मुखर विदेश मंत्री व नीति

नए भारत की विदेश नीति भी नई होगी यह ऐलान तो प्रधान मंत्री पहले ही कर चुके थे। अब उनके ऐलान को वास्तविकता का चोगा पहनाने का काम विदेश मंत्री एस. जयशंकर कर रहे हैं। वे अंतरराष्ट्रीय पटल पर हर देश को उसकी ही भाषा में आंख से आंख मिलाकर जवाब दे रहे हैं।

विदेश मंत्री एस जयशंकर इन दिनों भारत के एक बड़े वर्ग के हीरो बन रहे हैं। वास्तव में उन्होंने हाल में जिस तरह बयान दिया या द्विपक्षीय बहुपक्षीय वार्ताओं में जो कुछ कहा और पत्रकारों के प्रश्नों के जैसे उत्तर दिये वैसे आमतौर पर वैदेशिक मामले में भारत से सुने नहीं जाते। एस जयशंकर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ 11 अप्रैल को टू प्लस टू बातचीत के लिए अमेरिका गए थे। टू प्लस टू वार्ता भारत और अमेरिका के रक्षा और विदेश मंत्रियों के बीच स्थाई बातचीत में बदल चुका है। बातचीत के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन और रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के साथ जयशंकर और राजनाथ सिंह पत्रकार वार्ता कर रहे थे।

एक पत्रकार ने रूस से भारत के तेल खरीदने पर सवाल पूछा तो जयशंकर ने कहा कि भारत रूस से जितना तेल एक महीने में खरीदता है उतना यूरोप एक दोपहर में खरीद लेता है। इसका सीधा मतलब था कि जो लोग रूस को घेरना चाहते हैं उनकी असलियत दुनिया देखे। ऐसे बयान की चर्चा विश्व भर में होनी ही थी। यही नहीं उसी पत्रकार वार्ता में अमेरिकी विदेश मंत्री ने कह दिया कि भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर उनकी नजर है। ब्लिंकन के इस वक्तव्य पर भारतीय पत्रकारों ने जयशंकर से प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने कहा कि जिस तरह से अमेरिका भारत में मानवाधिकारों को लेकर अपनी राय रखता है उसी तरह से भारत भी अमेरिका में मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर अपना विचार रखता है। अगर उनकी हम पर नजर है तो हमारी भी उनके यहां मानवाधिकारों पर नजर है।

ये सारे बयान सुर्खियों में थे ही कि 26 अप्रैल को रायसीना डायलॉग में उनके बयान फिर सुर्खियां बन गए। उसमें नॉर्वे के विदेश मंत्री ने यूक्रेन पर रूसी हमले में भारत की भूमिका पर प्रश्न उठाया तो एस जयशंकर ने कहा याद कीजिए कि अफगानिस्तान में क्या हुआ? यहां की पूरी सिविल सोसायटी को विश्व ने छोड़ दिया। उन्होंने पूछा कि अफगान मामले पर आपने जो किया वह किस प्रकार की नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था के अनुरूप था? एशिया में हम लोग अपनी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और यह संकट नियमों से संचालित व्यवस्थाओं पर बुरा असर डाल रहा है। उन्होंने यूरोपीय प्रतिनिधियों को याद दिलाया कि एशिया में नियम आधारित व्यवस्था को चुनौती मिली, यानी चीन भारतीय सीमा पर दुस्साहस दिखा रहा था तो यूरोप से भारत को यह सलाह मिली कि ऐसी स्थिति में चीन से व्यापार बढ़ाया जाए। कम से कम हम सलाह तो नहीं दे रहे हैं।

अफगानिस्तान के मामले में किस नियम आधारित व्यवस्था का पालन किया गया? कोई टकराव नहीं चाहता है और यूक्रेन रूस संघर्ष में कोई विजेता नहीं होगा। जब स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री ने प्रश्न किया कि यूक्रेन आक्रमण पर वैश्विक प्रतिक्रिया के बाद चीन का क्या रुख होगा? जयशंकर का जवाब था कि यह सवाल तो चीनी विदेश मंत्री से पूछा जाना चाहिए। आगे उन्होंने कहा कि यह यूरोप के जगने की ही नहीं बल्कि जग कर एशिया की ओर देखने की भी चेतावनी है। यहां विश्व के बहुत से समस्याग्रस्त क्षेत्र हैं। सीमाएं निश्चित नहीं है, राज्य द्वारा प्रायोजित आतंकवाद पूरी तरह से जारी है। इस स्थिति में विश्व के लिए अत्यावश्यक है कि वह इधर भी फोकस करे। यहां कुछ नया होने वाला नहीं है बल्कि वही घटनाक्रम पहले की तरह प्रतिदिन हो रहा है। इसका सीधा अर्थ था पूर्णविराम यानी पाकिस्तान आतंकवाद पर आयोजित कर रहा है चीन सीमाओं को छेड़छाड़ कर रहा है और यह विश्व के लिए संकट है जिसमें आप सबको भूमिका निभानी चाहिए।

इन बयानों पर पार्टियों के दृष्टिकोण अलग अलग है किंतु आम जन समूह ने इनका स्वागत किया है। लोग कह रहे हैं कि वाह! क्या विदेश मंत्री है। कितने शानदार तरीके से भारत का प्रतिनिधित्व कर रहा है। चंद प्रतिक्रियाओं को देखने के बाद पहला निष्कर्ष यही आएगा कि अमेरिका और यूरोप को जिस ढंग से जयशंकर ने खरी-खरी सुनाई वैसा ही भारत के लोग सुनना चाहते हैं। सितंबर 2020 में जयशंकर की पुस्तक ’द इंडिया वे’ प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में जयशंकर ने कहा है कि तीन चीजों ने भारतीय विदेश नीति को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया। पहला, देश का विभाजन। पुस्तक के अनुसार विभाजन के कारण भारत का आकार छोटा हुआ और चीन का महत्व पहले से ज्यादा बढ़ गया। दूसरा, 1991 के आर्थिक सुधार में देरी हुई। यानी पहले हो जाना चाहिए था।

अगर यह आर्थिक सुधार पहले हो गया होता तो भारत पहले आर्थिक दृष्टि से संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र बन जाता। तीसरी बात उनके अनुसार यह है कि भारत ने नाभिकीय हथियार का विकल्प अपनाने के मामले में देरी की। उसे पहले ही नाभिकीय विकल्प अपना लेना चाहिए था। इन तीनों ने भारतीय विदेश नीति को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया और यह भारत के लिए बोझ बन गए। इन बातों से हालांकि कुछ लोग असहमति रखते हैं लेकिन यह वही लोग हैं जो हर बात पर नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना करते हैं। उस पुस्तक में ऐसी बहुत सारी बातें हैं जिससे पता चलता है कि एस जयशंकर का भारतीय विदेश नीति ,रक्षा नीति और यहां तक कि अर्थनीति को लेकर भी स्पष्ट विचार हैं।

स्वाभाविक ही उनके बयानों की काफी आलोचना हुई। पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने उनके हाल के बयानों को प्रतिक्रियात्मक कहा है। उन्होंने कहा कि इससे कुछ हासिल नहीं होगा। हमें इस समय पश्चिम को प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता नहीं है। खुर्शीद ने यह कह दिया कि डिप्लोमेसी यानी कूटनीति का मतलब प्रतिक्रियावादी होना नहीं होता है। हम शिकायत करके कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं। हम अभी पश्चिम से शिकायत कर रहे हैं कि आपने भी तो मुझे मदद नहीं की। हम इस स्तर पर पहुंच गए हैं कि पश्चिम से अतीत को लेकर बहस कर रहे हैं। मुझे नहीं पता कि इससे क्या हासिल होगा। अभी हम इंतजार ही कर सकते हैं। इतना जरूर कहूंगा कि भारत के लिए भी बहुत मुश्किल स्थिति है। उन्होंने एस जयशंकर की प्रतिक्रिया को परिपक्व कूटनीति का हिस्सा मानने से इनकार किया।

एस जयशंकर ऐसे परिवार से आते हैं जहां कूटनीति, रक्षा नीति से लेकर अनेक विषयों के जानकार और विशेषज्ञ भरे रहे हैं। उनके पिता के. सुब्रमण्यम एक अच्छे कूटनीतिज्ञ थे। केएस या सुब्बू नाम से पहचाने जाने वाले के सुब्रमण्यम 1951 में आईएएस के टॉपर थे। भारत के नाभिकीय सिद्धांतों के शिल्पकारों में वे भी शामिल थे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में नाभिकीय हथियारों का इस्तेमाल भारत पहले नहीं करेगा, इस सिद्धांत के पीछे उनकी भी भूमिका थी। उन्होंने रक्षा मंत्रालय में 62 से 66 तक काम किया। यह वह काल था जब भारत पर चीन और पाकिस्तान ने हमला किया था। अटल बिहारी बाजपेयी ने कारगिल युद्ध की समीक्षा तथा भविष्य पूर्वोपायों का सुझाव देने वाली समिति का उन्हें ही अध्यक्ष बनाया था। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के समय एस. जयशंकर अमेरिका में भारत के राजदूत थे।

प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें वहां से नहीं हटाया। जाहिर है, मोदी ने उनके विचारों और कार्यों को समझा तथा उनकी उपयोगिता मानी। जयशंकर चीन और रूस दोनों जगह भारत के दूत रहे हैं। जाहिर है, तीनों प्रमुख देशों का उनका सीधा अनुभव है। एस.  जयशंकर का कार्यकाल 31 जनवरी 2015 को खत्म हो रहा था लेकिन सरकार ने उन्हें विदेश सचिव बना दिया। तब तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह का कार्यकाल 7 महीने बचा था। जयशंकर का कैरियर अच्छा रहा है। 1977 में वे विदेश मंत्रालय से जुड़े और उनकी पहली पोस्टिंग मास्को स्थित भारतीय दूतावास में पहले और दूसरे सचिव के रूप में हुई थी। तब सोवियत संघ कम्युनिस्ट शासन में था और दुनिया की दूसरी महाशक्ति माना जाता था। वे 1988 में श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षक सेना के राजनीतिक सलाहकार भी रहे।

जिस व्यक्ति के पास 40 वर्ष से ज्यादा का अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का अनुभव हो, जो भारत को ठीक प्रकार से समझता हो और साथ ही वर्तमान सरकार की विदेश नीति की सोच से सहमत हो ,उसकी भाषा ऐसी ही होगी। जब प्रधानमंत्री स्वयं लहजे में मुखर होकर सुस्पष्ट बोलते हैं तो विदेश मंत्री को हिचक क्यों हो। भारतीय विदेश नीति का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से लेकर लंबे समय तक अलग किस्म के रोमांसवादी काल्पनिक सिद्धांतों पर आधारित रही, जिसमें राष्ट्रहित से ज्यादा अबूझ आदर्श तथा नैतिकता, शालीनता, सभ्यता के नाम पर अजीबोगरीब अव्यवहारिक लबादों से घिरी रही। कई विद्वानों ने इसे नासमझ और राष्ट्र का अहित करने वाले व्यवहार की संज्ञा दी है। हमारी कोई आलोचना करे लेकिन हम उसी भाषा में उसे जवाब नहीं देंगे यह कैसी विदेश नीति थी? इस हिचकिचाहट या दूसरी भाषा में दब्बुपन से भारत को हासिल क्या हुआ? पंडित नेहरू के साथ वीके कृष्ण मैनन जैसे वामपंथी चरित्र वाले विदेश मंत्री ने भारतीय विदेश नीति को दूसरे देशों के साथ व्यवहार में हिचकिचाहट और संकोच से भरे व्यवहार का चरित्र प्रदान कर दिया।

निर्गुट से लेकर तीसरे विश्व की आवाज उठाने के नाम पर भारतीय विदेश नीति की मुखरता कभी हुई भी तो वह राष्ट्रहित से ज्यादा दूसरे विषयों पर थी। यहां तक कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में भारत ने 1971 में बांग्लादेश युद्ध में हस्तक्षेप कर निर्णायक विजय प्राप्त की। बावजूद राष्ट्रहित पर आधारित कूटनीतिक अस्पष्टता तथा मुखरता की कमी से भारत ने उस विजय से कुछ भी हासिल नहीं किया। 90 हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक हमारी कैद में थे लेकिन हम पाकिस्तान से कुछ नहीं ले सके। बहुत कम लोगों को मालूम है कि तब भारतीय सेना ने सिंध के काफी इलाकों पर कब्जा कर लिया था जिनमें हिंदू बहुल जिले शामिल थे। जिस भारत को जयशंकर अभिव्यक्त कर रहे हैं उसकी तार्किक परिणति तब यही होती कि हम पाकिस्तान से सौदेबाजी करते और कहते कि हम आपको सिंध का क्षेत्र लौटा सकते हैं, आप कश्मीर का हमारा भाग लौटा दीजिए।

संभव था पाकिस्तान तब मजबूर हो जाता। बिना ऐसा किये वे क्षेत्र भी वापस दे दिये गये। पाकिस्तान के गैर मुस्लिम हो या हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई सबको पंडित नेहरू के कार्यकाल में लियाकत समझौते के द्वारा पाकिस्तान के हवाले छोड़ दिया गया। तब भारत के बड़े वर्ग की आवाज थी कि पाकिस्तान के साथ दो टूक बात हो। यानी वहां अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने के लिए उससे बात की जाए नहीं तो सारे गैर मुसलमान भारत में लाए जाएं और यहां से मुसलमानों को पाकिस्तान भेजा जाए। डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर जैसे लोगों की भी आवाज यही थी। लेकिन हमारी विदेश नीति में अजीब किस्म की काल्पनिकता थी जो अति विनम्रता और हिचकिचाहट के रूप में प्रकट होती थी।

हालांकि समय-समय पर भारतीय विदेश नीति ने मुखरता और राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी। मसलन, नरसिंह राव के शासनकाल में सोवियत संघ के विघटन के बाद नए सिरे से विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की पुनर्रचना करने की चुनौती उत्पन्न हुई थी। उन्होंने मुखर होकर इजराइल के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में जायनवादौर  बनाम जातिवाद प्रस्ताव को खत्म करने के पक्ष में मतदान कर दिया। अमेरिका यूरोप से लेकर दक्षिण पूर्वी एशिया तक से नरसिंहराव ने भारत के साथ संबंधों की पुनर्रचना की नींव डाली जिस पर संबंध आगे बढ़ते रहे। अमेरिका और यूरोप में तब भारत से परमाणु अप्रसार संधि से लेकर परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि आदि पर हस्ताक्षर करने का दबाव डाला। किंतु भारत कठिन स्थिति में होते हुए भी अपने स्टैंड पर कायम रहा कि वह ऐसा तब तक नहीं करेगा जब तक दूसरे देश अपनी परमाणु क्षमता खत्म करने की घोषणा नहीं करते।

अर्थव्यवस्था में सुधार और उदारीकरण की शुरुआत नरसिंह राव के काल में हुई। इसका भी विदेश नीति पर गहरा असर पड़ा। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में नाभिकीय विस्फोट करने के बाद लगे प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने किसी भी सूरत में अमेरिका या पश्चिमी देशों के सामने झुकने से इनकार किया। जिन देशों ने भारत के बहिष्कार का ऐलान किया उन्हें भी तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने करारा जवाब दिया। जसवंत सिंह ही तब अमेरिका और यूरोप से प्रमुख वार्ताकार थे। उन्होंने भी कई अवसरों पर भारत के पक्ष को मुखरता से रखा तथा पश्चिमी देशों को करारा उत्तर दिया। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐसे बहुत कम अवसर आए जब लगा कि भारतीय विदेश नीति वाकई करवट ले रही है और हमें आईना दिखाने या सीख देने वाले देशों को ठीक प्रकार से उनकी भाषा में न केवल उत्तर दिया जा रहा है बल्कि सही व्यवहार करने के रास्ते दिखाए जा रहे हैं।

नरेंद्र मोदी के शासनकाल में ऐसा हुआ है। इसी का परिणाम है कि अमेरिका के साथ हमारे रक्षा संबंध आज उच्च शिखर पर हैं। हम अमेरिका, यूरोप सहित अनेक देशों के रक्षा साझेदार हैं। वास्तव में द्विपक्षीय अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नसीहत या सीख देने वाले को स्पष्ट शब्दों में आइना दिखाना, आलोचनाओं का कूटनीतिक लहजे में मुखर होकर उत्तर देना, अपने पक्ष को ठीक प्रकार से सामने रखना तथा दूसरे की कमियों को उजागर करना आदि कूटनीति के ऐसे पहलू हैं जिनसे राष्ट्रहित पूरा होता है। दूसरे देश भी आपके साथ समानता के स्तर पर व्यवहार करने को विवश होते हैं। आपको अपनी उपयोगिता और हैसियत बार-बार अपने बयानों से साबित करनी पड़ती है।

नहीं करते हैं तो फिर दूसरे देश आप पर दबाव डालने की कोशिश करते रहते हैं और यहां तक कि कई बार बाहें मरोड़ते भी हैं। एक बार आपने सुस्पष्ट होकर उत्तर देना शुरू किया और साथ ही आंतरिक बातचीत में अपने लहजे को बेहतर रखकर उपयोगिता साबित करते हुए संबंधों को ठीक पटरी पर ले चले तो किसी देश से संबंध भी नहीं बिगड़ता। एस जयशंकर की वर्तमान मुखरता व स्पष्टता और दो टूक शब्दों में दिए जा रहे वक्तव्य इसी व्यवहारिक राष्ट्रहित पर आधारित विदेश नीति के प्रतीक हैं।

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