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समाजसेवी महर्षि धोण्डो केशव कर्वे

समाजसेवी महर्षि धोण्डो केशव कर्वे

by हिंदी विवेक
in विशेष, व्यक्तित्व, सामाजिक
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महर्षि कर्वे का जन्म 18 अप्रैल, 1858 को महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में हुआ था। उनका पूरा नाम धोण्डो केशव पन्त था और वे अण्णा साहब कर्वे के नाम से भी जाने जाते थे। बचपन से ही उनकी पढ़ाई में बहुत रुचि थी। 

कक्षा छह की परीक्षा देने के लिए वे अपने गाँव शेरवली-मुरूड से 100 मील दूर सतारा गये; पर दुर्भाग्य से वे अनुत्तीर्ण हो गये। इस पर भी वे निराश नहीं हुए। उन्होंने अगली बार कोल्हापुर से यह परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुए।

इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे मुम्बई आ गये। यहाँ उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। खर्च निकालने के लिए उन्हें ट्यूशन पढ़ाने पड़ते थे। उन्होंने 23 वर्ष की अवस्था में मैट्रिक तथा फिर एलफिन्स्टन कालिज से बी.ए. किया।

उनमें छात्र जीवन से ही सेवा एवं परिश्रम की भावना कूट-कूटकर भरी थी। मुम्बई में पढ़ाई पूरी करने के बाद भी वे ट्यूशन एवं छोटे मोटे काम से जीवनयापन करते रहे। उनके पास जैसे ही कुछ पैसा एकत्र होता, वे उसे निर्धन छात्रों एवं अन्य लोगों को दान कर देते थे। इसी बीच उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। इसके बाद उन्होंने अपना सारा जीवन समाजसेवा एवं विशेषतः नारी कल्याण में लगाने का निश्चय किया।

प्रो. गोखले ने उन्हें पुणे के फ़र्गुसन कालिज में गणित पढ़ाने के लिए बुलाया। अपने सेवाभाव एवं पढ़ाने की शैली के कारण वे इस काॅलिज के छात्रों में बहुत लोकप्रिय हुए। अब लोग उन पर दूसरे विवाह के लिए दबाव डालने लगे। प्रतिष्ठित नौकरी के कारण अनेक युवतियों के प्रस्ताव भी उन्हें मिले; पर वे समाज में विधवाओं की दशा सुधारना चाहते थे। अतः उन्होंने निश्चय किया कि वे यदि पुनर्विवाह करेंगे, तो किसी विधवा से ही करेंगे। इस प्रकार समाज के प्रबुद्ध वर्ग में वे एक आदर्श उपस्थित करना चाहते थे।

श्री कर्वे ने अपने मित्र नरहरि पन्त की विधवा बहिन आनन्दीबाई से पुनर्विवाह किया। इससे न केवल पुणे अपितु पूरे महाराष्ट्र में हँगामा खड़ा हो गया। उनके ग्राम शेरवली-मुरूड के लोगों ने तो उनका बहिष्कार ही कर दिया; पर वे बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए; क्योंकि समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोगों का समर्थन उन्हें प्राप्त था। अब वे गाँव और नगरों में भ्रमण कर महिलाओं एवं विधवाओं की स्थिति सुधारने के प्रयास में लग गये।

इसी प्रयास की एक कड़ी के रूप में उन्होंने पुणे के पास हिंगणे में अनाथ बालिकाओं के लिए एक आश्रम बनाया। यद्यपि उनके कार्यों की आलोचना करने एवं उसमें बाधा डालने वालों की भी कमी नहीं थी; पर वे अविचलित रहकर आश्रम के विकास एवं व्यवस्था के लिए निरन्तर भ्रमण करते थे। यहाँ तक कि वे विदेश भी गये और वहाँ से भी धन जुटाकर लाये। उनकी पत्नी भी हर समय उनकी सहायता में तत्पर रहती थी। आगे चलकर उस आश्रम ने एक विश्वविद्यालय का रूप ले लिया।

उनके सेवा कार्यों से प्रभावित होकर लोग उन्हें महर्षि कर्वे के नाम से सम्बोधित करने लगे। अब उनकी बात लोग ध्यान से सुनने लगे। अनेक संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियों से विभूषित किया। श्री कर्वे ने हरिजन महिलाओं की दशा सुधारने के लिए भी अनेक प्रयास किये। 1958 में उन्हें ‘भारतरत्न’ से सम्मानित किया गया। 9 नवम्बर, 1962 को 105 वर्ष की आयु में इस समाजसेवी का देहान्त हुआ।

संकलन – विजय कुमार 

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Tags: bharatratnahindi vivekmaharshi dhondo keshav karveorphanagesocial reformerwoman education

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