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तपस्वी शिक्षाविद महात्मा हंसराज

तपस्वी शिक्षाविद महात्मा हंसराज

by हिंदी विवेक
in विशेष, व्यक्तित्व, शिक्षा
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भारत के शैक्षिक जगत में डी.ए.वी. विद्यालयों का बहुत बड़ा योगदान है। विद्यालयों की इस शृंखला के संस्थापक हंसराज जी का जन्म महान संगीतकार बैजू बावरा के जन्म से धन्य हुए ग्राम बैजवाड़ा (जिला होशियारपुर, पंजाब) में 19 अप्रैल, 1864 को हुआ था। बचपन से ही शिक्षा के प्रति इनके मन में बहुत अनुराग था; पर विद्यालय न होने के कारण हजारों बच्चे अनपढ़ रह जाते थे। इससे ये बहुत दुःखी रहते थे।

महर्षि दयानन्द सरस्वती के देहावसान के बाद लाहौर के आर्यभक्त उनकी स्मृति में कुछ काम करना चाहते थे, तो अंग्रेजी के साथ-साथ अपनी प्राचीन वैदिक संस्कृति की शिक्षा देने वाले विद्यालय खोलने की चर्चा चली। 22 वर्षीय हंसराज जी ने एक साहसिक निर्णय लेकर इस कार्य हेतु अपनी सेवाएँ निःशुल्क समर्पित कर दीं। इस व्रत को उन्होंने आजीवन निभाया।

हंसराज जी के समर्पण को देखकर उनके बड़े भाई मुलकराज जी ने उन्हें 40 रु0 प्रतिमाह देने का वचन दिया। अगले 25 साल हंसराज जी डी.ए.वी. स्कूल एवं काॅलेज, लाहौर के अवैतनिक प्राचार्य रहे।

उन्होंने जीवन भर कोई पैसा नहीं कमाया। कोई भूमि उन्होंने अपने लिए नहीं खरीदी, तो मकान बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। पैतृक सम्पत्ति के रूप में जो मकान मिला था, धन के अभाव में उसकी वे कभी मरम्मत भी नहीं करा सके।

उनके इस समर्पण को देखकर यदि कोई व्यक्ति उन्हें कुछ नकद राशि या वस्तु भेंट करता, तो वे उसे विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर देते थे। संस्था के कार्य से यदि वे कहीं बाहर जाते, तो वहाँ केवल भोजन करते थे। शेष व्यय वे अपनी जेब से करते थे। इस प्रकार मात्र 40 रु0 में उन्होंने अपनी माता, पत्नी, दो पुत्र और तीन पुत्रियों के परिवार का खर्च चलाया। आगे चलकर उनके पुत्र बलराज ने उन्हें सहायता देने का क्रम जारी रखा।

इतने कठिन परिश्रम और साधारण भोजन से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। एक बार तो उन्हें क्षय रोग हो गया। लोगों ने उन्हें अंग्रेजी दवाएँ लेने की सलाह दी; पर उन्होंने आयुर्वेदिक दवाएँ ही लीं तथा उसी से वे ठीक हुए।

उन्होंने इस दौरान तीन माह तक केवल गुड़, जौ का सत्तू और पानी का ही सेवन किया। धनाभाव के कारण उनकी आँखों की रोशनी बहुत कम हो गयी। एक आँख तो फिर ठीक ही नहीं हुई; पर वे विद्यालयों के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। उनकी यह लगन देखकर लोगों ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी।

समाज सेवा में अपना जीवन समर्पित करने के बाद भी वे बहुत विनम्र थे। यदि उनसे मिलने कोई धर्मोपदेशक आता, तो वे खड़े होकर उसका स्वागत करते थे। वे सदा राजनीति से दूर रहे। उन्हें बस वेद-प्रचार की ही लगन थी।

उन्होंने लाहौर में डी.ए.वी. स्कूल, डी.ए.वी. काॅलेज, दयानन्द ब्रह्म विद्यालय, आयुर्वेदिक काॅलेज, महिला महाविद्यालय, औद्योगिक स्कूल, आर्य समाज अनारकली एवं बच्छोवाली, आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा एवं हरिद्वार में वैदिक मोहन आश्रम की स्थापना की।

देश, धर्म और आर्य समाज की सेवा करते हुए 15 नवम्बर, 1938 को महात्मा हंसराज जी ने अन्तिम साँस ली। उनके पढ़ाये छात्रों तथा अन्य प्रेमीजनों ने उनकी स्मृति में लाहौर, दिल्ली, अमृतसर, भटिंडा, मुम्बई, जालन्धर आदि में अनेक भवन एवं संस्थाएँ बनायीं, जो आज भी उस अखंड कर्मयोगी का स्मरण दिला रही हैं।

संकलन – विजय कुमार 

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