युद्ध के बीच विश्व को चाहिए बुद्ध का ज्ञान

वर्तमान में जिस तरह से रूस और यूक्रेन युद्धरत हैं और इस कारण पूरा विश्व किसी न किसी प्रकार से त्रस्त है, ऐसे में हमें बुद्ध के संदेश को समझना और उसे आत्मसात करना चाहिए

विश्व की सभ्यताओं का विकास उन क्रूर परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए हुआ, जिनसे पीछा वर्तमान में भी नहीं छूटा है। ऐसा हर संघर्ष यह मान कर हुआ कि युद्ध की अंतिम परिणति पर पहुंचने के उपरांत समस्या या विवाद का स्थायी निदान हो जाएगा, परंतु होता नहीं। रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध इसका वर्तमान उदाहरण है। यूक्रेन ने रूस और अमेरिका के आश्वासन पर अपने परमाणु अस्त्र-शस्त्र इसलिए समुद्र में डुबो दिए थे कि शांति बनी रहेगी। किंतु इस बात का आश्वासन देने वाला रूस ही यूक्रेन की छाती में शूल चुभो रहा है और विश्व शांति के लिए स्थापित वैश्विक संस्थाएं लगभग मौन हैं।

आखिर सत्ता के साम्राज्यवादी विस्तार का ऐसा कौन सा मोह है, जिसके समक्ष ईश्वरीय अवधारणाएं और शांति व करुणा के उपदेश बौने बने रह जाते हैं। कहने को तो भगवान बुद्ध ने मैत्री और करुणा के जो उपदेश विश्व मानवता को दिए, उस हेतु विश्व को सदैव उनका ऋणी होना चाहिए। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में पूंजी से और पूंजी बनाने की महत्वाकांक्षाएं इतनी जगा दी गई हैं कि न्याय, समता और अपरिग्रह के जो प्रकृति या ईश्वरवादी दर्शन हैं, वे अप्रासंगिक होते चले जा रहे हैं। आधुनिक हथियारों के निर्माण की होड़ लगी है और उन्हें खपाने के लिए बड़े टकराव के हालात पैदा किए जा रहे हैं। चीन भगवान बुद्ध को मानने वाला देश है, बावजूद इसके परमाणु शक्ति संपन्न हो जाने के कारण साम्राज्यवादी विस्तार के लिए अपनी सीमाओं से आगे बढऩे की जुगत में लगा रहता है। यह बौद्ध धर्मावलंबी देश तिब्बत को हड़प चुका है और श्रीलंका को कर्ज में डुबोकर अस्थिरता के हालात में धकेल चुका है।

भौतिक इच्छाएं : हालांकि मनुष्य भंतिभांति यह जानता है कि भौतिक इच्छाओं की पूर्ति से जो प्रसन्नता मिलती है, उसकी आयु लंबी नहीं होती। आज अधिकांश सक्षम व आभिजात्य वर्ग से जुड़े लोग भ्रष्टाचार, चालाकी और धूर्तता से संपत्ति संचय में लगे हैं। ये न केवल अपना, बल्कि अपनी सात पीढिय़ों का भविष्य सुरक्षित करने की अनैतिक चेष्टाओं से गुजर रहे हैं। जबकि सुरक्षा के स्थायित्व की कहीं कोई गारंटी नहीं है, लेकिन जैसे ही कोई एक ठोकर लगती है, सुरक्षा की आकांक्षा जटिल दु:स्वप्न में बदल जाती है।

सांसारिक मोह का त्याग : सिद्धार्थ यानी गौतम राजवंश से होने के बावजूद निर्वाण में आनंद का अनुभव करने लगे। भोग-विलास और सांसारिक मोह व बंधन उनके लिए सुख का कारण नहीं बन पाए। यही कारण रहा कि न केवल राजपाट, बल्कि पत्नी और पुत्र को सोता हुआ छोड़कर वह पलायन कर गए। हालांकि जिजीविषा के विभिन्न आयाम चाहे भौतिक हों या आत्मिक या फिर दार्शनिक तथा भावनात्मक, अंतत: वह हैं जैविक ही, क्योंकि जीवन को तत्व दर्शन से ही बौद्धिक पोषण मिलता है। अतएव बुद्ध का जीवन और तत्व ज्ञान आधुनिक युग के यथार्थ के निकट है। इसीलिए वह जातीय भेद, गरीबी, नैतिक पतन जैसी कठिन समस्याओं से जूझते मनुष्य के लिए अत्यंत आवश्यक लगती हैं।

बुद्ध का प्रादुर्भाव ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हुआ था। भारत के इतिहास में उस युग को उत्तर वैदिक काल कहा गया है। उस कालखंड में जो वर्ण व्यवस्था थी, उसमें जाति शब्द का प्रयोग आरंभ हो गया था। समता से परे ऊंच-नीच के भाव उत्पन्न होने लगे थे। कर्म के स्थान पर जन्म के अनुसार जाति का निर्णय होने लगा था। धर्म और ईश्वर के नाम पर हिंसा और शोषणमूलक कर्मकांडी आडंबरों का प्रचलन बढऩे लगा था। ऐसे में सिद्धार्थ ने राजमहल से बाहर निकलते हुए राजमार्ग पर आकर इस व्यवस्था का विरोध किया। राज्यसत्ता के विरुद्ध यह बड़ा हस्तक्षेप था। आज के राजनीतिक संदर्भ में बुद्ध का यह दखल अत्यंत अर्थवान एवं प्रासंगिक है।

बुद्ध ने जनता को सदाचार और ज्ञानवान बन जाने के उपदेश निरंतर दिए, परंतु ब्राह्मणों के ब्रह्म या ईश्वर के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। दरअसल बुद्ध का मानना था कि भगवान की भक्ति के बिना भी कष्टों से छुटकारा मिल सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में बुद्ध आधुनिक विज्ञानियों के समकक्ष थे। विज्ञानी मानते हैं कि प्राकृतिक घटनाओं की तर्कसंगत व्याख्या के प्रकरण में किसी अलौकिक हस्तक्षेप के विचार को प्रकट ही नहीं करना चाहिए। इस संदर्भ में हम हिमालय क्षेत्र में हो रहे भूस्खलनों और केदारनाथ में आई प्रलय की आपदा का उल्लेख कर सकते हैं। आज हिमालय के शिखरों का जो क्षरण हो रहा है, हिमखंड टूट रहे हैं, उसके कारणों में ईश्वरीय आक्रोश नहीं, बल्कि वह औद्योगिक- प्रौद्योगिकी विकास है, जो हिमालय को खोखला कर रहा है। यही मन: स्थिति रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की है। यहां हथियार निर्माता देश और कंपनियां हथियार खपाने की जगह बनाने के लिए यूक्रेन को उकसाने में लगी हैं। इसीलिए बुद्ध में वस्तुपरक स्वभाव को ज्ञात करने की क्षमता इतनी अधिक थी कि वे ब्रह्मांडीय व्यवस्था के रहस्य मूलक हस्तक्षेप अथवा मानव की मन:स्थिति के जादुई विलास के भौतिक विचार को कतई स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।

कहा जा सकता है कि बुद्ध का चिंतन आदर्शवादी था। उनका कहना था कि ईश्वर को मानने से मनुष्य को स्वयं पर विश्वास कम हो जाता है। अतएव वह प्रत्येक दायित्व, घटना, समस्या और संकट को समाधान के लिए ईश्वर के सुपुर्द कर स्वयं निष्क्रिय हो जाता है। भगवान बुद्ध मनुष्य को कर्मशील, संघर्षशील और अपनी क्षमताओं पर विश्वास रखने वाला बनाना चाहते थे। इस आपाधापी के वर्तमान दौर में वही सफल होता है, जो कर्म और संघर्ष को प्रधान बनाए रखेगा। किंतु इस ऊहापोह में बुद्ध की करुणा नहीं होगी तो मनुष्य कठोर और निर्मम होता चला जाएगा।

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