‘भारतीय मजदूर संघ’ के प्राणाधार श्री रामनरेश सिंह का जन्म 1925 ई. की दीपावली के शुभ दिन ग्राम बघई (मिर्जापुर, उ.प्र.) में एक सामान्य किसान श्री दलथम्मन सिंह के घर में हुआ था। 1942 में हाईस्कूल कर चुनार तहसील में नकल नवीस के नाते उनकी नौकरी लग गयी। जब वहां सायं शाखा प्रारम्भ हुई, तो ये तहसील की निर्धारित वेशभूषा में ही वहां आने लगे। शाखा पर आने वालों में सबसे बड़े थे। अतः सब इन्हें ‘बड़े भाई’ कहने लगे।
उन दिनों माधव जी देशमुख मिर्जापुर में जिला प्रचारक थे। 1944 में ये प्राथमिक शिक्षा वर्ग में गये; पर तब तक उन्होंने नेकर नहीं पहना था। उसके लिए मन में संकोच भी था। कार्यकर्ताओं ने उनके नाप का नेकर बनवाकर एक दिन अंधेरे में आग्रहपूर्वक उन्हें पहना दिया। प्रकाश होने पर जब सबने उन्हें देखा, तो जोरदार ठहाका लगाया। इस प्रकार मन की हिचक समाप्त हुई।
प्राथमिक वर्ग के बाद उन्होंने अपने गांव में भी शाखा शुरू कर दी। वे हर शनिवार को वहां जाकर सोमवार को वापस आते थे। उनके पिताजी इससे बहुत नाराज थे। एक बार उन्हें इलाज के लिए मिर्जापुर कार्यालय पर रहना पड़ा। तब स्वयंसेवकों ने उनकी बहुत सेवा की, इससे उनके विचार बदल गये। 1946 में बड़े भाई अपनी स्थायी सरकारी नौकरी छोड़कर प्रचारक बन गये। तहसील में अपना काम समय से करने वाले वे एकमात्र कर्मचारी थे। अतः अधिकारियों ने एक महीने तक त्यागपत्र स्वीकार नहीं किया; पर ये फिर काम पर ही नहीं गये।
उनका विवाह विद्यार्थी जीवन में ही हो चुका था। प्रचारक बनने पर पिताजी ने कहा कि वनवास काल में रामचंद्र जी सीता को अपने साथ ले गये थे। बड़े भाई ने उत्तर दिया कि मैं तो लक्ष्मण जी की तरह राम का सेवक और भक्त हूं; और लक्ष्मण जी वन में अकेले ही गये थे।
बड़े भाई विंध्याचल, मिर्जापुर आदि में जिला प्रचारक रहे। 1948 और 1975 के प्रतिबन्ध काल में उन्होंने सहर्ष कारावरण किया। 1950 में उन्हें कानपुर में प्रभात शाखाओं का काम दिया गया। अपनी जन्मभूमि चुनार में उन्होंने 1950 में पुरुषोत्तम चिकित्सालय, 1952 में माधव विद्या मंदिर तथा 1953 में पंडा समाज की स्थापना की। एक बार उन्होंने भारतीय जनसंघ के टिकट पर चुनाव भी लड़ा। अत्यधिक भागदौड़ से स्वास्थ्य खराब होने पर 1956 में वे कानपुर में संघ कार्यालय तथा वस्तु भंडार के प्रमुख बनाये गये।
‘भारतीय मजदूर संघ’ की स्थापना होने पर उन्हें कानपुर में ही इसका काम दिया गया। धीरे-धीरे उनका कार्यक्षेत्र बढ़ता गया। उन दिनों संगठन की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अतः बड़े भाई को जनसंघ की ओर से दो बार विधान परिषद में भेजा गया। विधायकों को मिलने वाली यातायात सुविधा का लाभ उठाकर उन्होंने पूरे प्रदेश में संगठन को सबल बनाया।
आगे चलकर वे मजदूर संघ के राष्ट्रीय महामंत्री बने। उन्होंने मजदूर हित से सम्बन्धित अनेक लेख तथा ट्रेड यूनियन आंदोलन, यूनियन पथ प्रदर्शक तथा भारत में श्रम संघ जैसी पुस्तकें लिखीं। उन्होंने राज्य तथा राष्ट्र-स्तरीय अनेक संस्थाएं बनाकर मजदूर संघ को सबसे आगे पहुंचा दिया। निःसंदेह वे ‘आधुनिक विश्वकर्मा’ ही थे।
इन्हीं दिनों उनके मस्तिष्क में कैंसर के एक फोड़े का पता लगा। मुंबई में उसकी शल्य क्रिया की गयी। चिकित्सकों ने कह दिया था कि इसका दुष्प्रभाव इनके किसी अंग पर अवश्य पड़ेगा। शल्य क्रिया के बाद इनकी नेत्र ज्योति चली गयी। अब कोई इनसे मिलने आता, तो बात करते हुए इनकी आंखों से आंसू बहने लगते थे। इसी अवस्था में दो मई, 1985 को उनका देहांत हुआ।
(संदर्भ : ठाकुर संकटाप्रसाद जी से वार्ता एवं बड़े भाई स्मृति ग्रंथ)
– विजय कुमार