वेतमान के मामले में पिछड़ती महिला प्रतिभाएं

_पुरुषों और महिलाओं में समानता का सवाल बहुत पुराना है। लेकिन, जब योग्यता, क्षमता और दक्षता में दोनों समान हों, तो सिर्फ लैंगिक कारणों से दोनों विभेद नहीं किया जाना चाहिए! लेकिन, हर क्षेत्र में लैंगिक असमानता बरक़रार है। यहां तक कि खेल जैसे मामले में भी संगठन पुरुषों और महिलाओं में फर्क करते है और ये उनको मिलने वाले वेतन, भत्तों में साफ़ नजर आता है! भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के खेल संगठनों में यही मानसिकता है। महिला खिलाड़ियों ने आवाज उठाकर कई जगह तो अपना हक़ पा लिया, पर अभी लम्बी लड़ाई बाकी है।_ 

बीते दिनों अमेरिकी फुटबॉल महासंघ ने पुरुष और महिला खिलाड़ियों को समान वेतन भुगतान करने का समझौता किया है, जो दिसंबर 2028 तक मान्य रहेगा। ऐसे में इस समझौते ने अब वैश्विक स्तर पर एक नई बहस खड़ी कर दी। देखा जाए तो समान कार्य के लिए समान वेतन की मांग कोई नया मुद्दा नहीं है। लेकिन, खेलों में महिला खिलाड़ियों से यह दुर्व्यवहार बरसों से चला आ रहा है। कोई भी देश क्यों न हो, वहां महिला खिलाड़ियों को उस हिसाब से प्रमुखता नहीं दी जाती, जो पुरुष को मिलती है। भारत में ही जब कोई पुरुष खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करता है, तो सरकारें उस पर करोड़ों रुपए पानी की तरह लुटा देती है। लेकिन, महिला खिलाड़ियों के मामले में यह सोच देखने को नहीं मिलती। ऐसे में सवाल यही है, कि यह भेदभाव आख़िर क्यों! स्त्री-पुरुष कोई भी हो खिलाड़ी हो। जब वह खेल के मैदान में उतरता है, तो उससे अपेक्षा यही होती है कि वह मैदान में बेहतरीन प्रदर्शन करें। स्वाभाविक सी बात है कि खेल सिर्फ खेल होता है, इसमें महिला-पुरुष होना मायने नहीं रखता। फ़िर महिलाओं को उस खेल के लिए समान वेतन या पुरुस्कार क्यों नहीं मिलता!

महिला खिलाड़ियों को समान वेतन दिलाने के लिए अमेरिकी फुटबॉलर एलेक्स मोर्गन और मेगान रोपिनो ने लम्बा संघर्ष किया है। 2019 में जब अमेरिकी खिलाड़ियों ने फ्रांस में विश्व खिताब जीता, तो यह मुद्दा काफ़ी सुर्खियों में रहा था। वजह साफ थी कि टूर्नामेंट जीतने के बाद भी महिला खिलाड़ियों को कम बोनस दिया जा रहा था। वहीं, पुरुष खिलाड़ियों को अधिक बोनस मिल रहा था। सोचने वाली बात है कि अमेरिका जैसे देश में भी महिला और पुरुष खिलाड़ियों में भेदभाव साफ नजर आता है। इसी के चलते महिला खिलाड़ियों को कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। हालांकि, कोर्ट ने उनकी यह मांग साल 2020 में ख़ारिज कर दी थी, लेकिन बाद में उनकी इस मांग को मान लिया गया। खेलों में समान वेतन को लेकर भेदभाव सिर्फ अमेरिका में ही नहीं पूरी दुनिया में है। समय-समय पर इसके लिए विरोध भी होता रहा है। फिर भी खेलों में महिलाओं को न उचित सम्मान नहीं मिल पाया और न उनके संघर्षों को सराहा गया। अब वैश्विक पटल पर महिला खिलाड़ी इस मुद्दे पर खुलकर बात रखने लगी है। जिसकी परिणीति यह हुई कि इसके सुखद परिणाम सामने आए। इसी के चलते ऑस्ट्रेलिया, आयरलैंड, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड जैसे देशों ने कुछ खेलो में समान वेतन देना भी शुरू कर दिया है।

बात अगर भारत की करें, तो हमारे देश में भी लैंगिक असमानता की खाई कुछ ज्यादा ही गहरी है। इससे दूसरे क्षेत्रों के अलावा खेल भी अछूते नहीं हैं। हमारे देश में तो महिलाओं को खेल खेलने के लिए भी लम्बा संघर्ष करना पड़ता है। वर्तमान दौर में लैंगिक समानता पर बहस छिड़ी है और इस असमानता का अर्थ महिलाओं के संघर्ष से जोड़कर देखा जाने लगा। जबकि, लैंगिक समानता का सीधा सा अर्थ है कि महिला और पुरुषों को हर क्षेत्र में बराबरी के अवसर मिले। उन्हें न केवल समान वेतन मिले, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक क्षेत्रों में भी समानता के भाव से देखा जाए। पर, विडंबना है कि हम बात तो समानता और समता की करते है, लेकिन आज भी महिलाओं को उस नजरिए से नहीं देखा जाता। आज भी महिलाओं को अपनी जगह पाने के लिए कड़े संघर्ष करने पड़ते हैं। वहीं, पुरुषों को असंवेदनशील और हिंसक रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जिससे महिला और पुरुषों के बीच गहरी खाई बन रही है।

हमारे समाज में पितृसत्तात्मक की खाई जड़े जमाए हुए है और खेलों में भी यही रवायत बरकरार है। पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को खेल में आत्मनिर्भर नहीं बनने देना चाहता। उसकी इच्छा होती है कि महिलाओं का पूरा जीवन पुरुषों की सेवा करने के लिए ही है। देखा जाए तो आज भी हमारे समाज में बहुत कम महिलाओं को खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ने दिया जाता है। वहीं, फ़िल्म और संगीत में बढ़ावा देने के लिए तमाम मीडिया चैनल महिमा मंडन करते दिखाई देते हैं। लेकिन, महिला खिलाड़ियों के लिए ऐसा होते बहुत कम देखा गया। यहां तक कि खेल के क्षेत्र में महिला कोच की नियुक्ति नाम मात्र की ही होती है। उन्हें भी महज़ यौन उत्पीड़न के मामले सुलझाने के लिए रखा जाता है। लेकिन, अब समाज की सोच महिलाओं के लिए बदल रही है। इसकी शुरुआत भारत में भी देखी जा रही है।

भारत में टेबल टेनिस फेडरेशन ऑफ इंडिया की दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त प्रशासकों की समिति ने लैंगिक समानता की पहल की है। इसके अंर्तगत महिला और पुरुष खिलाड़ियों को समान भुगतान दिए जाने की बात कही गई, जो मार्च 2023 से लागू होगा। वहीं बात बीसीसीआई की करें, तो यहां अब भी भेदभाव के आरोप लगते रहे हैं। पुरुष खिलाड़ियों पर तो करोड़ों रुपए लुटाए जाते हैं, जबकि महिला खिलाड़ियों को बहुत कम वेतन दिया जाता। यहां तक कि महिला खिलाड़ियों के लिए आईपीएल जैसे टूर्नामेंट की मांग उठती रही है, पर इस दिशा में अभी खास पहल नहीं हो पाई। समान काम समान वेतन का मुद्दा जितना पुराना है उतनी ही पुरानी इसकी प्रथा है, जिसे मिटाने में लम्बा समय लगना है। आजादी के 75 साल बाद भी अभी हम इसी सवाल पर अटके हैं। दिखने में बात बड़ी नहीं, पर है बहुत गंभीर!

– सोनम लववंशी

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