भारतीय सभ्यता न केवल लाखों वर्ष प्राचीन है, अपितु वह अत्यन्त समृद्ध भी रही है। इसे विश्व के सम्मुख लाने में जिन लोगों का विशेष योगदान रहा, उनमें श्री विष्णु श्रीधर (हरिभाऊ) वाकणकर का नाम उल्लेखनीय है।
हरिभाऊ का जन्म 4 मई, 1919 को नीमच (जिला मंदसौर, म.प्र.) में हुआ था। इतिहास, पुरातत्व एवं चित्रकला में विशेष रुचि होने के कारण अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कर वे उज्जैन आ गये और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे वहां पर ही प्राध्यापक हो गये।
उज्जैन के पास दंतेवाड़ा ग्राम में हुई खुदाई के समय उन्होंने अत्यधिक श्रम किया। 1958 में वे एक बार रेल से यात्रा कर रहे थे कि मार्ग में उन्होंने कुछ गुफाओं और चट्टानों को देखा। साथ के यात्रियों से पूछने पर पता लगा कि यह भीमबेटका (भीम बैठका) नामक क्षेत्र है तथा यहां गुफा की दीवारों पर कुछ चित्र बने हैं; पर जंगली पशुओं के भय से लोग वहां नहीं जाते।
हरिभाऊ की आंखों में यह सुनकर चमक आ गयी। रेल कुछ देर बाद जब धीमी हुई, तो वे चलती गाड़ी से कूद गये और कई घंटे की चढ़ाई चढ़कर उन पहाडि़यों पर जा पहुंचे। वहां गुफाओं पर बने मानव और पशुओं के चित्रों को देखकर वे समझ गये कि ये लाखों वर्ष पूर्व यहां बसने वाले मानवों द्वारा बनाये गये हैं। वे लगातार 15 वर्ष तक यहां आते रहे। इस प्रकार इन गुफा चित्रों से संसार का परिचय हुआ। इससे हरिभाऊ को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली और भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।
संघ के स्वयंसेवक होने के नाते वे सामाजिक क्षेत्र में भी सक्रिय थे। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, म.प्र. के अध्यक्ष रहे। विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद 1966 में प्रयाग में जब प्रथम ‘विश्व हिन्दू सम्मेलन’ हुआ, तो एकनाथ रानडे ने उन्हें वहां प्रदर्शिनी बनाने तथा सज्जा करने के लिए भेजा। फिर तो ऐसे हर सम्मेलन में हरिभाऊ की उपस्थिति अनिवार्य हो गयी। इसके बाद वे विश्व के अनेक देशों में गये और वहां भारतीय संस्कृति, कला, इतिहास और ज्ञान-विज्ञान आदि पर व्याख्यान दिये। 1981 में ‘संस्कार भारती’ की स्थापना होने पर उन्हें उसका महामंत्री बनाया गया।
एक बार वे लंदन के पुरातत्व संग्रहालय में शोध कर रहे थे। वहां उन्होंने सरस्वती की वह प्राचीन प्रतिमा देखी, जिसे धार की भोजशाला पर हमला कर मुस्लिमों ने तोड़ा था। धार में ही जन्मे हरिभाऊ यह देखकर भावुक हो उठे। अगले दिन वे संग्रहालय में गये और प्रतिमा पर एक पुष्प चढ़ाकर वंदना करने लगे।
उनकी आंखों में आंसू देखकर संग्रहालय का प्रमुख बहुत प्रभावित हुआ। उसने हरिभाऊ को एक अल्मारी दिखाई, जिसमें अनेक अंग्रेज अधिकारियों की डायरियां रखीं थीं। इनमें वास्कोडिगामा की डायरी भी थी, जिसमें उसने स्पष्ट लिखा है कि वह मसालों के एक व्यापारी ‘चंदन’ के जलयान के पीछे चलकर भारत में कोचीन के तट पर आया। कैसी मूर्खता है कि इस पर भी इतिहासकार उस पुर्तगाली डाकू को भारत की खोज का श्रेय देते हैं।
एक बार हरिभाऊ एक हिन्दू सम्मेलन में भाग लेने के लिए सिंगापुर गये। वहां उनके होटल से समुद्र का मनमोहक दृश्य हर समय दिखाई देता था। चार अप्रैल, 1988 को जब वे निर्धारित समय पर सम्मेलन में नहीं पहुंचे, तो लोगों ने होटल जाकर देखा। हरिभाऊ बालकनी में एक कुर्सी पर बैठे थे। घुटनों पर रखे एक बड़े कागज पर अठखेलियां करते समुद्र का आधा चित्र बना था, हाथ की पेंसिल निचे गिरी थी। इस प्रकार चित्र बनाते समय हुए भीषण हृदयाघात ने उस कला साधक के जीवन के चित्र को ही सम्पूर्ण कर दिया।
– विजय कुमार