सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रहमा के मानस पुत्र नारद – महान तपस्वी, तेजस्वी, सम्पूर्ण वेदान्त एवं शस्त्र के ज्ञाता तथा समस्त विद्याओं में पारंगत हैं, वे ब्रहमतेज से संपन्न हैं। नारद जी के महान कृतित्व व व्यक्तित्व पर जितनी भी उपमाएं लिखी जायें कम हैं। देवर्षि नारद ने अपने धर्मबल से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया। वे समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए उपस्थित रहते थे। वे देव,दानव और मानव समाज के हित के लिये सर्वत्र विचरण करते हुए चिंतन व विचार मग्न रहते थे। देवर्षि नारद की वीणा से निरंतर नारायण की ध्वनि निकलती रहती थी। भगवदभक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही नारद का अवतार हुआ। नारद चिरंजीवी हैं। नारद जी का संसार में अमिट प्रभाव है। देव, दानव, मानव सबके सत्कार्यों में देवर्षि नारद सहायक सिद्ध होते हैं।
नारद जी पर श्री विष्णु की विशेष कृपा है। देवर्षि नारद त्रिकालदर्शी व पृथ्वी सहित सभी ग्रह नक्षत्रों में घट रही घटनाओें, चिंताओं व दुखों के ज्ञाता तो थे ही उनके मन में सभी प्रकार की कठिन से कठिन समस्याओं के समाधान भी चलायमान रहते हैं । देवर्षि नारद व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव जी जैसे महँ ऋषियों के गुरू हैं । नारद ने ही प्रहलाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष, आदि को भक्तिमार्ग पर प्रवृत्त किया। नारद ब्रहमा, शंकर, सनतकुमार, महर्षि कपिल, मनु आदि बारह आचार्यो में अन्यतम हैं।
प्रचलित कथा के अनुसार देवर्षि नारद अज्ञात कुलशील होने पर भी देवर्षि पद तक पहुंच गये थे। बालक होते हुए भी उनके मन में चंचलता नहीं थी। नारद मुनिजनों की आज्ञा का पालन किया करते थे। नारद की सेवा से प्रभावित होकर मुनिगण उन पर अपनी कृपा रखने लगे। उनकी अनुमति प्राप्त करके वे बरतनों में लगी हुई जूठन दिन में एक बार खा लिया करते थे। इससे उनके जन्म के सारे पाप धुल गये। संतों की सेवा करते – करते उनका हृदय शुद्ध रहने लगा। भजन – पूजन में उनकी रूचि बढ़ती गयी। उनके हृदय में भक्ति का प्रादुर्भव हो गया।
वे अपनी माता के साथ ब्राहमण नगरी में रहते थे। माता के कारण वे भी कहीं अन्यत्र नहीं जा सके। कुछ दिनों बाद एक दिन उनकी माता को सर्प ने काट लिया जिससे उनकी मृत्यु हो गयी नारद जी ने उसे विधि का विधान माना और गृह का त्याग करके उत्तर दिशा की ओर चल दिये। इसके बाद उन्होनें अपनी सतत साधना और तपस्या के बल पर देवर्षि का पद प्राप्त किया।
किसी – किसी पुराण में देवर्षि नारद को उनके पूर्वजन्म में सारस्वत नामक एक ब्राहमण बताया गया है। जिन्होनें “ओम नमो नारायणाय” इस नारायण मंत्र के जाप से भगवान नारायण का साक्षात्कार किया। कालान्तर में पुनः ब्रह्मा जी के दस मानसपुत्रों के रूप में जन्म लिया। नारद शुद्धात्मा, शांत, मृदु तथा सरल स्वभाव के हैं। मुक्ति की इच्छा रखने वाले सभी लोगों के लिए नारद जी स्वयं ही प्रयत्नशील रहते हैं। नारद जी को ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन होते थे। उन्हें ईश्वर का मन कहा गया है। वे परम हितैषी हैं उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं हैं।
वे प्रभु की प्रेरणा से निरंतर कार्य करते रहते हैं। नारद जी ने दक्ष प्रजापति के हयाष्व- शबलाक्ष नामक सहस्र पुत्रों को अध्यात्म तत्व का पाठ पढ़ाया। देवर्षि नारद ने सभी के लिये भगवदभक्ति का द्वार खोल रखा है। वे जीवमात्र के कल्याण के लिये भगवान नाम कीर्तन की प्रेरणा देते रहते हैं। देवर्षि नारद का वर्ण गौर सिर पर सुंदर शिखा सुशोभित है। उनके शरीर में एक विषेष प्रकार की उज्वल ज्योति निकलती रहती है । वे देवराज इंद्र द्वारा प्राप्त श्वेत, महीन तथा दो दिव्य वस्त्रों को धारण किये रहते हैं।
वे अनुषांगिक धर्मों के ज्ञाता हैं । नारद लोप, आगम, धर्म तथा वृत्ति संक्रमण के द्वारा प्रयोग में आये हुये एक- एक शब्द की अनेक अर्थो में विवेचना करने में सक्षम हैं । नारद जी ने कृष्ण युग में गोपियों का वर्चस्व स्थापित किया। प्रथम पूज्य देव गणेश जी को भी नारद जी का ही मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ था।
देवर्षि नारद स्वभावतः धर्म निपुण तथा नाना धर्मो के विषेषज्ञ हैं। वे चारों वेदों के ज्ञाता हैं। उन्होंने वैदिक धर्म की विभिन्न मर्यादाएं स्थापित की हैं। वे अर्थ की व्याख्या के समय सदा संशयों का उच्छेद करते हैं। नारद जी के द्वारा रचित अनेक ग्रंथों का उल्लेख मिलता है – जिसमें प्रमुख हैं नारद पंचरात्र, नारद महापुराण, वृहदरदीय उपपुराण, नारद स्मृति, नारद भक्ति सूत्र, नारद परिवाज्रकोपनिषद आदि। इसके अतिरिक्त नगरीय शिक्षा शास्त्र के साथ ही अनेक स्तोत्र भी नारद जी के द्वारा रचित बताये जाते है। नारद जी के सभी उपदेशों का निष्कर्ष हैं कि सर्वदा सर्वभाव से निश्चिन्त होकर केवल भगवान का ही भजन करना चाहिये।
भगवद भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिये नारद जी का आविर्भाव हु आ। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं । इस कारण सभी युगों में सभी लोकों में समस्त विद्याओं में समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं वरन दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर किया है। समय -समय सभी ने उनसे परामर्ष लिया है। नारद जी भागवत संवाददाता भी थे , संदेश वाहक भी थे और ब्रहमाण्ड के एक प्रकार से प्रथम पत्रकार भी माने गये।
नारद जी के विभिन्न उपनाम भी हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उन्हें संचारक अर्थात सूचना देने वाला पत्रकार कहा गया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत के शब्द कोष में उनका एक नाम ” आचार्य पिशुन“ आया है जिसका अर्थ है सूचना देने वाला संचारक, सूचना पहुंचाने वाला, सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान तक देनेवाला है। आचार्य का अर्थ गुरू, शिक्षक, यज्ञ का मुख्य संचालक विद्वान अथवा विज्ञ होता है। आचार्य पिषुन से स्पष्ट है कि देवर्षि नारद तीनों लोकों में सूचना अथवा समाचार के प्रेषक के रूप में परम लोकप्रिय हैं ।
पुराणों में नारद को भागवत संवाददाता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह भी सर्वमान्य है कि नारद की ही प्रेरणा से महषि वाल्मीकि ने रामायण जैसे महाकाव्य और व्यास ने भवगदगीता जैसे काव्य की रचना की थी। नारद में अपार संचार योग्यता व क्षमता है । आदि पत्रकार नारद जी की पत्रकारिता सज्जन रक्षक व एवं दुष्ट विनाषशक है । वे सकारात्मक पत्रकार की भूमिका में रहा करते थे। पत्रकार के रूप में काशी, प्रयाग, मथुरा, गया, बद्रिकाश्रम, केदारनाथ, रामेष्वरम सहित सभी तीर्थों की सीमाओं तथा महत्व का वर्णन उन्होंने नारद पुराण में किया हैं। सभी पर्वों का भी वर्णन उन्होंने किया है। नारद पुराण में सभी पुराणों की समीक्षा भी है। आदि पत्रकार नारद जी ने सृष्टि के प्रारम्भ से ही पत्रकारिता के समक्ष जो आदर्श एवं स्वरूप प्रस्तुत किया है उसका स्वतंत्र अध्ययन आवश्यक है।