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‘चेंज योर हसबैंड’ का विज्ञापन

‘चेंज योर हसबैंड’ का विज्ञापन

by हिंदी विवेक
in विशेष
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जितनी तेजी और आंधी के साथ चुनाव प्रचार, चर्चा, बहसें चालू हैं। इन दिनों वही रफ्तार हमारे महानगर में बिल्डिंगें बनने की है। मानो पहाड़ों को तोड़-तोड़ कर समतल करने जैसी मुहीम चला रखी हो। मतलब हैश टैग के साथ “चेंज योर वेदर” का अभियान।वहीं जगह-जगह लगे होर्डिंग के एक तरफ़ “चेंज योर हसबेंड” लिखा है तो दूसरी तरफ़ लिखा है “चेंज योर वाइफ़”।

इस तरह के विज्ञापन को हैरतंगेज़ कारनामा ही कहेंगे जहाँ हसबैंड या वाइफ को बदलने की बात खुलेआम, सरेआम की जा रही है। क्या महानगर में विचारों को बदलने की इतनी ताक़त है कि लगे हाथ एक विज्ञापन जारी कर दिया। वो भी पूरे शहर में बड़े-बड़े होर्डिंग लगाकर। एक तरफ़ हमारे यहाँ की अदालतें, तलाक़ की याचिकाओं पर इस फ़िराक़ में लगी रहती हैं कि भाई सम्बंध टूटने से बचा लें। बीच का रास्ता मतलब काउंसिलिंग करवाकर समझौता हो जाए। डिवोर्स होने से बचाने के लिए, अपनी बची हुई संस्कृति का वास्ता देते रहते हैं। फिर इस जाहिरात का असल उद्येश्य क्या सच में सम्बंध विच्छेद है?

लेकिन जब ये होर्डिंग शहर के कई इलाक़ों में लगी देखी और पास जाकर देखा तो आश्चर्य इस बात का हुआ कि भाई! पति-पत्नि को बदलकर घर ख़रीदने का ऑफ़र है। इसके उलट भी हो सकता है, जैसे आमने-सामने के घर से पति-पत्नि को एक्स्चेंज करके घर ख़रीदने का ऑफ़र है। ख़रीददार शर्तें अपने मुताबिक़ मान सकता है। क्योंकि उस विज्ञापन पर छोटा-सा शर्तिया स्टार कहीं दिखा नहीं।

पता नहीं बिल्डर के दिमाग़ में इस विज्ञापन के पीछे क्या मंशा रही है? कहीं ये तो नहीं कहना चाहता कि आप जिस तरह आजकल जल्दी-जल्दी तलाक़ लेकर हसबेंड-वाइफ़ बदल लेते हो, उसी तरह जल्दी-जल्दी घर बदलो। बिल्डर का काम भी चलता रहे और कस्टमर भी हमेशा नए घर में नए साथी के साथ रहे। कभी कुछ पुराना ही न हो पाए।

ये जताना भी चाहते हों कि भई, हमारे बुनियादी ढाँचे को फ़ेविकोल का मज़बूत जोड़ न समझें!! सीमेंट में जिप्सम कम है। ढाँचा, आपकी ख़ातिरदारी में तीस वर्षों तक ही जवान रहेगा। इसी बात को विज्ञापन के दम पर समझाना चाहते हों। लेकिन ऐसा है तो उन्हें याद रखना चाहिए कि एक भारतीय अपनी आने वाली तीन पीढ़ियों को ध्यान में रखकर घर बनाता है। फिर भी बिल्डर काफ़ी आगे की सोच रखता है। वो ये भी तो जानता है कि महानगरों में ज़्यादातर घरों के बच्चे विदेशों में और उनके माता-पिता देश में रहते हैं।

इसके बारे में सोच-सोचकर ख़यालातों की रेंज बढ़ती जा रही है। हो, न हो ये कंसेप्ट किसी वेस्टर्न कंपनी की देन है। आख़िर लिव-इन-रिलेशनशिप का फ़ंडा भी तो उधर से ही आया है। जहाँ इन और आउट कब और क्यों, कुछ तय ही नहीं होता। बस, ऐक्ट होता है, मियाँ-बीवी वाला,,,। ये भी हो सकता है कि, इन कम्पनी के कस्टमर वे भारतीय हों जो विदेश में रहकर यहाँ प्रॉपर्टी में इंवेस्ट करते हैं। लेकिन जो भी हो, उसमें रहने के लिए विदेशी थोड़ी ही आएँगे।

संभावना तो ये भी है कि जिस तरह नए प्रॉजेक्ट्स में ‘किचन’ का कंसेप्ट ख़त्म किया जा रहा है। उसी तरह पुराने पति-पत्नि को चेंज करके नए सबंधों को बनाने का कंसेप्ट हो।  सोचने वाली बात ये है कि भारतीय संस्कृति की ‘अदम्य साहसी अन्नपूर्णा’ आने वाले समय में कहाँ मिलेगी!! बदलाव हमेशा बड़े शहरों से होता हुआ, छोटे शहरों की हवा का रूख बदलता है। बदलाव की बयार ऐसी ही बहती है।

मेट्रो सिटीज में ये चेंज दिखता है। दूसरे राज्यों के छोटे शहरों से आए लोगों का रहन-सहन यहाँ आकर तुरंत बदल जाता है। ये यहाँ की हवा का असर है। साफ़ हवा, प्रदूषण से मुक्ति दिलाती है। लेकिन पश्चिमी विक्षोभ कई बार सांस्कृतिक विरासत को नष्ट कर देता है। चूँकि इस महानगर को बढ़ाने में दमदार महिलाओं का दम लगा है, तो हो सकता है कि इतनी प्रोग्रेसिव महिलाएँ, इस विज्ञापन के उद्देश्य की प्रोग्रेस रोकने में सफल हो जाएँ। अब ये तो महिलाओं की ही ख़ासियत है क्योंकि उन्हीं के पास गिद्ध दृष्टि है। और इस महानगर में उनका दर्जा भी पहला है। तो आगे की आबोहवा का रूख वो तय करेंगी या नहीं, ये तो वे ही जानें। हम तो विज्ञापन का छिद्रान्वेशण  करने में ही व्यस्त हैं।

– समीक्षा तैलंग

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