झांँसी मेरी है ,अपनी झांसी किसी को नहीं दूँगी

” झांँसी मेरी है ,अपनी झांसी किसी को नहीं दूँगी। जो लेना चाहे आए, मैं उसे देख लूंगी।”

यह वाक्यावली जिनकी स्वाधीनता का मूल मंत्र था, यह जिनके स्वाभिमान का परिचय था ,ये थीं श्री मोरोपंत ताम्बे और श्रीमती भागीरथी वाई की लाडली पुत्री मणिकर्णिका, प्यार से “मनु”और नाना के यहां “छबीली” ,झांसी के महाराजा गंगाधर राव के साथ व्याही जाने पर महारानी लक्ष्मी बाई और 18 जून 1858 ई.के बाद  झांसी वाली रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई। उनका जन्म 19 नवंबर 1835 में काशीपुरी में हुआ था। मनु जब 3 वर्ष की थी तब मां का निधन हो गया था।मनु के पिता श्री मोरोपंत ताम्बे बाजीराव द्वितीय के भाई चिमनाजी अप्पा के यहां सेवाएं देते थे, उसी से परिवार का निर्वाह होता था चिमनाजी अप्पा का निधन हो जाने से मोरोपंत ताम्बे की सेवाएं भी समाप्त हो गई ,जिससे परिवार आर्थिक विपन्नता से जूझने लगा। मोरोपंत ने जीवन निर्वाह के लिए बाजीराव के यहां काम करना आरंभ कर दिया था। बाजीराव ने मनु की शिक्षा दीक्षा का भार अपने ऊपर लिया और अपने दत्तक पुत्र धून्धूपंत के साथ ही मनु की शिक्षा दीक्षा का भी बंदोबस्त कर दिया। मनु अश्वारोहण, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध विद्या में पारंगत हो गई ।इसके कारण ही बाजीराव ने मनु का विवाह गंगाधर राव  नेवालकर के साथ करने में सफल हुए।

सन 1851 में एक पुत्र का जन्म हुआ कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद गंगाधर राव एवं महारानी लक्ष्मीबाई नेआनंदराव दामोदर को दत्तक पुत्र के रूप में लिया। पुत्र के वियोग में दुखी राजा ने 21 नवंबर 1853 को प्राण त्याग दिए ,इससे महारानी के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा । यह वह समय था जब डलहौजी की हड़प नीति के तहत नि:संतान राजाओं के राज्य को अंग्रेजों के राज्य में मिलाने का काम जोरों पर था, दत्तक पुत्रों को मान्यता नहीं देते थे परंतु एक संधि में गंगाधर राव ने अंग्रेजों को राजी कर लिया था ,इसके बावजूद गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों की नीयत खराब हो गई और वे समझोते से मुकर गए और झांसी का राज्य अंग्रेजों के राज्य में मिला लिया गया ।रानी तथा उसके दत्तक पुत्र के गुजारे के लिए थोड़ी सी पेंशन बांधी गई।उन्होनें संकट की घड़ी में संयम  से काम लिया। अपने दत्तक पुत्र दामोदर का उपनयन संस्कार किया ।इसके लिए दत्तक के नाम जमा ₹ सात लाख में से एक लाख सरकार ने मंजूर किया था।  असंतोषजनक परिस्थितियां निर्मित होती गई ।नाना साहब झांसी की रानी और तात्या टोपे के रहते अंग्रेजों के मंसूबों पर पानी फिरने की आशंका बनी रहती। शिवाजी के वंशज और स्वाधीन भारतीय शासक नहीं चाहते थे कि कासिम बाजार और सूरत में घूम-घूम कर खिलौने बेचने वाले सौदागर हमें अपने हाथों का खिलौना बना लें, इसलिए विदेशियों को निकाल बाहर करने के लिए जोरदार यत्न आरंभ हो गए। स्वाधीनता आंदोलन की पहली जंग की ज्वाला अंदर ही अंदर धधकने लगी। इसी समय एक लुटेरे सरदार नत्थे खाँ ने झांसी के किले को घेरकर रानी से ₹3 लाख मांगे ,वह रुपए कहां से लाती। अंग्रेजों ने राज्य की संपत्ति पर पहले से हाथ साफ कर दिया था ,फिर भी उसने मान और गौरव की रक्षा के लिए अपने सारे कीमती आभूषण नत्थू खाँ के हाथ में रख दिए ।वह दुष्ट बाद में अंग्रेजों से मिल गया और उसने रानी पर विद्रोही होने का लांछन लगाया। खानदेश का रहने वाला सदा शिव नारायण महारानी के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ ।इसके बाद शुरू हो गया विद्रोह का नया अध्याय झांसी की जनता ने नंगी तलवार चूम कर रानी का अभिवादन किया। नत्थू खाँ ने अंग्रेजों से सहायता मांगी और इस विद्रोह के दमन के लिए 16 सितंबर 1857 को सेनापति ह्यूरोज आ गया और झांसी पर हमला बोल दिया ।उसने रानी को आत्मसमर्पण का संदेश भेजा ।रानी ने लिखवाया कि

“मैं आत्मसमर्पण को अपना प्रत्यक्ष अपमान समझती हूं ।आपको मालूम होना चाहिए कि हिंदू नारी जो हिंदू संस्कृति और राष्ट्रीयता की अनुगामिनी है ,किसी पुरुष को आत्मसमर्पण नहीं कर सकती ।”

संग्राम शुरू हो गया  ह्यूरोज के दांत खट्टे कर दिए । रानी ने किले पर गरगज , घनगर्ज ,कड़क बिजली और भवानी शंकर  तोपें रखवा दी थी ।अंग्रेजों ने झांसी के किले पर गोली बरसाना शुरू किया ।रानी ने उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया। 14 मार्च 1858 से 8 दिन तक लगातार तोपों से गोले बरसती रहे ।रानी की मुट्ठी भर सेना ने रानी को सलाह दी कि वह कालपी की ओर चली जाए ।झलकारी बाई और मुंदर सखियों ने भी रणभूमि अपना कौशल दिखाया। अपने चार पांच सैनिकों को लेकर रानी कालपी की ओर बढ़ी। कैप्टन बॉकर ने पीछा किया और उन्हें घायल कर दिया। 22 मई 1858 को क्रांतिकारियों को कालपी छोड़कर ग्वालियर जाना पड़ा। 17 जून को1858 को फिर युद्ध हुआ रानी के भयंकर प्रहारों से अंग्रेज पीछे हट गए। महारानी की विजय हुई ।18 जून 1858 को ह्यूरोज और स्मिथ स्वयं युद्धभूमि आ गये ।रानी ने दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया । 18 जून 1858 को ंस्वर्णरेखा नाले को रानी का घोड़ा पार नहीं कर सका ।वही एक सैनिक ने पीछे से रानी पर तलवार से ऐसा जोरदार प्रहार किया कि उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और आंख बाहर निकल आई। उनके अंग अंग से खून  बह रहा था ।रानी के अंतिम  वाक्य यही थे कि

“मेरी मृत्यु एक वीरांगना की तरह से हुई ।मुझे ये म्लेच्छ न जीवित अवस्था में ही पकड़ सकें न मेरे मरने के उपरांत ही पकड़ने पायें ”

घायल होते हुए भी उन्होंने उस अंग्रेज सैनिक का काम तमाम कर दिया । रानी की  हालत देखकर उनके विश्वासपात्र सरदार रामचंद्र राव उन्हें उठाकर गंगादास की कुटिया में ले आए वही महारानी मैं प्राण त्याग दिए वहीं चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार किया गया।गौरवमई बलिदानी परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हुए मातृभूमि के लिए अंतिम सांस तक लड़कर प्राणाहुति देने वाली प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कीअमर कथा की देवी हिंदुस्तान की माटी के कण-कण में समा गई ।उनके पुण्य स्मरण के बिना मातृभूमि को दी जाने वाली हमारी सलामी अधूरी रहेगी।

वीरांगना शौर्य प्रतिमा को, सहज शीश झुक जाता है, कण-कण करता वंदन उसका ,रोम-रोम यस गाता है। बलिदानी लक्ष्मीबाई को ,कृतज्ञ राष्ट्र का नमन सदा ,

 अमर तेरा उत्सर्ग त्याग  गौरव इतिहास सुनाता है।।

 स्वतंत्रता की परम उपासक वीरांगना लक्ष्मीबाई को शत शत नमन।

                                                                                                                                                                                         शिवकुमार शर्मा

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