कब्जे में आया, तो उन्होंने उस स्मारक को तोड़ दिया; पर नेताजी के वीर सैनिकों के मन में बसे स्मारक को वे नहीं तोड़ सके। अतः सैनिकों ने वैसा ही स्मारक मोइरांग में फिर से बना लिया। उस पर लिखा है – आजाद हिन्द फौज के बलिदानियों की स्मृति में इस स्मारक की नींव नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने 8 जुलाई, 1945 को रखी।
इसका उद्घाटन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 23 सितम्बर, 1969 को किया था। बंगाल शासन द्वारा प्रदत्त नेताजी की प्रतिमा का विधिवत अनावरण 21 अक्तूबर, 1970 को किया गया था।
संग्रहालय की अलमारियों में नेताजी द्वारा मोइरांग के लिए लड़े गये निर्णायक युद्ध के अनेक दुर्लभ चित्र लगाये गये हैं। समय-समय पर उनके द्वारा कहे गये प्रेरक वाक्य तथा आजादी का घोषणा पत्र भी वहाँ सुसज्जित है। यहाँ आजाद हिन्द फौज के अन्तर्गत काम करने वाली ‘रानी झाँसी रेजिमेण्ट’ के भी अनेक चित्र हैं।
कुछ चित्रों में नेताजी सलामी ले रहे हैं, तो कहीं वे टैंक ब्रिगेड का निरीक्षण कर रहे हैं। आग उगलते युद्धक्षेत्र के अग्रिम मोर्चे पर उन्हें सैनिकों का उत्साह बढ़ाते देखकर रक्त का संचार तेज हो जाता है। एक चित्र में वे स्वयं कार्बाइन हाथ में लिये युद्ध की मुद्रा में खड़े हैं।
इन चित्रों और युद्ध के नक्शों को देखकर स्पष्ट होता है कि स्वाधीनता संग्राम में जहाँ तथाकथित बड़े कांग्रेसी नेता सुविधा सम्पन्न बंगलों में नजरबन्दी का सुख भोग रहे थे, वहाँ नेताजी जंगलों और पहाड़ों में ठोकरें खाकर लोगों को संगठित कर रहे थे। वे जनता को खून के बदले आजादी देने का आश्वासन भी दे रहे थे।
मोइरांग से 30 कि.मी. की दूरी पर ‘खूनी पर्वत’ है। यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान और ब्रिटिश सेनाओं में घमासान हुआ था, जिसमें बड़ी संख्या में दोनों ओर के सैनिक मारे गये थे। मोइरांग हमारी स्वाधीनता के सशस्त्र संग्राम का एक तीर्थस्थल है, जिसकी ओर न जाने क्यों शासन का ध्यान कम ही है।
– विजय कुमार