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भारतीय फिल्मों के पितामह दादासाहब फालके

भारतीय फिल्मों के पितामह दादासाहब फालके

by हिंदी विवेक
in फिल्म, विशेष, व्यक्तित्व
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नासिक के पास प्रसिद्ध तीर्थस्थल त्रयम्बकेश्वर में 30 अप्रैल, 1870 को धुंडिराज गोविन्द फालके का जन्म हुआ। उनके पिता श्री गोविन्द फालके संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे चाहते थे कि उनका पुत्र भी उनकी तरह विद्वान् पुरोहित बने। इसलिए उन्होंने बचपन से ही उसे गीता, रामायण, शास्त्र, पुराण, वेद, उपनिषद आदि का अध्ययन कराया; पर धुंडिराज का मन तो संस्कृत से अधिक कला, फोटोग्राफी, जादू आदि में लगता था।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे मुम्बई के विल्सन कालेज में संस्कृत कालेज में प्राध्यापक बन गये। वहाँ वे छात्रों को पढ़ाते तो थे ही, पर साथ ही अपना शौक पूरा करने के लिए उन्होंने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में भी प्रवेश ले लिया।

इससे उनके अन्दर के कलाकार को पूरी तरह विकसित होने का अवसर मिला। यहाँ उन्होंने नाटक, चित्रकला, फोटोग्राफी तथा कलाक्षेत्र के अन्य तकनीकी विषयों की पूरी जानकारी लेकर इनमें महारत प्राप्त की। बाद में वे बड़ौदा के कलाभवन से भी जुड़ गये।

एक दिन मुम्बई में उन्होंने ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नामक फिल्म देखी। उसमें ईसा मसीह के जीवन को दर्शाया गया था। इसके द्वारा ईसाइयत का प्रचार होता देख उन्हें बहुत पीड़ा हुई। उन्होंने संकल्प लिया कि वे भी हिन्दू धर्म से सम्बन्धित कथाओं, अवतारों आदि के बारे में फिल्म बनायेंगे। अतः अब वे फिल्म निर्माण की हर विधा के गहन अध्ययन में जुट गये।

उनके सम्मुख आर्थिक समस्या भी बहुत प्रबल थी। अपने एक मित्र से कुछ धन उधार लेकर वे इंग्लैण्ड चले गये तथा वहाँ जाकर इस विधा के हर पहलू को निकट से देखा। इंग्लैण्ड से लौटते समय वे अपने साथ एक कैमरा और पर्याप्त मात्रा में फिल्म की रील भी लेकर आये। भारत आकर वे फिल्म निर्माण में जुट गये।

उन दिनों फिल्म बनाना आज की तरह आसान नहीं था। कोई इसमें पैसा लगाने का तैयार नहीं था। नारी पात्रों के लिए कोई महिला कलाकार नहीं मिलती थी; पर दादासाहब ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने पुरुषों से ही महिलाओं का अभिनय भी कराया। इस प्रकार 1913 में भारत की पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ बनी।

इस फिल्म के बनते ही चारों ओर धूम मच गयी। हर आयु और वर्ग की जनता यह फिल्म देखने के लिए थियेटरों पर टूट पड़ी। इसके बाद उन्होंने मोहिनी भस्मासुर और सत्यवान-सावित्री नामक फिल्में बनायीं। हर फिल्म ने सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये।

दादासाहब भारत के पौराणिक कथानकों को लेकर ही फिल्म बनाते थे। इस प्रकार उन्होंने ईसाइयत के प्रभाव में आ रही नयी पीढ़ी के मन में धर्म के प्रति प्रेम एवं आदर की भावना जाग्रत की। उन्होंने छोटी-बड़ी कुल मिलाकर 103 फिल्में बनायीं। इस सफलता को देखकर कई उद्योगपति पैसा लगाने को तैयार हो गये। अतः उन्होंने ‘हिन्दुस्तान फिल्म कम्पनी’ की स्थापना की।

जब बोलती फिल्मों का दौर आया, तो लोगों का ध्यान मूक फिल्मों से हट गया। यह देखकर उन्होंने एक बोलती फिल्म भी बनायी; पर वह चल न सकी। तब तक उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया था। 16 फरवरी, 1944 को उनका देहान्त हो गया।

दादासाहब फालके ने भारतीय फिल्म जगत की नींव रखी। इसलिए उन्हें भारतीय फिल्म जगत का पितामह माना जाता है। फिल्म क्षेत्र का सबसे बड़ा पुरस्कार उनके नाम पर ही दिया जाता है।

 – विजय कुमार 

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Tags: dadasaheb falkefather of indian cinemafilmshindi vivekindian film industrymoviestalkies

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