कर्मनिष्ठ प्रचारक ऋषि मुनि सिंह

जीवन की अंतिम सांस तक बिहार में संघ का कार्य करने वाले श्री ऋषि मुनि सिंह का जन्म 1927 में बिहार के कैमूर जिले के चांद विकास खंड के एक ग्राम में हुआ था। उनके अभिभावकों ने उनका यह नाम क्यों रखा, यह कहना तो कठिन है; पर उन्होंने अपने कर्ममय जीवन से इसे सार्थक कर दिखाया। 

ऋषि मुनि जी ने 1946 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद कोई नौकरी या कारोबार न करते हुए वे संघ के प्रचारक बन गये। यद्यपि परिवार वालों ने उनका विवाह निश्चित कर दिया था; पर जिस दिन सगाई के लिए कन्या पक्ष के लोग आने वाले थे, उसी दिन उन्होंने घर छोड़ दिया। प्रचारक जीवन के प्रारम्भ में ही देश विभाजन और संघ पर प्रतिबंध जैसी विभीषिकाओं से उन्हें जूझना पड़ा। प्रतिबंध समाप्ति के बाद कई प्रचारक घर लौट गये; पर वे डटे रहे और अगले 17 वर्ष तक कई स्थानों पर तहसील व जिला प्रचारक रहे।

ऋषि मुनि जी की रुचि प्रारम्भ से ही पढ़ने में थी। समाचार पत्रों को वे बड़ी गहराई से पढ़कर उनका विश्लेषण करते थे। उनकी यह रुचि देखकर उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने को कहा गया। 1975 में इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाकर संघ को प्रतिबंधित कर दिया। सभी समाचार पत्रों पर सेंसर लगा दिया गया। जनता को सही समाचार मिलने बंद हो गये। सरकार के चाटुकार लेखक तथा पत्र-पत्रिकाएं एकपक्षीय समाचार छापने लगे। जो ऐसा नहीं करते थे, उन्हें जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया जाता था।

ऐसे में संघ के कार्यकर्ताओं ने पूरे देश में संचार का नया तंत्र स्थापित किया। हर जिले में अंगारा, सौगन्ध, स्वाधीनता, हुंकार, ललकार जैसे नामों से छोटे-छोटे पत्र निकाले गये। निष्पक्ष समाचारों के लिए जनता को इनकी प्रतीक्षा रहती थी। ऋषि मुनि जी ने भी उन दिनों ‘लोकवाणी’ नामक पत्र निकाला। कुछ ही समय में वह लोकप्रिय हो गया। पुलिस-प्रशासन ने लोकवाणी के प्रकाशक को बहुत तलाशा; पर ऋषि मुनि जी उनके हाथ नहीं आये।

आपातकाल तो समाप्त हो गया; पर जिन लोगों पर इस बीच झूठे मुकदमे लाद दिये गये थे, वे अभी चल रहे थे। इस कारण लोगों को बार-बार तारीख भुगतने के लिए न्यायालय में जाना पड़ता था। संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने ऋषि मुनि जी को यह महत्वपूर्ण काम दिया। डेढ़ वर्ष तक लगातार सचिवालय और न्यायालयों में चक्कर लगाकर उन्होंने सब मुकदमे समाप्त कराये।

बिहार में ‘इतिहास संकलन योजना’ के काम को प्रारम्भ करने का श्रेय भी ऋषि मुनि जी को ही है। उन्होंने ‘ग्राम गौरव संस्थान’ के नाम से इसमें एक नया और रोचक आयाम जोड़ा। इसके अन्तर्गत गांव का एक सम्मेलन होता था, जिसमें वहां के वयोवृद्ध लोगों के साथ ही अच्छे शिल्पी, कलाकार, पहलवान तथा किसी भी विषय के विशेषज्ञ लोगों को सम्मानित किया जाता था।

ऋषि मुनि जी पुराने समाचार पत्र, उनकी कतरनें तथा अपने सामान को बहुत संभालकर रखतेे थे। यदि कोई इसे छेड़ता, तो वे नाराज भी हो जाते थे। पटना कार्यालय पर रहते हुए वे प्रायः पास की झुग्गी बस्तियों में जाते थे। वहां के बच्चों को वे कार्यालय पर भी बुला लाते थे। इस प्रकार उन्होंने उन बस्तियों से स्नेह और प्रेम का गहरा पारिवारिक सम्बन्ध बना लिया था।

जीवन के संध्याकाल में वे स्मृतिलोप के शिकार हो गये। उन्हें पुरानी बातें तो याद रहती थीं; पर नयी बात को वे भूल जाते थे। बिहार का प्रान्तीय कार्यालय पटना में है। वहीं पर रहते हुए 10 मई, 2009 को उनका देहांत हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य/वीरेन्द्र जी, विहिप)

 – विजय कुमार 

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