खालिस्तान: विभाजन का वर्तमान हथियार

वर्तमान में चल रही खालिस्तानी गतिविधियां और उसके प्रति पंजाब की आम आदमी पार्टी का दोहरा रवैया काफी खतरनाक है। ऐसा नहीं है कि पूरा सिख समाज उनके साथ है लेकिन पाकिस्तान और अन्य विदेशी शक्तियों के सहयोग से चल रहे इस आंदोलन पर लगाम लगाए जाने की आवश्यकता है ताकि ये विघटनकारी शक्तियां भविष्य में अलगाववाद के जहर को पूरे सिख समाज तक पहुंचा सकें।

खालिस्तान आंदोलन फिर एक बार आतंक मचाने को तैयार है। डर व्यापक हिंसा और अतीत की दुखांत पुनरावृत्ति का भी है। तब पंजाब में पैंतीस हजार हिंदुओं का नरसंहार और देश भर मेंं सिखों के उत्पीड़न की घटनाएं हुई थीं, जिसका दंश अनेकों परिवार अब भी महसूस कर रहे हैं। इस दुखांत घटना में देश ने प्रधानमंत्री, पूर्व सेनाध्यक्ष तथा प्रदेश ने मुख्यमंत्री खोए, वहीं अनेक मंदिर-गुरुद्वारे भी इस वहशीपने के गवाह बने। अमृतसर का प्रसिद्ध हरिमंदिर साहेब सन 1984 मेंं इस खालिस्तानी कारस्तानी की भेंट चढ़ गया। खैर बात फिलहाल की करें, तो स्थितियां पहले से कहीं ज्यादा बुरी होने वाली हैं। प्रचार माध्यमों की सुविधा, सिख समुदाय की सम्पन्नता और इनके वैश्विक सम्पर्कों के नाते चुनौतियां कहीं अधिक बड़ी हैं। अब इसका नेतृत्व उच्च शिक्षित गुरपतवंत सिंह पन्नू के हाथों में है जो भारत की सरहदों से कहीं दूर है। पाकिस्तान परस्त पन्नू अमेरिका में रहकर इसके लिए धन इकट्ठा करता है। साथ ही वह इसके वैश्विक समर्थन के लिए भी प्रयासरत है। काल्पनिक पृथक सिख पहचान और उत्पीड़न के तथाकथित दावों के साथ इसे मानवीय अधिकार-संवेदनाओं का मुद्दा बनाकर भुनाया जा रहा है। जबकि इस बात से ये भी अवगत हैं कि उदारवादी लोकतांत्रिक भारत मेंं पृथक पहचान और केवल समुदाय विशेष के उत्पीड़न जैसा कुछ भी नहीं है।

बात अगर हालिया कुछेक घटनाओं की करें तो पहले पंजाब और अब हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश में भी इसकी आहट महसूस की जा रही है। हिमाचल में जहां विधानसभा भवन के बाहर खलिस्तानी झंडे व नारे मिले वहीं हरियाणा के करनाल में आतंकी षड्यंत्र के सबूत मिले हैं। पंजाब में खालिस्तान समर्थक प्रदर्शन, आतंकी षड्यंत्र और घटनाओं की लहर सी चल पड़ी है। पहले जहां ये दब-छुपकर चल रहा था, नई सरकार में यह हर जगह पांव पसार रहा है। कोविड के कारण रुका खालिस्तान रेफरेंडम 2020 अब पंजाब में जोरों पर है और विरोध करने वाले पंजाब के हिंदू निशाने पर हैं, जिसकी बानगी पटियाला की घटनाएं हैं। यहां अहिंसक प्रदर्शन कर रहे हिंदुओं पर हमले किये गए। वहीं स्थानीय काली माता मंदिर पर अकारण घात किया गया। नये दौर के इस आतंक को राजनैतिक समर्थन भी प्राप्त है, जिसे गुरपतवंत पन्नू के आम आदमी पार्टी का समर्थक करने वाले बयान और आप पार्टी के व्यवहार से भी समझा जा सकता है। हर बात पर मुखर मंतव्य रखने वाले केजरीवाल खालिस्तान पर मौन होते हैं। लालकिले की घटना, किसान आंदोलन से लेकर हालिया षड्यंत्रों के उजागर होने पर आप पार्टी आक्षेपों के खंडन की जगह केंद्रीय सरकार को ही कटघरे में खड़ा करती दिखती है, जबकि स्थानीय आप नेता, कार्यकर्ता खालिस्तान समर्थक गतिविधियों में संलिप्त पाये जा रहे हैं।

ये जानना बेहद जरूरी है कि, आखिर खालिस्तान क्या है? साथ ही इस मांग और अलगाव के कारणों को भी बूझना बेहद जरूरी है, तभी समाधान का रास्ता खुलेगा। बात अगर खालसा और खालिस्तान की करें तो दोनों एक दूसरे से अलग हैं। खालसा हिंदू साधुओं द्वारा अखाड़ों के लिए प्रयुक्त शब्द है। यह देश-धर्म रक्षार्थ युद्धरत साधु समूहों के लिए उपयोग होता था। इसे ही परिस्थितिजन्य कारणों से गुरु गोविंद सिंह ने एक नया स्वरूप दिया था। नई व्यवस्था में अब घरबारी भी दीक्षा ले खालसाई बन सकता था। ये खालसा पुरातन परम्परा का आधुनिक रूप था, जिसका एकमेव उद्देश्य संस्कृति और देश के सेवार्थ संघर्षों का था। किंतु चालबाज ब्रिटिश शासन ने इसे खालिस्तान पंथी बनाने का षड्यंत्र परतंत्र भारत में ही प्रारम्भ कर दिया था। जिसकी शुरुआत संयुक्त पंजाब सूबे के डिप्टी कमिश्नर मैकालिफ ने की थी। इसमें उसके पंजाबी भाषा शिक्षक काहन सिंह नाभा भी बराबर साझीदार थे। सर्वप्रथम मैकालिफ ने सैन्य एवं पुलिस बल बहाली में सिख होने की अनिवार्यता को लागू कराया, जिसके बाद पंजाब सूबे में हिंदुओं को पुलिस एवं सैन्य बल सेवा के लिए सिख बनने की मजबूरी थी। इस गुरु चेले की जोड़ी ने न केवल पृथकतावादी साहित्य की रचना की अपितु पृथक पूजा पद्धति और सैन्यबलों में अलग से शपथ का प्रावधान भी लागू कराया। इन्होंने बड़े ही योजनाबद्ध ढंग से गुरुओं को गैर हिंदू सिद्ध करते हुए उनकी महिमा का अतिरेक वर्णन किया और नानक मार्ग को हिंदुओं से सर्वदा पृथक बताया। जबकि गुरुओं की मान्यता और सम्मान हिंदु-सिखों में समान था। इनके प्रभाव की बात करें तो ये तत्कालीन दूसरे हिंदू संतों के समान ही थे। कबीर काशी में तो सिख गुरु लोग ननकाना, आनंदपुर साहिब और अमृतसर में बैठ ज्ञान भक्ति का उपदेश करते थे। इनकी कोई लिप्सा नहीं थी और ना ही कोई राजाओं के समान था। किंतु पाखंडियों ने इनकी आध्यात्मिक विरासत और उपलब्धियों को सिख राज का आधार कह पेश किया जो एक ऐतिहासिक मिथक है। इसी प्रकार आजन्म हिंदू रहे कई ऐतिहासिक नायकों को भी इन्होंने सिख बताकर भुनाया है। सिख मत और गुरुओं के लिए आत्म आहुति देने वाले बाबा बंदा वैरागी, भाई सतिदास-मतिदास और दयाला आजन्म हिंदू थे। भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ सेनापतियों में से एक हरि सिंह नलवा को भी इन्होंने गैर हिंदू घोषित किया, जबकि नलवा की आस्था महाराजा रंजीत सिंह की तरह हिंदू मंदिर और सिख गुरु दोनों में समान रूप से थी। इन महापुरुषों के परिजन अब भी हिंदू हैं, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। वास्तव में ये सब प्रयास सिख विश्वास प्रभाव वाले हिंदुओं को सिख बनाने और सिख बने हिंदुओं को कट्टर मतांध बनाने के लिए थे।

इसकी परिणति सन 1882 से 1921 के बीच पंजाब में सिख आबादी का जबरदस्त बढ़ना भी है। इसके बाद भी पंजाब के जिलों में ना तो सिख बहुसंख्यक थे और ना ही इनकी सोच मतांध थी। इसको देखते हुए मैकालिफ-काहन जोड़ी ने अमृतसर सिंह सभा और अकाली लहर जैसे पृथकतावादी संगठन एवं दल का मार्ग प्रशस्त किया। पहले सन् 1870 में सिंह सभा और फिर सन् 1920 में अकाली दल बना, जो मास्टर तारा सिंह के दिमाग की उपज थी। हिंदू परिवार में जन्मे मास्टर तारा सिख बन धर्मांध होते चले गए। पहले उन्होंने सिख और हिंदुओं को अलग करने का प्रयास किया। इसके लिए उदासी सम्प्रदाय को गैर सिख घोषित किया गया। जबकि गुरु नानक के जमाने से उदासी और सिख एक थे। नानक के शब्द दोनों के लिए अकाट्य थे। भेद केवल गुरु परंपराओं का था। उदासी धड़ा नानक के पुत्र श्रीचंद्र, तो सिख शिष्य लहना उर्फ अंगद देव को अपना पथप्रदर्शक मानता था। सन् 1920 से 25 के बीच चले इस आंदोलन के दौरान हर प्रसिद्ध मंदिर-गुरुद्वारे से उदासी संतों को बलात् निकाला गया और ऐसी हिंसक और उन्मादपूर्ण घटनाओं को सुधार आंदोलन का नाम दिया गया। तब ब्रिटिश अकाली षड्यंत्र से अनभिज्ञ म. गांधी ने इस जघन्य हिंसा को स्वतंत्रता संग्राम की पहली जीत का नाम दिया था, जबकि सन् 1929 के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में मास्टर तारा सिंह ने पूर्ण स्वराज्य की मांग का विरोध किया।

सन् 1942 के क्रिस्प मिशन संघ ने भी पृथक खालिस्तान की बात रखी थी, किंतु मांग के पक्ष में पर्याप्त समर्थन नहीं मिला। इसके दो प्रमुख कारण थे- प्रथम यह कि उस समय तक सिखों में पृथक पहचान का मुद्दा हावी नहीं हुआ था तथा तत्कालीन पंजाब का कोई भी जिला पूर्णरूपेण सिख बहुसंख्यक नहीं बना था। ऐसे में मास्टर तारा ने जिन्ना संग पृथक खालसा राज्य की बात रखी। जब ये नहीं जमा तो वे भारत में जाने पर सहमत हुए, किंतु पृथक खालिस्तान निर्माण के उपक्रम चलते ही रहे। अंग्रेजी हुकूमत के सहयोग से सन् 1925 में गुरुद्वारा एक्ट लाया गया। ब्रिटिश राज द्वारा सिख पृथकतावाद को बढ़ावा देने की दिशा में ये दूसरा एक्ट था। इससे पूर्व सन् 1909 में आनंद कारज विवाह कानून लाये गए थे। दरसल उससे पूर्व बहुसंख्यक सिख विवाह हिंदू पद्धति से ही सम्पन्न होते थे। गुरुद्वारा एक्ट के बाद सिख मत के प्रचार और मंदिर-गुरुद्वारों के प्रबंधन के लिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी बनी। किंतु इसका मूल काम तो ब्रिटिश अकाली मंसूबों को अमली जामा पहनाने का था।

प्रबंधन कमेटी एसजीपीसी की नीति नेतृत्व और निर्णय इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। सिख पंथ के वे सभी धड़े जो हिंदू-सिख को एक मान व्यवहार करते हैं, उन्हें इन्होंने गैर सिख मान गुरुद्वारा प्रबंधन से अलग रखा है। जबकि उदासी, निर्मल रामरैया, मीणा, बंदई, नामधारी, निरंकारी भी सिख ही हैं। इन सभी की दसों गुरु और गुरुग्रंथ साहिब में आस्था है। ये सिख पहनावा और सिख परम्पराओं का भी पालन करते हैं। किंतु गुरु गोविंद सिंह में सर्वाधिक आस्था वाले एसजीपीसी गुरु गोविंद के ही बनाए निर्मल सिखों को अपना नहीं मानते हैं जबकि निर्मल संस्कृत वेदांत को आधार बना गुरुग्रंथ साहिब वाणी का प्रचार करते हैं। दरसल इनके लिए तो भितरघाती विनोद सिंह और नामधारी गुरु को पकड़वाने वाले अकाली प्रेरणास्रोत हैं। मुगलों से लड़ रहे युद्ध में बाबा बंदा वैरागी भितरघात तो गुरु राम सिंह कूका इनकी मुखबिरी के नाते अंग्रेजी सरकार द्वारा गिरफ्तार किये गए। इनका आदर्श दुर्दांत भिंडरावाला है, जिसके गुर्गों ने पंजाब में व्यापक हिंदु नरसंहार किए, वही निरंकारी गुरु गुरुबचन सिंह की हत्या का मुख्य अभियुक्त स्वयं भिंडरावाला था। इन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे को अकाल तख्त का जत्थेदार भी बनाया था। अकाल तख्त अमृतसर हरिमंदिर साहेब से संचालित सिखों के छह प्रशासनिक महत्वपूर्ण केंद्रों में सर्वप्रमुख है। किसान आंदोलन से लेकर सिख आतंकियों की रिहाई तक मुखर रहने वाली यह संस्था कभी भी पंजाब के हिंदू नरसंहार और बेअदबी के आड़ में होने वाले कत्ल पर नहीं बोलती। वहीं खालिस्तानियों द्वारा हिंदू मंदिरों पर हमले और हिंदू देवताओं के चरित्र हनन प्रयासों पर भी मौन रहती है। उलटे यह संस्था गुरुग्रंथ साहिब को पूजने वाले हर हिंदू मठ पर कब्जे के लिए प्रयत्नशील रहती है।

विभाजन के वक्त आए सिख विस्थापितों के कारण भी पंजाब की जनसंख्या का स्वरूप बदला है। स्वतंत्र भारत की अल्पसंख्यक कल्याण नीतियों ने भी गुरुओं के प्रति आस्थावान हिंदुओं के एक बड़े तबके को सिख बनने का मार्ग खोला। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के आक्रामक प्रचार तंत्र और सिखों कीसम्पन्नता ने भी कहीं न कहीं प्रभाव डाला है। अगर कोई सिखों के हिंसक व्यवहार और खालिस्तानी मांग से असहमति प्रगट कर दे तो वह सजा का हकदार है। गैर अकाली सिख और हिंदू इसके लिए अंजाम भुगतने को सदैव तैयार रहें। अगर किसी अकाली सिख ने कहा तो वह तनखैया घोषित होगा। ऐसे में सिखों के बीच बढ़ती धर्मांधता और हालिया देश विरोधी गतिविधि चिंताजनक है। बात अगर इसके खात्मे की हो तो सरकार संग समाज को आगे आना होगा। इसके लिए सामाजिक संगठन और धार्मिक समूहों को भी पहल करनी चाहिए क्योंकि पंजाब के हालात कश्मीर से सर्वथा  भिन्न हैं। यहां हिंदू करीब पैंतालीस प्रतिशत हैं। ये जब हरमंदिर साहिब में बैठे भिंडरावाला से डर कर नहीं भागे तो भला भगोड़े पन्नू से डरकर क्या पलायन करेंगे। जहां दुनिया ने इस्लाम के क्रूर चेहरे को देखा है वहीं वह सिख समुदाय को अब भी एक मेहनतकश समाज के रूप में ही जानती है।

इन सबों के बीच एक और तथ्य विचारणीय है। सिख पंथ के केवल एक समूह मात्र का एक तबका ही खालिस्तान मुहिम के पीछे है। ऐसे में अन्य सभी सिख धड़ों को सामने आना चाहिए। बिना हिचक और भय के हर मंच से खालिस्तानी मांग का विरोध करना चाहिए। अन्यथा इनका मौन जहां देश में इनके प्रति घृणा पैदा करेगा, वहीं खालिस्तानी भी इन्हें अपना तो नहीं ही मानेंगे। हो सकता है ये भी हिंदुओं संग खालिस्तानी हिंसा के शिकार बनें। साथ ही, इन सभी गैर अकाली सिख पंथों को पवित्र मंदिर, गुरुद्वारों, सिख तीर्थ और प्रबंधक एसजीपीसी में स्थान व हिस्सेदारी के लिए भी आवाज बुलंद करनी चाहिए। बात भाजपा सरकार और संघ परिवार की हो तो हर अकाली आतंकी के लिए ये खालिस्तान विरोधी हैं। इनका काम सिखों को बरगलाना, समुदाय के मसलों को लटकाना और हिंदू हितों के विरोध के लिए काम करना है। जबकि सच्चाई इसके ठीक उलट है। सरकार और संघ परिवार हर बार सिख पक्ष के साथ ही खड़ा होता है जिसको लेकर कई बार इन्हें आलोचना एवं रोष का भी सामना करना पड़ा है। वैसे वर्तमान की इन परिस्थितियों में इन्हें भी नए सिरे से सोचना चाहिए। सरकार को अन्य उपक्रमों संग 1925 के गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सुधार पर भी काम करना चाहिए ताकि देश विरोधी प्रत्यक्ष-परोक्ष गतिविधियों पर रोक लग सके, अन्यथा गांधी-नेहरू की नासमझी का दंश झेल रहा देश एक और विभाजन एवं भीषण रक्तपात को कतई तैयार नहीं है।

Leave a Reply