मुसलमानों को भारतीयत्व अपनाना होगा

हिंदू समाज की आस्था और मानबिंदुओं के पुनरुत्थान का क्रम अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण से शुरू हो चुका है। इसके बाद काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का काम शुरू हुआ और अब ज्ञानवापी में हुई वीडियोग्राफी में वहां शिवलिंग होने के प्रमाण मिले हैं। हालांकि यह मामला अभी जिला न्यायाधीश के अधीन है और सर्वोच्च न्यायालय ने भी कुछ सुझाव दिए हैं, परंतु ऐसे अन्य बहुत से तथ्य हैं, जो यह इंगित करते हैं कि वहां शिवालय ही था और क्रूर आक्रांताओं ने जैसे देश के अन्य मंदिरों को तोड़-फोड़कर उस पर मस्जिद बनवाई, उसी प्रकार ज्ञानवापी में भी शिवालय को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया। ज्ञानवापी नाम, नंदी की मूर्ति जो कि शिवालय का अभिन्न हिस्सा होती है, शिवालय के स्तंभों पर उकेरी गई नक्काशी, भगवान दत्तात्रेय के ‘गुरुचरित्र’ में भगवान शिव के सम्बंध में आया ज्ञानवापी का नाम इत्यादि सभी इस बात के मुखर प्रमाण हैं कि ज्ञानवापी शिवालय है, मस्जिद नहीं। यह मामला चल ही रहा था कि भोपाल की जामा मस्जिद में भी शिवलिंग होने का दावा किया जाने लगा है।

यथार्थ तो अभिप्रेत ही है कि भारत सदियों से हिंदू राष्ट्र रहा है और मुसलमान बाहर से आए हुए आक्रांता। अत: ऐसी खोजें जितनी गहराती जाएंगी, प्रमाण उतने ही अधिक हिंदूनिष्ठ होते जाएंगे। अब प्रश्न यह उठता है कि हिंदू प्रतीक, मंदिर अचानक से इतने महत्वपूर्ण क्यों हो गए? अयोध्या के बाद पूरे देश में यह लहर कैसे चल पड़ी? क्यों हर राज्य में किसी न किसी को यह लगने लगा है कि जहां मकबरे-मस्जिदें बनी हुई हैं, उनके नीचे हिंदू मंदिर या प्रतीक हैं? क्यों ज्ञानवापी में शिवलिंग ढूंढ़ा जा रहा है और क्यों ताजमहल को तेजोमहालय कहा जा रहा है? कुछ लोग इसे सांप्रदायिक भेदभाव फैलाने का नया तरीका कह रहे हैं, कुछ इसे राजनैतिक हथकंडे मान रहे हैं, तो कुछ लोग आने वाले चुनावों की पृष्ठभूमि के रुप में देख रहे हैं। इनके पीछे के कारण जो हों, मुद्दा यह है कि इतने वर्षों तक जब हिंदू समाज इन आतताइयों के प्रतीकों को ढो रहा था तब तक वह सहिष्णु था, देश में शांति थी और अब जब वह अपने ही मंदिरों में पूजा-अर्चना करने के अधिकार का प्रयोग कर रहा है तो वह अचानक असहिष्णु हो गया? हालांकि अब अयोध्या की लड़ाई पूर्णत: कानून के अनुसार लड़ने और जीतने के कारण हिंदुओं में यह ऊर्जा और विचार बलवती हो चुका है कि अगर उचित प्रमाण और साक्ष्य उपलब्ध हों तो हमारी अस्मिता से जुड़े हर मानचिन्ह को दासता के प्रतीकों से मुक्त कराया जा सकता है।

जिन सुंदर इमारतों के अपने होने की बात मुलसमान करते हैं, क्या वे यह बता सकते हैं कि वर्षों पहले कबीलाई संस्कृति में जन्मी, लूट-खसोट के उद्देश्य से दूसरे देशों पर आक्रमण करनेवाली एक ऐसी जमात को, जो उजाड़ रागिस्तान से आई हो, स्थापत्य कला का ज्ञान कैसे होगा? जिन स्थानों से ये लोग आए हैं, वहां इन्होंने कौन सी सुंदर मस्जिदें बनवाईं हैं, जिन्हें स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने के रूप में प्रदर्शित किया जा सके। भारत में भी इन लोगों ने जो इमारतें बनवाईं, वह भी भारतीय कारीगरों के हाथों का ही कमाल हैं और उस पर अत्याचार यह कि कारीगरों के हाथ ही काट दिए। इस प्रवृत्ति के लोगों से इतने वर्षों पूर्व इतनी सुंदर इमारतों का बनाया जाना क्या विरोधाभासी और अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लगता?

वास्तव में स्वतंत्रता के बाद कुछ तथाकथित इतिहासकारों ने मुगल इतिहास और शासनकर्ताओं को इतना ग्लैमराइज कर रखा है, उनके बारे में किताबों, पाठ्यपुस्तकों और सिनेमा में इतना सुंदर चित्रण कर रखा है कि हिंदू पीढ़ियां यह भूल गई थीं कि ये अत्याचारी आक्रांता थे। आज भारत में रहने वाले न केवल हिंदू बल्कि मुसलमानों को भी इनकी सच्चाई पढ़नी-सुननी चाहिए, क्योंकि आज जो अपने आप को मुसलमान कहते हैं, उनके पूर्वज भी कभी हिंदू ही थे और इन्हीं आक्रांताओं के अत्याचारों के कारण उन्हें जबरन अपना मत परिवर्तन करना पड़ा।

आज के मुसलमान अगर स्वयं को हिंदू न सही कम से कम भारतीय ही मान लें तो भी सामाजिक सद्भावना बनी रहेगी। किसी खाली जगह पर कानून की सभी प्रक्रिया पूरी करने के बाद मिली जमीन पर मस्जिद बनवाने और उसमें नमाज अता करने से कोई हिंदू उन्हें नहीं रोकता। परंतु हिंदू मंदिरों को जबरन हथियाने, उसे  ता़ेड-फोड़कर, जला कर उस पर जबरदस्ती मस्जिद बनाने के बाद हिंदुओं से शांति और सद्भाव की कामना करना तो बेशर्मी की हद है। यह अब तक होता भी आया क्योंकि हिंदू शासन-प्रशासन में विश्वास रखते हैं और दुर्भाग्य से भारत पर स्वतंत्रता के बाद से अभी तक ऐसी पार्टी का शासन अधिकतम रहा जो यहां के संसाधनों पर भी पहले मुसलमानों का अधिकार मानती थी। किंतु अब शासन परिवर्तित हो चुका है। यह शासन अपनी संस्कृति, अपनी धरोहर को बचाने के लिए न केवल इच्छुक है वरन उसके लिए कठोरतम कदम उठाने के लिए भी तत्पर है।

भारत की संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु, महेश अर्थात शिव को क्रमश: सृष्टि के रचयिता, पालक और संहारक के रूप में पूजा जाता है। ब्रह्मा और विष्णु के अवतारों और अंशों को सम्पूर्ण भारतीय समाज विविध रूपों में पूजता है परंतु शिव को शिव रूप में ही पूजा जाता है और कई स्थानों पर वे आज भी जाग्रत हैं। भारत में रहने वाले हिंदुओं का अब यह कर्तव्य है कि वे अपने श्रद्धा स्थानों को दासता के चंगुल से मुक्त कराने का बीड़ा उठाएं, जिससे आनेवाली पीढ़ियां अपना सही इतिहास जान सकें। अब भी अगर हिंदू अपनी आंखें मूंदे बैठे रहे, अपने आस-पास रातभर में बन जाने वाली मजारों पर कुछ नहीं बोले और अपने श्रद्धा स्थानों और अपने प्रतीकों को मुक्त करने के लिए उद्यत नहीं हुए तो शिव को शव बनाने के जो प्रयत्न अभी असफल रहे हैं, वे आगे सफल भी हो सकते हैं।

 

Leave a Reply